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Written by जनसत्ता: भारतीय उद्योग संगठन फिक्की ने चालू वित्त वर्ष की विकास दर के अनुमान को घटा कर सात फीसद कर दिया है। उसने यह भी कहा है कि अगर कोई अन्य व्यवधान आया तो यह दर साढ़े छह फीसद भी रह सकती है। हालांकि अप्रैल में फिक्की ने इस वर्ष विकास दर 7.4 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया था।
रिजर्व बैंक ने विकास दर के 7.2 प्रतिशत रहने का अनुमान जताया था। फिक्की का ताजा अनुमान उससे कम है। रेटिंग एजेंसी मार्गन स्टेनली ने भी अपनी अनुमान दर को 7.6 से घटा कर 7.2 कर दिया था। यानी अप्रैल के बाद से भारतीय अर्थव्यवस्था की गति सुधरी नहीं है।
नई अनुमान दरों के पीछे कुछ कारण स्पष्ट हैं, जिनमें बढ़ती महंगाई, रुपए की गिरती कीमत, रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण बदली वैश्विक स्थितियां, निर्यात में कमी, उपभोक्ता मांगों का घटना आदि प्रमुख हैं। सरकार दावा करते नहीं थकती कि कोरोना काल के बाद से अर्थव्यवस्था में लगातार तेजी का रुख बना हुआ है और जल्दी ही यह अपनी पुरानी लय में लौट आएगी। मगर जिस तरह उद्योग जगत में निराशा दिखाई दे रही है, उससे स्वाभाविक ही सरकार के दावे प्रश्नांकित होते हैं।
हालांकि सरकार ने महंगाई पर काबू पाने के लिए कई कड़े कदम उठाए, पेट्रोल-डीजल की कीमतों को नियंत्रित करने के लिए उत्पाद शुल्क में कटौती की, बैंक दरों में बदलाव किए गए, मगर महंगाई काबू में नहीं आ पा रही। ऊपर से सरकारी खर्चों में कटौती नहीं की जा रही, राजस्व घाटा पाटने के लिए नई-नई वस्तुओं पर कर थोपे जा रहे हैं।
कर उगाही को सरकार अर्थव्यवस्था की मजबूती के रूप में देखती है। मगर बाजार इसलिए सुस्त पड़ा है कि उसमें उपभोक्ता की उत्साहजनक पहुंच नहीं हो पा रही। टिकाऊ उत्पाद का उत्पादन शिथिल पड़ा है, जिससे बड़े उद्योगों का विकास दर में अपेक्षित योगदान नहीं मिल पा रहा। विदेशी निवेश आकर्षित करने में कामयाबी नहीं मिल पा रही।
उल्टे कई विदेशी कंपनियां अपने कारोबार समेट कर वापस लौट चुकी हैं। यहां तक कि बहुत सारे देशी उद्यमियों ने भी बाहरी देशों का रुख किया है। इस तरह विदेशी मुद्रा भंडार लगातार खाली हो रहा है। जाहिर है, इन स्थितियों को देखते हुए विदेशी निवेशक यहां पैसा डालने से बच रहे हैं।
निर्यात की स्थित पहले ही खराब थी, इस समय और बुरी हो गई है। रुपए की कीमत गिरने से आयात पर अधिक खर्च करना पड़ रहा है। यही वे पहलू हैं, जिन्हें देखते हुए उद्योग संगठन ने विकास दर को लेकर निराशाजनक अनुमान पेश किया है। कई अर्थशास्त्रियों का मानना है कि सरकार अर्थव्यवस्था की वास्तविक तस्वीर पेश करने के बजाय आंकड़ों को छिपा या गलत ढंग से पेश करके अपनी कमियों को ढंकने का प्रयास करती है। यह किसी भी देश की अर्थव्यवस्था के लिए अच्छी स्थिति नहीं मानी जा सकती।
बड़े उद्योगों को प्रोत्साहित करने के लिए उन्हें भारी कर छूट दी जा चुकी है, जबकि आम नागरिकों पर करों का बोझ निरंतर बढ़ा है। सरकार इस बात से अनजान नहीं है कि अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए रोजगार पैदा करने पड़ेंगे। इसके लिए छोटे उद्योगों को प्रोत्साहन जरूरी है, मगर उसका ध्यान बड़े उद्योगों पर ही अधिक केंद्रित है। इस तरह न तो बाजार में रौनक लौटेगी और न अर्थव्यवस्था को गति मिल सकेगी। अर्थव्यवस्था से जुड़े सभी पहलुओं पर संतुलन साधने की जरूरत है, तदर्थ उपायों से समस्या का हल संभव नहीं है।