सम्पादकीय

अमेरिका के लिए युद्धों के मायने

Gulabi
2 Sep 2021 10:21 AM GMT
अमेरिका के लिए युद्धों के मायने
x
बीसवीं सदी के इतिहास को अमेरिका के उत्थान और पतन का इतिहास कहा जा सकता है.

बीसवीं सदी के इतिहास को अमेरिका के उत्थान और पतन का इतिहास कहा जा सकता है. बीती सदी के शुरुआती बीस बरसों में हुए पहले विश्व युद्ध से वैश्विक परिदृश्य में अमेरिका के उत्थान की कहानी शुरू होती है, जो दूसरे विश्व युद्ध के बाद अभूतपूर्व तेजी से आगे बढ़ती है. पचास के दशक में कोरिया और बाद में क्यूबा के साथ उसका तनाव, वियतनाम युद्ध, इराक और अंतत: अफगानिस्तान में आकर अमेरिका की कहानी के अंत की शुरुआत को एक तरह से रेखांकित किया जा सकता है


हालांकि यह कह पाना मुश्किल है कि आनेवाले समय में अमेरिका एक बड़ी विश्व शक्ति के रूप में कमजोर हो जायेगा, लेकिन यह तो कहा ही जा सकता है कि नब्बे के दशक में सोवियत रूस के विघटन के बाद जिस तरह का एकछत्र राज अमेरिका का था दुनिया पर, अब अमेरिका वैसी ताकत नहीं रह गया है. भले ही विज्ञान और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में अमेरिका अब भी आगे हो, पर एक नैतिक शक्ति के रूप में अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुलाने के बाद अमेरिका की साख में निश्चित रूप से बट्टा लगा है.

बीस साल पहले न्यूयाॅर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के दो टावरों पर हुए हमलों के बाद जिस तरह से अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला किया और एक देश को पूरी तरह से तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, उसकी परिणति कुछ यूं होगी कि वहां से अमेरिकी सैनिकों को लगभग भागना पड़े, तो यह कहीं से भी सुपरपावर जैसा प्रतीत नहीं होता.

हालांकि इस शर्मिंदगी के बावजूद अमेरिकी जनता में अफगानिस्तान को लेकर बहुत अधिक उत्साह नहीं है. इस पूरी घटना पर आम लोगों की या तो कोई राय नहीं है और अगर है, तो बस यही कि अच्छा हुआ जो अमेरिका वहां से लौटा क्योंकि देश में ही कई समस्याएं हैं. लेकिन अमेरिका पहले ऐसा नहीं था. वियतनाम युद्ध में अमेरिकी सैनिकों की मौजूदगी का अमेरिकी लोगों ने खासा विरोध किया था. पूरी दुनिया को याद है कि प्रख्यात बॉक्सर मोहम्मद अली ने सैनिक बन कर वियतनाम जाने से इनकार किया था और अदालत तक गये थे.

इराक युद्ध के दौरान भी जनमानस युद्ध के खिलाफ था और अकादमिक लोगों ने इसका विरोध किया था. मीडिया ने भले ही सरकार का साथ दिया हो, लेकिन अफगानिस्तान के मामले में 11 सितंबर, 2001 की घटना के कारण हमले को लेकर जनसमर्थन अमेरिकी सरकार के साथ था. अब 20 साल के बाद जब लोग देख रहे हैं कि तालिबान खत्म होना तो दूर, बल्कि और अधिक मजबूत ही हुआ है, तो स्वाभाविक रूप से सभी के जेहन में कई सवाल हैं.

अमेरिकी मीडिया में यह सवाल नहीं पूछा जा रहा है कि अमेरिकी सेना को वापस बुलाने का फैसला क्यों किया गया, बल्कि सवाल यह पूछा जा रहा है कि क्या अमेरिकी गुप्तचर एजेंसियों को यह पता नहीं था कि तालिबान इतना मजबूत है. अखबार हर दिन यह सवाल उठा रहे हैं कि अमेरिका ने जो अरबों डॉलर खर्च कर अफगानिस्तान की सेना व पुलिस को प्रशिक्षित करने का दावा किया था, वह किस हद तक सही है, अगर अफगान सेना ने तालिबान से दो-दो हाथ नहीं किये.

अमेरिका ने अनुमान लगाया था कि तालिबान की वापसी में कम से कम तीन महीने का समय लगेगा, लेकिन तीन हफ्तों से भी कम समय में तालिबान न केवल काबुल तक पहुंच गया, बल्कि अमेरिका को अफरा-तफरी में देश छोड़ना पड़ा है. इस मामले में बाइडेन प्रशासन को न केवल विपक्षी दल, बल्कि अपनी पार्टी के नेता भी घेर रहे हैं. डेमोक्रेटिक पार्टी के अनेक नेताओं ने इस मामले में आलोचना करते हुए कहा है कि राष्ट्रपति बाइडेन के पास अफगानिस्तान से निकलने के बारे में कोई योजना ही नहीं थी.

दूसरी तरफ रिपब्लिकन पार्टी के नेताओं का रुख आक्रामक है और वे यह आरोप लगा रहे हैं कि बाइडेन ने हड़बड़ी में ऐसा निर्णय लेकर लेकर अमेरिका की वैश्विक साख में बट्टा लगाया है. राष्ट्रपति बाइडेन भले ही अफगानिस्तान के मसले पर दिये जा रहे अपने बयानों में बिल्कुल दृढ दिखने की कोशिश कर रहे हों, लेकिन सच यही है कि राष्ट्रपति बनने के बाद इस समय उनकी रेटिंग (लोकप्रियता और स्वीकार्यता) सबसे कम है.

इसका सीधा-सा मतलब यह है कि पूरे देश में उनकी छवि इस समय एक कमजोर राष्ट्रपति की बन गयी है. शायद यह एक बड़ा कारण हो कि काबुल हवाई अड्डे पर हुए हमले के तुरंत बाद बाइडेन ने कड़ा बयान देते हुए कहा था कि इसके दोषियों को इस पृथ्वी पर रहने का कोई हक नहीं और उन्हें इस हरकत का खामियाजा भुगतना होगा.

अमेरिका के ड्रोन हमले अफगानिस्तान पर अब भी हुए हैं, लेकिन एशिया के इस देश से अब अमेरिका का नियंत्रण पूरी तरह खत्म हो चुका है. साम्राज्यों की कब्रगाह के रूप में विख्यात अफगानिस्तान ने ब्रिटेन और रूस के बाद अमेरिका को भी घुटनों पर ला दिया है. अमेरिकी रणनीति में अफगानिस्तान एक ऐसा बिंदु हो चुका था, जहां से उन्हें व्यावसायिक लाभ नहीं मिल रहा था, लेकिन जिस तरह से सेनाओं की वापसी हुई है, वह एक सुपरपावर के रूप में अमेरिका के लिए निश्चित ही एक बड़ा झटका है.

अमेरिका में इस बात को लेकर भी खासा रोष है कि अफगानिस्तान में विकास और प्रशिक्षण के नाम पर जो खरबों डॉलर दिये गये थे, वह पैसा आखिर कहां गया. द न्यूयॉर्क टाइम्स अखबार और न्यूयाॅर्कर जैसी पत्रिकाओं ने लिखा है कि अफगानिस्तान में व्यापक भ्रष्टाचार हुआ है और इसमें अमेरिकी अधिकारियों की भी मिलीभगत हो सकती है. हालांकि इस मामले की किसी भी प्रकार के जांच के आदेश अब तक नहीं दिये गये हैं, लेकिन सवाल लगातार बने रहेंगे.

अमेरिकी जनता यह समझती है कि जब भी अमेरिका किसी देश पर हमला करता है, भले ही वह इराक हो, वियतनाम हो या फिर अफगानिस्तान, युद्ध का कहीं न कहीं लेना-देना पैसे और बिजनेस से होता ही है. शायद यही कारण है कि अमेरिकी जनता में इस मामले को लेकर बहुत अधिक बातचीत नहीं हो रही है, मगर अफगानिस्तान को लेकर राजनीति गरम है.

अगर बाइडेन जल्दी ही इस मामले में अपनी छवि ठीक नहीं कर पाते हैं, तो आनेवाले चुनावों में डेमोक्रेट उम्मीदवारों को नुकसान भी हो सकता है. यह छवि कैसे ठीक होगी, यह बहुत हद तक इस पर भी निर्भर करता है कि राष्ट्रपति बाइडेन का अगला कदम क्या होता है और इस पर भी कि अफगानिस्तान में आनेवाले समय में तालिबान कैसे शासन करता है.
क्रेडिट बाय प्रभात खबर
Next Story