सम्पादकीय

महबूबा का 'खालिस' मुगालता

Gulabi
28 Jun 2021 6:02 AM GMT
महबूबा का खालिस मुगालता
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मोहतरमा महबूबा मुफ्ती मुगालते में है अगर वह यह समझती हैं कि कश्मीर के लोगों को अनुच्छेद 370 का खिलौना दिखा कर वह

आदित्य चौपड़ा। मोहतरमा महबूबा मुफ्ती मुगालते में है अगर वह यह समझती हैं कि कश्मीर के लोगों को अनुच्छेद 370 का खिलौना दिखा कर वह फिर से रियासत की अवाम में मकबूलियत ( लोकप्रियता) हासिल कर सकती हैं। यह मुगालता बेशक उन्हें हो सकता है मगर रियासत की दानिशमन्द अवाम को नहीं हो सकता क्योंकि यह मामला मुल्क की सबसे बड़ी अदालत 'सर्वोच्च न्यायालय' में काबिले गौर है। 370 को हटाया जाना उसी संसद में हुआ है जो इस मुल्क की खुद मुख्तार 'एवान' है और इसमें पास किये गये किसी भी कानून को सिर्फ सर्वोच्च न्यायालय में ही चुनौती दी जा सकती है। अब मोहतरमा एक तरफ यह फरमा रही हैं कि 1947 में संविधान ने जो खास रुतबा रियासत को दिया था उसे बरकरार रखना संविधान की रूह से ही निकलता है जबकि दूसरी तरफ संसद ने इसे खत्म करके संविधान की रूह से ही काम लिया है जिसकी तसदीक सिर्फ सर्वोच्च न्यायालय में ही हो सकती है। हालात बिल्कुल साफ हैं कि 370 का दारोमदार अब अदालत पर है, सड़कों पर इसका शोर मचा कर कुछ नहीं हो सकता। इस बाबात महबूबा मुफ्ती को यह कबूल करना होगा कि उन्हें भारत के संविधान पर यकीन है। अगर उन्हें कश्मीरियों और कश्मीरियत की इतनी ही फिक्र है तो उन्हें कौल देनी चाहिए कि पाकिस्तान के कब्जे में पड़े जम्मू-कश्मीर के इलाके को जल्द से जल्द से छुड़ा कर बाकी उस कश्मीर के हवाले किया जाये जिसका विलय महाराजा हरि सिंह ने 26 अक्तूबर, 1947 को भारत में किया था। वह मौजूदा कश्मीर के बारे में पाकिस्तान से बातचीत की हिमायत किस बिना पर कर रही हैं जबकि पाकिस्तान की हैसियत कश्मीर के एतबार से एक हमलावर मुल्क के अलावा और कुछ नहीं है।


वह भूल रही हैं कि 2005 में जब श्रीनगर से मुजफ्फराबाद के बीच तिजारती और शहरी रास्ते खोले गये थे तो यह सोच कर ही खोले गये थे कि पूरा जम्मू-कश्मीर भारत का अटूट हिस्सा है। मगर पाकिस्तान ने अपने कब्जे वाले कश्मीर को दहशतगर्दों की सैरगाह बना कर सब किये-कराये पर पानी फेर दिया। भारत जम्मू-कश्मीर में अपना हक मांग रहा है। मगर महबूबा इस बारे में एक लफ्ज भी नहीं बोलती हैं और वह उस 35(ए) की बात करने लगती हैं जो भारत के संविधान को जम्मू-कश्मीर की अवाम पर जस का तस लागू होने से रोकता है। जरा कोई पूछे मोहतरमा से कि सूबे में तभी से (1989 से ) हालात खराब होने शुरू क्यों हुए जब उनके वालिद महरूम मुफ्ती मुहम्मद सईद मुल्क के गृहमन्त्री बने थे? यह केन्द्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार का दौर था और अपने 11 महीने की सरकार में मरहूम विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पूरे हिन्दोस्तान को आर्थिक व सामाजिक तौर पर कंगाली की हालत में झोंक दिया था। कश्मीर में दहशतगर्दी का खुल कर नंगा नाच होने लगा था। उसके बाद ही 1990 में कश्मीर वादी से हिन्दू पंडितों का पलायन शुरू हुआ था। बेशक तब विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार नहीं थी, मगर जो हालात घाटी में पिछले 11 महीनों के दौरान एेसे बना दिये गये थे कि उससे कश्मीर की खूबसूरत वादियों में जहर घुल चुका था। यह सनद रहनी चाहिए कि सूबे की वजीरेआल्हा के तौर पर महबूबा पूरी तरह फेल रहीं और वह जम्मू-कश्मीर की उस महान संस्कृति की रक्षा नहीं कर सकीं जिसके गोशे-गोशे में हिन्दू-मुस्लिम एकता रची-बसी हुई है। मुस्लिम फकीरों को 'ऋषि' कहने वाले कश्मीर में हुर्रियत कान्फ्रेंस के जेहादी जहनियत के लोगों को तरजीह देकर उन्होंने पाकिस्तान परस्त तंजीमों को पनाह देने का काम ही किया। यह भी सनद रहनी चाहिए कि महबूबा की हुकूमत के दौरान दहशतगर्द अपने कारनामें करने में कामयाब हो जाते थे और इस सूबे की नौजवान पीढ़ी हाथों में पत्थर उठा कर हिन्द की चादर को मैली करती थी। महबूबा दिल्ली के कई टीवी चैनलों को इंटरव्यू देकर जो यह फरमान जारी कर रही हैं कि संविधान ने उन्हें एक हाथ में कश्मीरी और दूसरे हाथ में तिरंगा पकड़ने का अख्तियार दिया था, वह उसे लेकर ही रहेंगी, साफ बताता है कि उनकी मंशा भारत के संविधान पर यकीन रखने की नहीं है क्योंकि 370 खत्म हो जाने के बाद अब यह सपने की बात हो गई है। मगर महबूबा साहिबा को सपने देखने से कौन रोक सकता है? सपना तो उनके वालिद ने भी यह देखा था कि पूरे जम्मू-कश्मीर में हिन्दोस्तान और पाकिस्तान दोनों की करेंसियों को चलाया जाये। मगर क्या यह मुमकिन था?

एक बात अच्छी तरह समझ ली जानी चाहिए कि पाकिस्तान से जो भी बात करेगी वह भारत की केन्द्रीय सरकार ही करेगी। और केन्द्रीय सरकार को यह हक भारत का संविधान देता है कि वह अपने किसी भी सूबे के बारे में हालात और वक्त के मुताबिक माकूल फैसला ले। क्या महबूबा साहिबा को यह बताना पड़ेगा कि यह जम्मू-कश्मीर की एसैम्बली ही थी जिसने 1965 में इस सूबे के चुने हुए मुखिया को वजीरे आजम से वजीरे आल्हा और हुकूमत के सरपरस्त सदरे रियासत को राज्यपाल बना दिया था। इसलिए यह सोचना फिजूल होगा कि रियासत की अवाम देशभक्ति में किसी से कम है। बल्कि हकीकत तो यह है कि कश्मीर पर पाकिस्तान से हुई पहली लड़ाई के हीरो ब्रिगेडियर उस्मान ही थे जिन्होंने मुहम्मद अली जिन्ना की पाकिस्तानी फौज का जनरल बनने की पेशकश को ठोकर मार कर भारत की फौज में ही ब्रिगेडियर रहना ही पसन्द किया था। वाजे तौर पर मोहतरमा महबूबा को यह सोचना चाहिए कि कश्मीर अब ऐसे मुकाम पर आकर खड़ा हो गया है जहां पूरा हिन्दोस्तान हर कश्मीरी का घर है। हर कश्मीरी नौजवान इस मुल्क की तरक्की की रफ्तार में शामिल होकर ऊंची उड़ान भरना चाहता है और साबित करना चाहता है कि कामयाबी उसकी भी मंजिल होगी। वह अपनी कश्मीरियत की हिफाजत भी करना चाहता है मगर बाकी हिन्दोस्तान से अलग होकर नहीं। इस वजह से महबूबा साहिबा को पाकिस्तान का राग छोड़ कर हिन्द की चादर में कश्मीरी नौजवानों के हौसलों और बुलन्द इरादों के नक्श ढूंढने चाहिए। नामुराद पाकिस्तान सिर्फ दहशतगर्दी और गुरबत ही बांट सकता है। मोहतरमा को तोहफे में इसके अलावा और क्या पेश किया जाये,

''हो गई है 'गैर' की शीरी बयानी कारगर

इश्क का उसको गुमां हम बेजुबानों पर नहीं।''


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