सम्पादकीय

मीडिया की मुश्किलें

Rani Sahu
13 May 2022 7:14 PM GMT
मीडिया की मुश्किलें
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बात अगर केवल संख्या तक सीमित रखी जाए तो तस्वीर बहुत खुशनुमा नजऱ आएगी

बात अगर केवल संख्या तक सीमित रखी जाए तो तस्वीर बहुत खुशनुमा नजऱ आएगी। हमारे देश में मीडिया का खूब विस्तार हुआ है। भारत में लगभग एक लाख समाचार पत्र हैं जिनमें छत्तीस हज़ार साप्ताहिक हैं। इसी तरह तीन सौ अस्सी टेलीविजऩ चैनल हैं। इधर जब से ऑनलाइन मीडिया दृश्य पटल पर आया है बहुत कुछ है जो हमें सुलभ है, लेकिन जिसको इस गिनती में शामिल नहीं किया गया है। इनकी गुणवत्ता में भी बहुत बदलाव हुए हैं, लेकिन इससे यह न मान लिया जाए कि हमारा मीडिया परिदृश्य खुशनुमा और आश्वस्तिकारक है। हाल में एक अंतरराष्ट्रीय एनजीओ 'रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्सÓ (आरएसएफ) ने अपनी बीसवीं वैश्विक प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक रपट ज़ारी की है। इस रिपोर्ट में 180 देशों और इलाकों में प्रेस स्वतंत्रता की स्थितियों की पड़ताल कर जो नतीज़े दिए गए हैं, वे बहुत आश्वस्तिकारक नहीं हैं। यह संगठन वर्ष 2002 से हर साल एक सूचकांक ज़ारी करता है।

इसके हाल में ज़ारी सूचकांक के अनुसार भारत 180 देशों की सूची में 150 वें स्थान पर है। जैसे इतना ही पर्याप्त न हो, यह भी बताया गया है कि सन् 2016 में हम 133 वें स्थान पर थे, पिछले साल अर्थात 2021 में 142 वें स्थान पर थे। अर्थात हमारे यहां स्थितियां बद से बदतर होती गई हैं। यह संगठन वैश्विक आधार पर पूर्णांक 100 में से अंक देकर प्रेस स्वतंत्रता की स्थिति बताता है। इन सूचकांकों के अनुसार 92.65 अंक पाकर नॉर्वे सबसे ऊपर है और मात्र 13.92 अंक पाकर उत्तरी कोरिया सबसे नीचे है। भारत को 100 में से 41 अंक मिले हैं। हमारे संतोष के लिए यह कि रूस, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, सऊदी अरब, क्यूबा, वियतनाम, चीन और ईरान जैसे देशों की स्थितियां हमसे भी खऱाब हैं, लेकिन संयुक्त अरब अमीरात, जि़म्बाब्वे, मोरक्को, अल्जीरिया, युगांडा, लेबनान, नाइजीरिया, बोलीविया, जॉर्डन, यूक्रेन, जॉम्बिया, बोत्स्वाना, मंगोलिया, सर्बिया, घाना, दक्षिण अफ्रीका और भूटान जैसे देशों में हमारे देश से बेहतर प्रेस स्वतंत्रता का होना हमें सोचने के लिए मज़बूर भी करता है। भारत का जि़क्र करते हुए इस रिपोर्ट में दो टूक लहज़े में कहा गया है कि 'भारतीय प्रेस को जो कि मूलत: उपनिवेश विरोधी आंदोलन का उत्पाद था, खासा प्रगतिशील माना जाता था, लेकिन 2010 के दशक के मध्य से, जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने और उन्होंने अपनी पार्टी बीजेपी और मीडिया पर वर्चस्व रखने वाले बड़े घरानों के बीच घनिष्टता कायम की, स्थितियां आधारभूत रूप से बदल गईं हैं।
इस बात के समर्थन में रिलायंस इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड के चेयरमेन का भी जि़क्र है जो अस्सी करोड़ भारतीयों तक पहुंच रखने वाले सत्तर से ज़्यादा मीडिया आउटलेट्स के स्वामी हैं। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकारों को हर तरह से परेशान किया जाता है और उनके खिलाफ 'भक्त कहे जाने वाले लोगों द्वारा हमला अभियान चलाए जाते हैं। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत का मीडिया परिदृश्य भारत की ही तरह बहुत विशाल और भीड़ भरा है, लेकिन भारत का मीडिया चंद बड़े घरानों के स्वामित्व में है। चार बड़े दैनिक समाचार पत्र हिंदी के पाठकों के तीन-चौथाई को कब्ज़े में किए हुए हैं। क्षेत्रीय भाषाओं के मामले में तो यह स्वामित्व और भी अधिक तीखा है। करीब-करीब ऐसे ही हालात टीवी के मामले में भी हैं। मीडिया के आर्थिक परिप्रेक्ष्य को उजागर करते हुए यह रिपोर्ट बताती है कि अपनी बड़ी हैसियत के बावज़ूद हमारा मीडिया सरकारी विज्ञापनों पर बहुत ज़्यादा आश्रित है। केंद्रीय स्तर पर तो सरकार ने इस बात को अच्छी तरह समझ लिया है कि वह विज्ञापन देकर अखबारों को अपने पक्ष में इस्तेमाल कर सकती है। रिपोर्ट के अनुसार केंद्र सरकार अपने विज्ञापनों पर हर साल तेरह हज़ार करोड़ रुपए खर्च करती है। यह खर्चा केवल प्रिंट और ऑनलाइन माध्यमों पर ही किया जाता है। यह अकारण नहीं है कि बहुत सारे बड़े मीडिया घरानों से आने वाली ख़बरें सीधे-सीधे सत्तारूढ़ दल का प्रचार करती हैं। इसके अलावा हमारे मीडिया पर उच्चवर्गीय लोगों और पुरुषों का वर्चस्व है। ज़ाहिर है, इस वर्चस्व का सीधा असर ख़बरों के चरित्र और उनके झुकाव पर पड़ता है। इस रिपोर्ट में सबसे ज़्यादा चिंतित करने वाली बात यह कही गई है कि मीडिया के लिहाज़ से भारत दुनिया के सबसे ज़्यादा ख़तरनाक देशों में से एक है।
पिछले दिसंबर में तो इस संस्थान ने हमारे यहां अपना काम करते हुए मारे गए पत्रकारों की संख्या के आधार पर भारत को पांच सबसे ख़तरनाक देशों की सूची में रख दिया था। हमारे यहां हर साल तीन-चार पत्रकारों को अपना काम करते हुए जान से हाथ धोना पड़ता है। उन्हें हर तरह की हिंसा से जूझना पड़ता है। यह हिंसा कभी पुलिस की होती है तो कभी राजनीतिक कार्यकर्ताओं की और कभी अपराधियों या भ्रष्ट अफसरों की। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स ने यह बात इसलिए कही है कि वह इस बात में विश्वास करता है कि मुक्त और विश्वसनीय समाचारों पर हर मनुष्य का अधिकार है। उसने जब दिसंबर में भारत की चिंताजनक स्थितियों की चर्चा की तो केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री ने एक बयान में कहा कि केंद्र सरकार 2021 के सूचकांक में भारत के स्थान से सहमत नहीं है। लोकसभा में अपने लिखित बयान में उन्होंने कहा कि यह रिपोर्ट एक बहुत छोटे सैंपल पर आधारित है और इसमें प्रजातंत्र के आधारभूत सिद्धांतों की अनदेखी की गई है। मंत्री का यह बयान स्वाभाविक ही था। उन्हें इस रिपोर्ट से असहमत होना ही था, लेकिन यहीं यह जान लेना भी उपयुक्त होगा कि जिस संस्थान की रिपोर्ट के आधार पर यह सब लिखा जा रहा है, उसकी विश्वसनीयता क्या है।
रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स एक अंतरराष्ट्रीय अलाभकारी संगठन है जो प्रजातांत्रिक तरीके से संचालित होता है। संगठन स्वयं को न तो श्रम संगठन मानता है और न ही मीडिया कम्पनियों का प्रतिनिधि। इसकी स्थापना सन् 1985 में चार पत्रकारों द्वारा की गई थी। 1995 से ही फ्रांस में इस संगठन को एक जन पक्षधर संगठन के रूप में मान्यता प्राप्त है और संयुक्त राष्ट्र संघ, यूनेस्को तथा काउंसिल ऑफ यूरोप एंड द इंटरनेशनल ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ फ्रेंकोफोनी ने इसे सलाहकारी दजऱ्ा प्रदान कर रखा है। पूरी दुनिया में इस संगठन के 115 संवाददाता हैं और इसके अलग-अलग देशों में छह कार्यालय हैं। इसका अंतरराष्ट्रीय मुख्यालय पेरिस में है। स्वाभाविक ही सरकार व उसके समर्थकों का यह फर्ज है कि वे इस तरह की रिपोर्ट को अस्वीकार करें, लेकिन देखने की बात यह है कि असहमति और आलोचना के प्रति हमारा रवैया कैसा है! मीडिया से बाहर निकलकर अगर हम सामान्य जीवन में भी देखें तो स्थिति यह है कि असहमति को सद्भावनापूर्वक ग्रहण करने के दिन बीत चुके हैं। सरकारें, चाहे वे किसी भी दल की हों, निरंतर कर्कश होती जा रही हैं। अगर हम किसी एक दल की बात करते हैं तो ऐसा इसलिए क्योंकि उसी दल का वर्चस्व है, लेकिन जहां दूसरे दलों का वर्चस्व है, वहां भी स्थिति अलहदा नहीं है।
इसलिए बात सत्ता के चरित्र की है, इस या उस दल की नहीं। यहीं यह बात भी कहना ज़रूरी है कि क्या इस बात पर विचार नहीं होना चाहिए कि किसी भी सरकार को विज्ञापनों पर इतनी बड़ी धनराशि क्यों खर्च करनी चाहिए? यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि सरकारें विज्ञापनों के नाम पर दी जाने वाली राशि अपने प्रति वफादारी खरीदने के लिए इस्तेमाल करती हैं। अगर मीडिया का कोई भी अंग, विशेष रूप से समाचार पत्र किसी सरकार के खिलाफ आवाज़ उठाता है तो सरकार पहला काम उसके विज्ञापन बंद करने का करती है। एक मुख्यमंत्री तो सार्वजनिक रूप से कह भी चुके हैं कि मैं उसी अख़बार को पैसा दूंगा जो मेरी ख़बरें दिखाएगा। उनकी ख़बरें न दिखाने वाले अखबार को विज्ञापन देना वे बंद करके दिखा भी चुके हैं। ऐसे हालात में स्वयं मीडिया को भी सोचना होगा कि सरकारी विज्ञापनों पर अतिशय निर्भरता उसकी स्वतंत्रता के लिए कितनी बाधक है? हालांकि इस बात को भी हम विस्मृत नहीं कर सकते कि इन्हीं विज्ञापनों की वजह से बीस-पच्चीस रुपए की लागत वाला अख़बार हमें पांच रुपए में मिलता है। अगर हम स्वतंत्र पत्रकारिता चाहते हैं तो हमें भी अपनी जेब ढीली करने को तैयार रहना होगा। -(सप्रेस)
डा. दुर्गा प्रसाद अग्रवाल
स्वतंत्र लेखक


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