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- एक अंधभक्त से मुलाकात
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मैं घर से बाहर निकला ही था कि वह मुझे सडक़ पर गाय को पेड़ा खिलाते हुए मिल गए। मैंने पूछा कि क्या कर रहे हैं तो भडक़ते हुए बोले, ‘देख नहीं रहे हो। गौमाता को पेड़ा खिला रहा हूँ। पर तुम्हारे जैसे चमचे इसे नहीं समझ सकते।’ मैंने संभलते हुए पूछा कि क्या ग्रह दशा खऱाब चल रही है जो उपाय के रूप में किसी ज्योतिषी ने गाय को पेड़ा खिलाने को कहा है। आपने मुझे चमचा क्यों कहा जबकि मैंने तो कभी आपको अंधभक्त नहीं कहा।’ वह मुझे घूरते हुए बोले, ‘जहां तक मुझे अंधभक्त कहने या समझने की बात है तो एक सच्चा अंधभक्त ही देशभक्त हो सकता है। अगर फालतू पार्टी के समर्थक अंधभक्त हैं तो आलतू के भक्त चमचे। अगर नेहरू ने गाय को लेकर कोई पॉलिसी बनाई होती तो आज हमारी करोड़ों गौमाता सडक़ों पर यूँ आवारा नहीं घूम रही होती।’ मैंने उनके भ्रम को दूर करने का प्रयास करते हुए कहा कि जहाँ तक किसी पार्टी को समर्थन देने की बात है तो सभी कैडर वोटर्स अंधभक्त ही होते हैं। नहीं तो मेरे जैसे मतदाता उम्मीदवार देख कर वोट डालते हैं। रही चमचों की बात, जो अपना काम निकालने में माहिर होते हैं, वे किसी एक पार्टी से बद्ध नहीं होते। सरकार चाहे कोई भी हो, वे चमचागिरि से अपना काम निकाल लेते हैं। हाँ, सिर्फ भक्त ही किसी एक दल से ताउम्र बंधे रहते हैं। पर भक्त तो अब कट्टर ही नहीं इतने अंधे हो गए हैं कि फैंसी ड्रैस में होने के बावजूद शाही ड्रैस में होने का भ्रम पाले बैठे हैं। नेहरू को स्वर्ग सिधारे तो लगभग साठ साल हो गए। पिछले नौ सालों में देश विश्वगुरू बन चुका है। पर आपकी गौमाता की हालत तो दिन पर दिन देश की इकॉनिमी से भी बदतर होती जा रही है।
वह तुनकते हुए बोले, ‘यह गौमाता के पिछले छिहत्तर सालों से दिए जा रहे श्रापों का नतीजा है कि आज भी देश ठीक से अपने पाँव पर नहीं खड़ा हो पा रहा है।’ मैं बोला कि पर बीच में एक बार पाँच साल आपकी सरकार रही और पिछले नौ सालों से आपकी सरकार है। फिर भी गौमाता की ऐसी दशा। बेचारी भूख की मारी सडक़ों पर कागज़़ और लिफाफे खाते हुए घूमती रहती है। ‘अरे दस साल के शासन से क्या होता है। तिरंगे में लिपटने तक हाथ में राजपाट रहे तो कुछ बात बने। सरकार सभी बेघरों को घर मुहैया करवाने के बाद गायों के पुनर्वास पर कई महत्वाकांक्षी योजनाएं लेकर आ रही है।’ उन्होंने जवाब दिया। मैं बोला कि आपकी पार्टी के तय नियम के अनुसार किसी नेता के पचहत्तर साल का होने पर उसके लिए पार्टी और सरकार में मार्गदर्शक मण्डल ही शेष बचता है। वह मुझे टोकते हुए बोले, ‘नियम तो आम लोगों के लिए होते हैं। युगपुरुषों के लिए नहीं। वह हमारे भगवान हैं। तुमने देखा नहीं कि उनमें देश सेवा की भावना कितनी प्रबल है। ऐसे युगपुरुष तो सोए-सोए भी देश सेवा में लगे रहते हैं। देश सेवा के लिए उन्होंने घर और पत्नी तक छोड़ दिए थे।’
अचानक मुझे याद आया कि उनका दामाद भी उनकी बेटी को छोडक़र संन्यासी हो गया है। मैंने पूछा कि बेटी का क्या हाल है और दामाद कहाँ है। वह ग़ुस्से में बोले, ‘उसकी बात न करो। पाजी, नालायक़ कहीं का। वह कायर है, बुजदिल है। घर की जि़म्मेवारियाँ नहीं संभाल सका तो बेटी को छोड़ कर भाग गया।’ मैं बोला कि हो सकता है आपके फकीर की तरह उसने भी हिमालय पर तपस्या के बाद देश की सेवा करने का प्रण कर लिया हो। हिमालय पर तपस्या के बाद ही व्यक्ति के चेहरे पर तेज आता है और वह मौक़े के हिसाब से दिन में दस बार कपड़े बदल कर अठारह-बीस घंटे काम कर सकता है। वह भडक़ते हुए बोले, ‘युगपुरुष के चेहरे पर सत्ता का तेज है। पर मेरा दामाद तो बेरोजग़ार था।’
पीए सिद्धार्थ
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal
Rani Sahu
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