सम्पादकीय

ग्लूटन फ्री बाजरे की स्तुति कर रहा चिकित्सा विज्ञान, बाजरे के खीचड़े,चंदोलाई के पत्तों की सब्जी और अमलवाणी का जायका

Rani Sahu
22 Dec 2021 1:32 PM GMT
ग्लूटन फ्री बाजरे की स्तुति कर रहा चिकित्सा विज्ञान, बाजरे के खीचड़े,चंदोलाई के पत्तों की सब्जी और अमलवाणी का जायका
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हर शहर की तहजीब का एक बेहद अहम हिस्सा होता है वहां का जायका

मालचंद तिवाड़ीहर शहर की तहजीब का एक बेहद अहम हिस्सा होता है वहां का जायका। कई शहरों की तो पहचान ही उनके खास जायकों से होती है। जायकों का जुबान से दिमाग और दिल में रजिस्टर हो जाना बेहद आसान भी है। हाल ही में हमारे एक मित्र ने राजस्थान के लुप्तप्रायः जायकों का सफर शुरू किया है। वे उन व्यंजनों की खोज-बीन में लगे हैं, जो राजस्थान के अंचलों में कभी रोजमर्रा और विशेष अवसरों पर प्रचलन में रहे, मगर अब स्वाद के परिदृश्य से गायब हो चुके हैं।

मैंने उनके साथ अपने अंचल के कुछ पकवानों के नाम और उनकी पाकविधि साझा की। चूंकि मैं मारवाड़ अंचल से ताल्लुक रखता हूं, इसलिए बाजरे और मोठ से बनने वाले व्यंजन हमारे भूभाग की खास पहचान रहे हैं। विख्यात लोकविद स्व. पद्मश्री कोमल कोठारी तो राजस्थान को खाद्यान्नों के आधार पर ही चिन्हित किया करते थे।
मारवाड़ से जुड़ा हुआ शेखावाटी अंचल भी बाजरे की उपज के लिए जाना जाता रहा है। यों तो वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को अक्षय तृतीया के रूप में पूरे राजस्थान में मनाया जाता है और अबूझ वैवाहिक मुहूर्त होने के कारण प्रदेश भर में इस दिन अनगिनत विवाह होते हैं। लेकिन आजादी पूर्व की बीकानेर रियासत के भूभाग में अक्षय तृतीया का कुछ विशेष ही महत्व होता है। इतिहास गवाह है कि विक्रम संवत् 1545 की वैशाख शुक्ला द्वितीया को थावर अर्थात् शनिवार के दिन राव बीका ने अपने नए राज्य बीकानेर की स्थापना की थी। एक लोकश्रुत दोहे में इसका वर्णन इस प्रकार किया गया है:
पनरै सौ पैंतालवै सुद बैसाख सुमेर/थावर बीज थरपियौ बीकौ बीकानेर।।
तात्पर्य यह कि अक्षय तृतीया के ठीक एक दिन पूर्व बीकानेर रियासत का बीजारोपण हुआ। बीकानेर की स्थापना को लगभग 600 बरस होने जा रहे हैं और इस नगर की स्थापना को आज भी पूरी बीकानेर रियासत में, जिसमें चूरू, सुजानगढ़ समेत हनुमानगढ़ और श्रीगंगानगर का क्षेत्र भी शामिल है, एक ही तरीके से त्योहार के रूप में मनाया जाता है। इस दिन द्वितीया और तृतीया दोनों दिनों के लिए भोजन का मीनू सदियों से पूर्वनिर्धारित चला आ रहा है।
अक्षय तृतीया अक्सर मई या जून महीने की मारक गर्मी के दौरान ही आती है और इस अवसर पर बनने वाला भोजन भी मानो ऋतुचर्या का ही हिस्सा है। घर-घर में मोठदाल के साथ कूटकर छिलका उतारे हुए बाजरे का खीचड़ा पकता है। मोठदाल की ही बड़ी, दुपल्ली रोटी और चंदोलाई के पत्तों की सब्जी बनती है। साथ में इमली और गुड़ का ठंडा शर्बत (अमलवाणी) परोसा जाता है। इस अवसर पर राजपरिवार द्वारा चंदा उड़ाने की प्रथा ने कालांतर में पतंगबाजी का रूप अख्तियार कर लिया, सो पूरे अंचल में जमकर पतंगबाजी भी होती है।
इस भूभाग का ऐश्वर्य असल में बाजरा ही रहा है, इसकी साक्षी लोक में प्रचलित बाजरे से जुड़ी अनगिनत लोकोक्तियां और कहावतों से मिलती है। 'जिणरी खावां बाजरी, उणरी भरां हाजरी' से लेकर 'बाजरिया थूं तो थारै लखणां ई कूटीजै' तक यहां के लोकचित में बाजरे की गहरी पैठ का अंदाजा लगता है। कहावतों के पीछे की कथाएं भी कुछ कम रोचक नहीं होतीं।
मसलन यहां उद्धृत 'बाजरिया थूं तो थारै लखणा ई कूटीजै' की कथा का उल्लेख ही पर्याप्त होगा। कहते हैं, एक अविवाहित प्रौढ़ को खुद बाजरा कूट-पीसकर रोटी या खीचड़ बनाना पड़ता था। एक दिन उसे इतनी भूख लगी थी कि कूटने-पीसने जितना धीरज भी न रहा। उसने कच्चा बाजरा ही भरपेट चबाकर पानी पी लिया। सोचने लगा, लोग व्यर्थ ही बाजरे को कूटने-पीसने की जहमत उठाते हैं जबकि कच्चा खाने में भी कोई हर्ज नहीं। लेकिन कुछ ही देर में कच्चे बाजरे ने अपना कमाल दिखाया और उसका पेट खराब हो गया।
तब उसको यह दुर्लभ बोध हुआ कि बाजरा तो अपने लक्षणों के चलते ही कूटा और पीसा जाता है। ग्लूटन नामक तत्व से मुक्त बाजरे की स्तुति आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने अब करना शुरू की है, पर हमारे पुरखे तो अपने अनगिनत व्यंजनों के माध्यम से बाजरे के गुणों की व्यंजना करते रहे हैं।
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