सम्पादकीय

महबूबा मुफ्ती का तालिबान

Rani Sahu
16 Sep 2021 6:51 PM GMT
महबूबा मुफ्ती का तालिबान
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जब से अफगानिस्तान के अधिकांश हिस्से पर तालिबान ने कब्जा कर लिया है

जब से अफगानिस्तान के अधिकांश हिस्से पर तालिबान ने कब्जा कर लिया है और वहां के राष्ट्रपति अशरफ गनी अपने देश से भाग गए हैं, वहां के सेनाध्यक्ष ने बिना लड़े तालिबानी आतंकियों के सामने विधिवत आत्मसमर्पण कर दिया है, तभी से भारत में भी कुछ लोग तालिबान के समर्थन में खड़े नज़र आने लगे हैं। लेकिन जम्मू-कश्मीर की कश्मीर घाटी की महबूबा मुफ्ती ने तालिबान का उदाहरण देकर भारत को एक प्रकार से धमकियां ही देनी शुरू कर दी हैं। मीडिया के अनुसार महबूबा मुफ्ती ने भारत को कहा है कि वह कश्मीर को लेकर अभी भी पाकिस्तान से बात कर ले, अन्यथा अफगानिस्तान में जो तालिबान आतंकियों ने किया है, वह कश्मीर घाटी में भी हो सकता है। महबूबा ने कहा कि अभी भी समय है कि भारत कश्मीर पर पाकिस्तान से बात करे, अन्यथा बहुत देर हो जाएगी। संकेत स्पष्ट है कि कश्मीर घाटी का हाल भी वही होगा जो तालिबान आतंकियों ने अफगानिस्तान का किया है। यह सभी जानते हैं कि तालिबान का निर्माण पाकिस्तान की सेना और आईएसआई ने ही किया है। महबूबा शायद यही संकेत देना चाहती है कि यदि पाक से बात न की तो वही तालिबान कश्मीर घाटी का भी वही हाल करेगा। महबूबा जैसे कुछ लोग अफगानिस्तान में जो कुछ हुआ है, उसे तालिबान द्वारा अफगानिस्तान को स्वतंत्र करवाना भी बता रहे हैं। यानी महबूबा धमकी दे रही है कि यदि कश्मीर घाटी को लेकर भारत ने पाकिस्तान से बात न की तो तालिबान आतंकी अफगानिस्तान की तरह कश्मीर घाटी को भी भारत से छीन सकते हैं। महबूबा मुफ्ती कौन है? साधारण सा उत्तर तो यही है कि वे मरहूम सैयद मुफ्ती मोहम्मद की बेटी हैं। कुछ अरसा के लिए जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री भी रह चुकी हैं।

आजकल वहीं के एक राजनीतिक दल पीडीपी की अध्यक्षा हैं। लेकिन प्रश्न है कि वह कश्मीर घाटी में किसका प्रतिनिधित्व करती हैं और किसकी ओर से भारत को इस प्रकार की धमकियां दे रही हैं? कश्मीर घाटी की जनसंख्या लगभग 68 लाख है। यह जनसंख्या अनेक समूहों में विभाजित है। बड़ा हिस्सा तो कश्मीरियों का ही है, चाहे उनका मजहब इस्लाम, हिंदू, सिख, शिया संप्रदाय इत्यादि कोई भी हो। लेकिन बहुत बड़ी संख्या गुज्जरों की भी है। कुछ संख्या शीना समाज की भी है। कुछ मोनपा भी हैं। कश्मीर घाटी में दो-तीन प्रतिशत संख्या एटीएम की है। एटीएम से मतलब अरब सैयद, तुर्क, मुगल मंगोल से है। ये लोग आक्रमणकारियों के साथ मध्य एशिया के विभिन्न हिस्सों से आए थे। तब के शासकों ने इन्हें घाटी में जागीरें दीं। अरब सैयद तो तैमूरलंग से पिटते हुए भाग कर कश्मीर घाटी में आए थे। इनकी बदबख्त हालत देखकर कश्मीरियों ने इन्हें शरण दी। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 की आड़ में एटीएम समुदाय ने एक प्रकार से समस्त कश्मीरी समाज को बंधक बना कर रखा हुआ था। एटीएम की दृष्टि में जब कश्मीरी ही कहीं नहीं ठहरते तो गुज्जरों की भला क्या औक़ात हो सकती है? महबूबा मुफ़्ती इसी एटीएम समुदाय से ताल्लुक़ रखती हैं । यह कश्मीरियों का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि अब तक जम्मू कश्मीर में जितने मुख्यमंत्री हुए वे सभी इसी एटीएम समाज के थे। शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत तो एटीएम के विरोध से ही की थी, लेकिन 1953 के बाद वे और उनका कुनबा निरंकुश सत्ता के लालच में एटीएम की गोद में ही समा गए। बख्शी ग़ुलाम मोहम्मद ने जरूर एटीएम से दूरी बनाए रखी, लेकिन कांग्रेस ने शेख अब्दुल्ला के साथ मिल कर उसका जो हश्र किया, उसे सभी जानते हैं।
कश्मीर घाटी में एटीएम समाज की संख्या चाहे आटे में नमक के बराबर भी नहीं है, लेकिन कश्मीरियों के मज़हबी और राजनीतिक जीवन पर उनका शिकंजा पूरा है। कश्मीर घाटी की सभी बड़ी मस्जिदों पर सैयद मौलवियों का ही क़ब्ज़ा है। कोई कश्मीरी इन मस्जिदों का मौलवी बनने का स्वप्न भी नहीं ले सकता। कुरान शरीफ का अध्ययन तो इतने लंबे अरसे में कश्मीरियों ने भी कर ही लिया है। कोई कश्मीरी मीरवाइज़ भी बन सकता है, यह सोचना तो शायद कुफर ही माना जाएगा। सब मुफ़्ती, पीरजादे, एटीएम समुदाय से ही ताल्लुक़ रखते हैं। अच्छे पद और बड़ी नौकरियां इन्हीं के लिए सुरक्षित हैं। एटीएम का कष्ट तो यह है कि जिन कश्मीरियों ने सैकड़ों साल से इस्लाम मजहब या शिया मजहब को स्वीकार भी कर लिया है, वे अभी तक अपनी सांस्कृतिक जड़ों से पूरी तरह टूटे नहीं हैं। लेकिन एटीएम के बारे में भी यह बात इतनी ही सही है। सैकड़ों साल से हिंदुस्तान में रहने के बावजूद इस समाज के लोग कश्मीर की मूल चेतना को अपना नहीं पाए और अभी भी अपनी विदेशी सांस्कृतिक चेतना और मूल्यों से जुड़े हुए हैं। इतना ही नहीं, वे बड़े गौरव से अपने नाम के आगे हमदानी, करमानी, अन्द्राबी, बुख़ारी, मुग़ल, सैयद इत्यादि लिख कर अपनी मूल सांस्कृतिक चेतना की घोषणा भी करते हैं। प्राकृतिक नियम के अनुसार तो एटीएम के लघु समाज को कश्मीर की सांस्कृतिक चेतना में स्वयं को समाहित करना चाहिए था लेकिन हो इसके विपरीत रहा है। वह आज भी अपने मूल्यों पर कश्मीरियों को बंधक बना कर रखना चाहता है। एटीएम का निशाना स्पष्ट था। अधिकांश कश्मीरियों को मतांतरित कर इस्लाम मजहब में दीक्षित तो कर लिया गया था लेकिन उनका अरबीकरण नहीं हो सका था। उसके इस अरबीकरण अभियान को ज्यादा शह 1947 के बाद तब मिली जब भारत सरकार ने संविधान में अनुच्छेद 370 का समावेश करके कश्मीर घाटी को एक प्रकार से देश की मुख्य धारा से अलग कर दिया।
अनुच्छेद 370 की चारदीवारी के भीतर सत्ता एक प्रकार से एटीएम समाज के हाथ ही आ गई। अनुच्छेद 370 एटीएम के इस अरबीकरण अभियान की परोक्ष रूप में सहायता कर रहा था। इस अनुच्छेद के कारण भारत के संविधान के महत्वपूर्ण हिस्से कश्मीर घाटी पर लागू नहीं होते थे। लेकिन धीरे-धीरे भारत सरकार अनुच्छेद 370 के इस कश्मीर विरोधी और भारत विरोधी चरित्र को समझने लगी थी और उसने पांच अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया। यह एटीएम समाज की बहुत बड़ी हार थी। उसे आशा थी कि आम कश्मीरी समाज उसका साथ देगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बल्कि आम कश्मीरी ने तो एक प्रकार से मुक्ति की सांस ली। आतंकवादी अकेले पड़ते गए और बहुत बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों के हाथों मारे भी गए। एटीएम समाज के कि़ले में दरारें पड़ने लगीं। लेकिन अभी हाल ही में तालिबान ने अफगानिस्तान की अमेरिका समर्थित सरकार को अपदस्थ कर वहां अपना क़ब्ज़ा जमा लिया है। तालिबान की सहायता पाकिस्तान ने की, इसे पाकिस्तान सरकार स्वयं स्वीकारती है। तालिबान के हाथ अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना का हथियारों का ज़खीरा भी हाथ लग गया है। इस घटनाक्रम से कश्मीर घाटी के एटीएम समाज में मानो दोबारा जान पड़ गई हो।
अब महबूबा मुफ़्ती उसी तालिबान के दम पर भारत को धमकियां दे रही हैं। इसीलिए वह कश्मीर के लिए पाकिस्तान से बातचीत करने के लिए कह रही हैं। इतना ही नहीं, उसका कहना है कि तालिबान को अफगानिस्तान में शरीयत को सख्ती से लागू करना चाहिए। पाकिस्तान और तालिबान के रिश्ते को वे अच्छी तरह जानती ही हैं। यह महबूबा मुफ़्ती नहीं बोल रही हैं, बल्कि यह एक प्रकार से कश्मीर घाटी में बैठा एटीएम समाज बोल रहा है। लेकिन एटीएम की सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि जिस अनुच्छेद 370 की छत्रछाया में यह समाज फल-फूल रहा था, वह छत्रछाया समाप्त हो गई है। अब सचमुच कश्मीरी जनता अपना नेतृत्व निर्माण कर रही है। पिछले दिनों जिला विकास परिषदों के चुनाव इसका सबूत है। एटीएम का प्रतिनिधित्व कर रही हुर्रियत कान्फ्रेंस और जमायत-ए-इस्लामी जैसी तंजीमें हाशिए पर चली गई हैं। उनके धन के स्रोत सूख रहे हैं। आम कश्मीरी राहत की सांस ले रहा है और ख़ास एटीएम का सांस फूल रहा है। महबूबा की धमकियां उसी फूल रहे सांस में से निकली हैं।
कुलदीप चंद अग्निहोत्री
वरिष्ठ स्तंभकार
ईमेलः [email protected]


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