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बढ़ा-चढ़ाकर किए जा रहे दावों से भ्रमित न हों। हमारे लिए अभी बहुत काम बाकी हैं।
हाल के महीनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हमें बताया कि, 'दुनिया भारत की ओर देख रही है।' ये शब्द या हिंदी में इनसे मिलते-जुलते शब्द प्रधानमंत्री के भाषणों में मार्च में (जब उन्होंने भारत को मैन्यूफैक्चरिंग पावरहाउस बताया), मई में (जब उन्होंने कहा, दुनिया भारत के स्टार्टअप्स में भविष्य देख रही है), जून में (जब उन्होंने कहा, दुनिया भारत की संभावनाओं की ओर देख रही है और उसके प्रदर्शन की प्रशंसा कर रही है) और जुलाई में (जब उत्तर प्रदेश में एक एक्सप्रेसवे के उद्घाटन के मौके पर इन शब्दों का इस्तेमाल किया गया) सुने गए।
दुनिया वास्तव में भारत को देख रही है- हालांकि जरूरी नहीं कि भारत की ओर देख रही हो- इसकी पुष्टि आकार पटेल की पुस्तक प्राइस ऑफ द मोदी इयर्स को पढ़ने से होती है, जिसमें वैश्विक आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक सूचकांकों की एक सूची है और उन पर हमारे देश की स्थिति क्या है। लगभग इन सभी सूचकांकों पर भारत की निम्न, कभी-कभी निराशाजनक रूप से निम्न स्थिति बताती है कि दुनिया हमारे बारे में जो खोज रही है, वह कुछ हद तक प्रधानमंत्री की घोषणा के विपरीत हो सकता है।
उदाहरण के लिए पटेल ने बताया है कि हेलेनी पासपोर्ट सूचकांक में भारत 85वें क्रम पर है, इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 94वें नंबर पर, वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम के मानव पूंजी सूचकांक में 103वें नंबर पर और संयुक्त राष्ट्र मानव विकास सूचकांक में 131वें नंबर पर है। इनमें से कई सूचकांकों में, 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से भारत नीचे खिसका है।
दुनिया हमारे बारे में क्या सोचती है, यह महत्वपूर्ण है। लेकिन हम खुद के बारे में क्या सोचते हैं, संभवतः वह अधिक महत्वपूर्ण है। इसलिए हमें ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से हमारी स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ के मौके पर खुद से यह पूछना चाहिए : भारत कैसा प्रदर्शन कर रहा है? भारतीय कैसे रह रहे हैं? एक राष्ट्र के रूप में और एक जनता के रूप में हमने किस हद तक संविधान में निर्धारित आदर्शों को पूरा किया है, और हमारी स्वतंत्रता के लिए लड़ने वालों की आशाओं को पूरा किया है?
2015 में मैंने भारत को एक 'केवल चुनावी लोकतंत्र' के रूप में वर्णित किया था, जिससे मेरा मतलब था कि चुनाव नियमित रूप से होते हैं, लेकिन चुनावों के बीच वस्तुतः कोई जवाबदेही नहीं होती। संसद, प्रेस, सिविल सेवा इत्यादि इतने अक्षम या समझौतापरस्त हो गए थे कि उन्होंने सत्तारूढ़ दल की ज्यादतियों पर बहुत कम सवाल उठाए या उन्हें पूरी तरह से नजरंदाज किया। और अब तो 'सिर्फ चुनाव' वाली योग्यता का टिकना भी मुश्किल दिख रहा है। इलेक्टोरल बांड्स योजना की अपारदर्शिता, चुनाव आयोग का पक्षपात और निर्वाचित राज्य सरकारों को जबर्दस्ती और रिश्वत के दम पर गिराए जाने का यही मतलब है कि चुनाव भी पूरी तरह से स्वतंत्र तथा निष्पक्ष नहीं रह गए हैं।
हाल के वर्षों में, भारतीय राज्य असंतोष के दमन में कहीं अधिक क्रूर हो गया है। सरकार के अपने आंकड़ों के मुताबिक 2016 से 2020 के दौरान 24,000 भारतीयों को बर्बर गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत गिरफ्तार किया गया, जिनमें से एक फीसदी से भी कम को सजा दी गई। शेष 99 फीसदी लोगों का जीवन एक पीड़नोन्मादी और वैचारिक रूप से संचालित राज्य तंत्र द्वारा बर्बाद कर दिया गया। प्रेस पर हमले बढ़े हैं।
दमन के इस माहौल में, यह रिपोर्ट करना निराशाजनक है कि उच्च न्यायपालिका ने अक्सर नागरिक के खिलाफ राज्य का साथ देना चुना है। इसीलिए प्रताप भानू मेहता ने हाल ही में लिखा, 'अधिकारों के संरक्षक होने के बजाय सुप्रीम कोर्ट अब उसके लिए एक गंभीर खतरा बन गया है।' सांविधानिक अध्येता अनुज भुवानिया ने कहा है कि 'प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बहुसंख्यक शासन के समक्ष सुप्रीम कोर्ट ने पूर्ण समर्पण कर दिया है।'
भारतीय राजनीतिक रूप से बोलने के लिए कम स्वतंत्र और सामाजिक तौर पर अपनी बात कहने के लिए और भी कम स्वतंत्र हैं। अंग्रेजों के यहां से जाने के पचहत्तर सालों के बाद भी हमारा समाज आज भी गहराई से पदानुक्रमित है। 1950 में भारतीय संविधान ने जाति और लैंगिक भेदभाव को गैरकानूनी करार दिया, फिर भी ये आज मजबूती से कायम हैं। हालांकि सकारात्मक कार्रवाई (आरक्षण) ने दलित पेशेवर वर्ग के निर्माण में मदद की है, लेकिन सामाजिक जीवन के कई क्षेत्रों में जातिगत भेदभाव कायम हैं। भीमराव आंबेडकर के जाति के उन्मूलन के आह्वान के इतने वर्षों बाद भी बहुत कम अंतरजातीय विवाह होते हैं, जो दिखाता है कि भारतीय समाज आज भी किस तरह से संकीर्ण है।
समाज के बाद मैं संस्कृति और धर्म पर आता हूं। यहां भी तस्वीर कोई अच्छी नहीं है। राज्य और निगरानी समूहों द्वारा तेजी से यह थोपा जा रहा है कि भारतीय क्या खा सकते हैं, क्या पहन सकते हैं, वे कहां रह सकते हैं, क्या लिख सकते हैं और किससे विवाह कर सकते हैं। शायद सबसे ज्यादा चिंता की बात यह है कि भारतीय मुसलमानों के साथ जिस तरह का व्यवहार हो रहा है। मुस्लिमों का राजनीति और व्यवसायों में बड़े पैमाने पर कम प्रतिनिधित्व है, कार्यस्थल में उनके साथ भेदभाव होता है और टेलीविजन तथा सोशल मीडिया में उनका मजाक उड़ाया जाता है।
संस्कृति के बाद मैं अर्थव्यवस्था की बात कर रहा हूं। नरेंद्र मोदी अर्थव्यवस्था को और अधिक उदार बनाने के वादे के साथ सत्ता में आए। वास्तव में, उन्होंने संरक्षणवाद का रुख किया, जिसे 1991 के सुधारों में खत्म करने की कोशिश की गई थी। इसने घरेलू उद्यम के लिए एक समान अवसर पैदा नहीं किया है— इसके उलट इसने, जैसा कि एक पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार ने जिसे पूंजीवाद का 2 ए मॉडल करार दिया था, पसंदीदा उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाया। अंतरराष्ट्रीय ख्याति के अर्थशास्त्रियों द्वारा तैयार विश्व असमानता रिपोर्ट, 2022 का आकलन है कि भारत की आबादी के एक फीसदी सर्वाधिक धनी लोगों के पास राष्ट्रीय आय का 22 फीसदी है, जबकि सर्वाधिक पचास फीसदी गरीबों के पास महज 13 फीसदी।
जुलाई, 2021 में मुकेश अंबानी के पास 80 अरब डॉलर की संपत्ति थी, जो पिछले साल की तुलना में 15 अरब डॉलर ज्यादा है। उस वर्ष गौतम अदाणी की संपत्ति में वृद्धि और भी शानदार थी - 13 अरब डॉलर से 55 अरब डॉलर तक। (अदाणी की निजी संपत्ति अब 110 अरब डॉलर से अधिक है)। ऐतिहासिक रूप से विषम आय और संपत्ति वितरण के बोझ तले दबे भारत लगातार और भी अधिक असमान समाज बनता जा रहा है।
चाहे मात्रात्मक या गुणात्मक दृष्टि से देखा जाए, 75 वें साल में भारत का रिपोर्ट कार्ड निश्चित रूप से मिश्रित है। निश्चय ही, इन विफलताओं का भार केवल वर्तमान सरकार के द्वार पर नहीं डाला जा सकता। जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस ने भले ही लोकतांत्रिक संस्थानों का पोषण किया हो और धार्मिक और भाषायी बहुलतावाद को बढ़ावा दिया हो, लेकिन उसे भारतीय उद्यमियों में अधिक विश्वास दिखाना चाहिए था और साथ ही निरक्षरता को मिटाने और अच्छी स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करने के लिए और अधिक काम करना चाहिए था।
इंदिरा गांधी ने युद्ध के समय में खुद को एक सक्षम नेता साबित किया, लेकिन उनके प्रशासन के स्वतंत्र संस्थानों पर कब्जा करने, अर्थव्यवस्था पर राज्य के नियंत्रण को मजबूत करने, एक राजनीतिक दल को एक पारिवारिक फर्म में बदलने और अपने चारों ओर एक व्यक्तित्व पंथ का निर्माण करने से हमारे राजनीतिक जीवन के साथ-साथ हमारी आर्थिक संभावनाओं को भी खासा नुकसान हुआ। नरेंद्र मोदी भले ही स्व-निर्मित होने के साथ-साथ बेहद मेहनती राजनेता हों, फिर भी इंदिरा गांधी की सत्तावादी प्रवृत्ति के उनके अनुकरण और आरएसएस-प्रेरित विश्वदृष्टि के बहुसंख्यक सांचे के साथ मिल जाने का मतलब है कि, इतिहासकार उनकी विरासत का आकलन भक्त ब्रिगेड की तुलना में अधिक निर्ममता से करेंगे।
वादे और क्षमता के बीच इस अंतर का विश्लेषण करने के लिए हम शक्तिशाली और प्रभावशाली व्यक्तियों के कार्यों (और कुकर्मों) और उनके नेतृत्व वाली सरकारों पर नजर डाल सकते हैं। या हम इस मामले की आंबेडकर की इस टिप्पणी के आलोक में सामाजिक रूप से व्याख्या कर सकते हैं, कि 'भारत में लोकतंत्र, भारतीय धरती में केवल एक दिखावा है, जो कि अनिवार्य रूप से अलोकतांत्रिक है।' आइए, हम अपने नेताओं के बढ़ा-चढ़ाकर किए जा रहे दावों से भ्रमित न हों। हमारे लिए अभी बहुत काम बाकी हैं।
सोर्स: अमर उजाला
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