सम्पादकीय

मेडिकल में हिंदी

Subhi
18 Oct 2022 3:15 AM GMT
मेडिकल में हिंदी
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केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने भोपाल में रविवार को एमबीबीएस कोर्स से जुड़े तीन विषयों की हिंदी किताबें जारी कीं। मध्य प्रदेश पहला राज्य है जहां मेडिकल की पढ़ाई हिंदी माध्यम से कराने का फैसला लागू किया गया है। यह फैसला नैशनल एजुकेशन पॉलिसी के तहत लिया गया है

नवभारत टाइम्स: केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने भोपाल में रविवार को एमबीबीएस कोर्स से जुड़े तीन विषयों की हिंदी किताबें जारी कीं। मध्य प्रदेश पहला राज्य है जहां मेडिकल की पढ़ाई हिंदी माध्यम से कराने का फैसला लागू किया गया है। यह फैसला नैशनल एजुकेशन पॉलिसी के तहत लिया गया है, जिसके मुताबिक तकनीकी विषयों की उच्च शिक्षा मातृभाषा में दिए जाने की बात है। जल्दी ही मेडिकल की पढ़ाई अन्य भारतीय भाषाओं में भी शुरू होगी। निश्चित रूप से यह एक बड़ी पहल है। इसके पक्ष में दिए जा रहे इस तर्क में भी दम है कि अगर जर्मनी, जापान, फ्रांस जैसे देश अपनी-अपनी भाषाओं में विज्ञान और तकनीक की पढ़ाई से इतना आगे बढ़ सकते हैं तो भारतीय भाषाओं में ये विषय क्यों नहीं पढ़ाए जा सकते?

अभी तक अड़चन यह बताई जा रही थी कि इन विषयों के कोर्स मटीरियल हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में हैं ही नहीं। इसी समस्या के हल के रूप में तीन विषयों की हिंदी पुस्तकें जारी की गई हैं। यह तो बस शुरुआत है, ऐसी और किताबें आएंगी। बहरहाल, इस शुरुआत का मतलब यह नहीं माना जा सकता कि आगे की समस्याएं विलुप्त हो गई हैं या वे कम गंभीर हैं। अगर गृहमंत्री अमित शाह द्वारा जारी की गई किताबों पर ही गौर किया जाए तो इसने कुछ हलकों में बहस अभी से शुरू करा दी है। एक पुस्तक का नाम कवर पर दिख रहा है- एनाटॉमी, एब्डॉमन और लोअर लिम। पूछा जा रहा है कि क्या लिपि बदलना ही भाषा बदलना है? क्या एनाटॉमी के लिए शरीर रचना लिखना इतना मुश्किल होता कि स्टूडेंट्स नहीं समझ पाते? लेकिन सवाल सिर्फ एक एनाटॉमी का नहीं है। ऐसे तमाम टर्म आएंगे, जिनके अनुवाद से स्टूडेंट्स में ही नहीं टीचर्स के बीच भी भ्रम की स्थिति पैदा हो सकती है।

लिहाजा जहां तक हो सके टर्म को ज्यों का त्यों अपनाते हुए चलना ही फायदेमंद होगा या इनके लिए मानक शब्द रखने होंगे। आखिर विभिन्न माध्यमों से मेडिकल की पढ़ाई करने वाले स्टूडेंट्स जब फील्ड में एक्टिव होंगे और इनमें आपसी संवाद होगा तो इनके बीच इस तरह की खाई नहीं बननी चाहिए कि एक-दूसरे की बात ही समझ में न आए। इसके अलावा अपने देश में एक समस्या हिंदी लादे जाने के वास्तविक या काल्पनिक डर की भी है जिसकी झलक तमिलनाडु और तेलंगाना जैसे राज्यों से उठ रही आपत्तियों में अभी से मिलने लगी है। इसलिए बेहतर होगा कि इस फैसले को भाषाई गर्व से ना जोड़ा जाए। एक सवाल यह भी है कि मेडिकल साइंस में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नई रिसर्च होती रहती हैं। उन्हें हिंदी या क्षेत्रीय भाषाओं में मेडिकल की पढ़ाई करने वालों तक कैसे पहुंचाया जाएगा। अच्छा होगा कि इस बारे में भी सोचा जाए।


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