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पिछले दिनों प्रधानमंत्री कार्यालय ने मुख्य चुनाव आयुक्त को तलब किया
शशि थरूर। पिछले दिनों प्रधानमंत्री कार्यालय ने मुख्य चुनाव आयुक्त को तलब किया। इस कदम को प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रधान सचिव और मुख्य चुनाव आयुक्त सुशील चंद्रा (साथ में उनके दाे डिप्टी) के बीच अनौपचारिक बैठक बताया गया। पीएमओ के प्रधानसचिव के आदेश पर हुई बैठक को सिर्फ उचित प्रोटोकॉल तोड़ना नहीं कह सकते। यह संवैधानिक शक्तियों के विभाजन व स्वायत्त संस्थाओं पर कार्यपालिका के प्रभाव को लेकर गंभीर सवाल भी खड़ा करता है।
यह पहली बार नहीं है कि स्वायत्त संस्थाओं पर हमले के क्रम में चुनाव आयोग निशाना बना है। लगभग ईमानदार छवि वाले ईसी को 2017 में उस समय गंभीर झटका लगा, जब ईसी के एक प्रमुख ने सभी आसन्न चुनावों की तिथियां एक साथ घोषित करने की परंपरा का उल्लंघन किया। विपक्ष की चिंता यह है कि ताजा प्रकरण भी इसी तरह का हो सकता है। करीब 25 साल पहले आयोग ने एक आचार संहिता लागू की थी जो चुनाव की तिथियां घोषित होने के बाद वोटरों को लुभाने के लिए सरकारी खर्च पर रोक लगाती थी।
गुजरात और केंद्र में सत्तासीन भाजपा ने गुजरात चुनाव से ठीक पहले अनेक मुफ्त योजनाओं की घोषणा की, जिसके बाद चुनाव आयोग पर यह दबाव पड़ा कि वह चुनाव की घोषणा को जितना हो सके उतना टाले। इस पर आयोग ने गुजरात के साथ ही चुनाव वाले राज्य हिमाचल प्रदेश में गुजरात से 13 दिन पहले चुनाव की घोषणा कर दी और इसकी वजह राज्य में बाढ़ सहायता की जरूरत को बताया, जबकि आचार संहिता ऐसा करने से रोकती नहीं है। पूर्व चुनाव आयुक्तों ने इसकी आलोचना की थी।
चुनाव आयोग द्वारा सरकार के विभाग की तरह काम करने को लेकर चिंता तब और गंभीर हो गई, जब आयोग द्वारा भाजपा को फायदा पहुंचाने के लिए दो साल पहले आम आदमी पार्टी के 20 विधायकों को तकनीकी आधार पर अयोग्य घोषित करने के फैसले को दिल्ली हाईकोर्ट ने कानून के विरुद्ध और प्राकृतिक न्याय के खिलाफ बताते हुए खारिज कर दिया। निष्पक्षता के लिए प्रशंसा पाने वाला और भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया का संरक्षक कोई संस्थान कैसे खुद को ऐसी दुखद स्थिति में ला सकता है?
इसका जवाब केंद्र की सत्ताधारी पार्टी के पास है। ताजा प्रकरण दोनों ओर की विफलता है। यह उम्मीद की जाती है कि प्रधानमंत्री कार्यालय चुनाव आयोग पर अपने अधिकार का प्रयोग करने से बचेगा, वहीं आयोग से भी यह अपेक्षा की जाती है कि अपनी स्वायत्तता पर कायम रहता और पीएमओ के किसी भी आग्रह को ठुकरा देता। आखिर चुनाव आयोग ऐसी संस्था नहीं है, जो पीएमओ या कार्यपालिका में किसी के आग्रह को मानकर अनुग्रहीत हो।
पूर्व चुनाव आयुक्त एसवाय कुरैशी समेत अनेक जानकारों का कहना है कि ऐसी बैठक के अपरिहार्य होने पर कई प्रोटोकॉल का पालन करना चाहिए था। बेहतर होता कि पीएमओ की ओर से मुख्य चुनाव आयुक्त से जाकर मिलने का आग्रह किया जाता। जिन बातों पर स्पष्टीकरण चाहिए था, उन्हें लिखित में मांगा जाना चाहिए था। इन दोनों ही बातों को नजरअंदाज किया गया और इससे भी खराब यह है कि सरकार ने अब तक साफ नहीं किया है कि बैठक के दौरान किस मुद्दे पर बातचीत हुई।
इस तरह के प्रकरणों से सबसे बड़ा खतरा यह है कि लोगों का चुनाव आयोग जैसी स्वायत्त संस्थाओं में भरोसा खत्म होता है और ऐसा होने से लोकतंत्र के स्तंभ कमजोर होते हैं। जैसा कि मैंने अपनी पुस्तक 'द बैटल ऑफ बिलॉन्गिंग' में कहा है कि राजनीतिक दल और सत्ता तो आनी-जानी है, लेकिन लोकतंत्र का स्तंभ कही जाने वाली इन संस्थाओं की स्वतंत्रता, ईमानदारी और पेशेवरता उन्हें राजनीतिक दबाव से बचाने के लिए है।
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