सम्पादकीय

जीत के मायने : त्रिपुरा निकाय चुनाव का संदेश

Neha Dani
30 Nov 2021 1:49 AM GMT
जीत के मायने : त्रिपुरा निकाय चुनाव का संदेश
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तृणमूल कांग्रेस उसकी जगह ले रही है, मगर जमीन पर ऐसा नहीं था।

त्रिपुरा के स्थानीय निकाय चुनाव में भाजपा की जबर्दस्त विजय ने विपक्ष के साथ पूरे देश को चौंकाया है। पश्चिम बंगाल में भारी विजय के पश्चात ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस ने त्रिपुरा को जिस दिन से अपना दूसरा प्रमुख राजनीति का केंद्र बिंदु बनाया था और पूरी आक्रामकता से वहां सदस्यता अभियान और चुनाव प्रचार अभियान चलाया था, उससे लगता था कि वहां भाजपा को अच्छी चुनौती मिलेगी। चुनाव परिणामों ने इसे गलत साबित किया है।

राजधानी अगरतला नगर निगम सहित कुल 24 नगर निकायों के चुनाव हुए। इनके 334 वार्डों में से भाजपा ने 329 पर विजय प्राप्त की। किसी भी पार्टी की इससे अच्छी सफलता कुछ हो ही नहीं सकती। तृणमूल कांग्रेस को पूरे चुनाव में केवल एक सीट मिली! पश्चिम बंगाल चुनाव के बाद से पूरे देश में माहौल बनाया गया था कि भाजपा के पराभव की शुरुआत हो चुकी है और कम से कम पूर्वोत्तर में तृणमूल उसे पटखनी देने की स्थिति में आ गई है।
ऐसे में विचार करना पड़ेगा कि राजनीति में भाजपा के विरुद्ध जिस तरह के विरोधी वातावरण या माहौल की बात की जाती है, वैसा हो क्यों नहीं पाता? तृणमूल ने वहां माकपा को स्थानापन्न कर भाजपा के बाद दूसरा स्थान प्राप्त किया है। बावजूद दोनों के बीच मतों में इतनी दूरी है, जिसमें यह कल्पना करना व्यावहारिक नहीं लगता कि 2023 के चुनाव आते-आते उसे पाट दिया जाएगा। अभी 2023 के बारे में किसी प्रकार की भविष्यवाणी उचित नहीं होगी।
लेकिन यह स्वीकार करना पड़ेगा कि त्रिपुरा के स्थानीय निकाय चुनाव को न केवल तृणमूल कांग्रेस, बल्कि संपूर्ण देश के भाजपा विरोधियों ने बड़े चुनाव के रूप में परिणत कर दिया था। बांग्लादेश में हिंदुओं और हिंदू स्थलों पर हिंसात्मक हमले के विरुद्ध प्रदर्शन के दौरान हुई छोटी-सी घटना को जिस तरह बड़ा बनाकर प्रचारित किया गया, उसका उद्देश्य बिल्कुल साफ था। मामला सोशल मीडिया से मीडिया और न्यायालय तक भी आ गया।
पूरा वातावरण ऐसा बनाया गया, मानो त्रिपुरा की भाजपा सरकार के संरक्षण में हिंदुत्ववादी शक्तियां वहां अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों के विरुद्ध हिंसा कर रही हैं और पुलिस या स्थानीय प्रशासन उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाते। कल्पना यही थी कि त्रिपुरा में भी पश्चिम बंगाल दोहराया जा सकता है।
वास्तव में पश्चिम बंगाल चुनाव के बाद अभी तक विपक्ष की कल्पना वैसे ही लगती है, जैसे कांग्रेस ने 2018 में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनाव में विजय के बाद मान लिया कि भाजपा पराभव की ओर है तथा राहुल गांधी के नेतृत्व में उसका पुनरोदय निश्चित है। 2019 लोकसभा चुनाव परिणामों ने इस कल्पना को ध्वस्त कर दिया। पश्चिम बंगाल संपूर्ण हिंदुस्तान नहीं है। जरा सोचिए, अगर त्रिपुरा जैसा पड़ोसी छोटा राज्य पश्चिम बंगाल की राजनीति का अंग नहीं बना, तो पूरा देश कैसे बन जाएगा?
पश्चिम बंगाल का राजनीतिक वातावरण, सामाजिक-सांप्रदायिक समीकरण अलग है। करीब तीस फीसदी मुस्लिम मतदाता और विचारों से वामपंथी सोच वाली जनता के एक बड़े समूह के रहते हुए भाजपा के लिए बंगाल में संपूर्ण विजय आसान नहीं है। वहां भाजपा को मुस्लिम विरोधी सांप्रदायिक फासिस्टवादी बताने का असर मतदाताओं पर होगा। इनमें से एक वर्ग भाजपा के विरुद्ध आक्रामक होकर मतदान में काम करेगा। ऐसा सब जगह नहीं हो सकता।
भारत में ऐसे अनेक राज्य हैं, जहां भाजपा के विरुद्ध यही प्रचार उसके पक्ष में जाता है। आप एक समूह को भाजपा के विरुद्ध बताते हैं, तो दूसरा बड़ा समूह एकमुश्त होकर उसके पक्ष में खड़ा हो जाता है। जाहिर है, विरोधियों को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना चाहिए। हालांकि वे करेंगे नहीं। दूसरे, इससे यह भी धारणा गलत साबित हुई है कि जमीनी वास्तविकता के परे केवल हवा बनाने या माहौल बनाने से चुनाव जीता जा सकता है। त्रिपुरा ने दिखाया कि बाहर भले आप माहौल बना दीजिए कि भाजपा खत्म हो रही है और तृणमूल कांग्रेस उसकी जगह ले रही है, मगर जमीन पर ऐसा नहीं था।

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