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- कुप्रबंधन का अर्थ
Written by जनसत्ता; बढ़ती महंगाई और बेरोजगारों की फौज इसे बढ़ाने में सहायक साबित हो रहे हैं। कोरोना का दौर खत्म होने को है। इसका असर भी दिखने लगा है। कारोबार में इजाफा हो रहा है। तब भी वस्तु एवं सेवा कर के जरिए कर वसूली में बढ़ोतरी देखने को मिल रही है। इसके बावजूद क्या कारण है कि हमारी अर्थव्यवस्था में जान नहीं आ पा रही है और रोजगार सृजन की क्षमता घट रही है? सरकारी नौकरियों के भरोसे कितने युवाओं को समायोजित करना संभव है, यह तो सरकार ही बता सकती है।
हालांकि स्थिति सुधरने का भरोसा दिलाया जाता है, मगर परिणाम सामने नहीं आता। विपक्ष इन मुद्दों को सतही तौर पर उठा रहा था, क्योंकि विपक्ष के अधिकांश नेताओं की चिंता यह है कि 2024 में प्रधानमंत्री कौन होगा? किसकी राह मुश्किल होगी और किसकी आसान? बहरहाल, जनता की रोजी-रोटी रोजगार की राह पहले आसान हो। सत्ता की राजनीति हो या विपक्ष की, इसे जनोन्मुखी होने ही चाहिए। यही लोकतांत्रिक शासन की कसौटी है।
कभी हम सब झारखंड जैसे खनिज संपदा वाले राज्य, जो कभी एकीकृत बिहार का हिस्सा था, के बारे में पढ़ते थे कि संपन्न राज्य के गरीब लोग। मतलब यह कहकर दोषारोपित किया जाता था। वहां आज भी कुप्रबंधन, कुशासन को स्थिति आज भी जस की तस है। आज देश के बारे में ऐसा कहा जा रहा है कि धन का असमान वितरण बढ़ रहा है। तब इसकी चिंता सबको करनी चाहिए, यानी कारोबारी जगत और सरकार को भी।
जल ही जीवन है। जल के बिना मानव सृष्टि की कल्पना नहीं किया जा सकता है। जीवन के दैनिक कार्यों से लेकर सिंचाई के कार्यों तक भूमिगत जल का धड़ल्ले से दोहन किया जा रहा है। भूमिगत जल का स्तर समय के साथ गिरता जा रहा है। बारिश की हर एक बूंद को धरती के गर्भ तक पहुंचाने से भूमिगत जल स्तर बरकरार रह सकता है।
इस विकसित दौर में भी बारिश के जल का सिर्फ बारह फीसदी ही इस्तेमाल हो पाता है, शेष जल का बर्बाद होना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। प्राकृतिक जल स्रोतों की अनदेखी की वजह से कई विलुप्त होने के कगार पर आ गए हैं, कई स्थानों पर नदियों, पोखर आदि का अतिक्रमण हो चुका है। देश के इक्कीस बड़े शहर जीरो ग्राउंडवाटर स्तर के बेहद करीब पहुंच चुके हैं। जल संचय एवं जल प्रबंधन विषयों पर प्रतिदिन कार्य करने की आवश्यकता है।