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भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर ने एक बार फिर दोहराया है कि चालू वित्तवर्ष में विकास दर साढ़े दस फीसद रह सकती है। अप्रैल की अपनी मौद्रिक नीति की समीक्षा के वक्त ही उसने यह अनुमान घोषित कर दिया था। कोरोना काल में अर्थव्यवस्था का रुख लगातार नीचे की तरफ बना रहा। उसके पहले भी चार-पांच तिमाहियों से अर्थिक विकास दर लगातार घट रही थी।
इस वक्त महंगाई चरम पर है, पेट्रोल-डीजल की कीमतें काबू में नहीं आ पा रही हैं, लाखों लोगों के रोजगार छिन गए हैं, जिनके पास रोजगार हैं भी, उनकी आय घट गई है और नौकरीशुदा लोगों के वेतन में कटौती की गई है। बहुत सारे लघु, सूक्ष्म और मझोले उद्योग या तो बंद हो चुके हैं या बंद होने की कगार पर हैं। हालांकि सरकार ने उन्हें नए सिरे से कर्ज लेकर अपनी स्थिति सुधारने का अवसर उपलब्ध कराया, पर उसका कोई उल्लेखनीय नतीजा नजर नहीं आ रहा। ब्याज दरों के न्यूनतम स्तर पर रखे जाने के बावजूद बाजार में गति नहीं आ पा रही। ऐसे में रिजर्व बैंक के आर्थिक विकास के अनुमान पर स्वाभाविक ही लोगों को हैरानी हो सकती है। मगर रिजर्व बैंक आर्थिक समावेशन की नीति पर चलते हुए इस लक्ष्य तक पहुंचने को लेकर आश्वस्त है
रिजर्व बैंक गलत तरीके से बिक्री, साइबर सुरक्षा, आंकड़ों की गोपनीयता जैसे जोखिमों को प्रभावी तरीके से दूर करने और वित्तीय प्रणाली को भरोसेमंद बनाने को लेकर प्रतिबद्ध दिखता है। इसलिए वह पहुंच, गुणवत्ता और उपयोग के आधार पर समावेशिता सूचकांक तैयार कर रहा है। इसके पीछे उसकी मंशा समझी जा सकती है। पिछले कुछ सालों में व्यापारिक, वाणिज्यिक गतिविधियों में असमानता देखी गई। कुछ औद्योगिक घरानों की कमाई तेजी से बढ़ी दर्ज हुई, तो बहुत सारे उद्योगों के लिए अपना अस्तित्व बचाना मुश्किल हो गया। फिर इंटरनेट के जरिए कारोबार करने वाली देशी-विदेशी कंपनियों ने बंदी का खूब लाभ उठाया।
बिक्री में कई अनियमितताएं भी देखी गईं। इस तरह उनके आंकड़ों की गोपनीयता को लेकर भी सवाल उठे। बड़े उद्योगों के उत्पाद और बिक्री का दायरा संपन्न वर्गों तक केंद्रित होता दिखा। इस तरह व्यापारिक गतिविधियों में एक प्रकार का असंतुलन पैदा हुआ। इसे रिजर्व बैंक कैसे संतुलित कर पाएगा, देखने की बात है। वह खुद भी मानता है कि अभी मांग की गति धीमी बनी रहेगी। जाहिर है, इसका असर उत्पादन पर पड़ेगा। बाजार में तेजी ला पाना बड़ी चुनौती रहेगी। मगर वह वित्तीय संतुलन और समावेशिता के अपने इरादे में कुछ हद तक सफल हो पाता है, तो बड़े और छोटे उद्योगों के बीच बढ़ रही खाईं को पाटने में अवश्य कुछ कामयाबी मिल सकती है।
अर्थव्यवस्था को मजबूती और टिकाऊपन तभी मिल पाएगा, जब लोगों की क्रयशक्ति बढ़ेगी और वह तब संभव होगा, जब रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। अभी स्थिति यह है कि वित्तीय कमजोरी की वजह से तमाम संस्थानों ने अपने यहां नई भर्तियों पर रोक लगा रखी है। लोगों की आय बंद या फिर कम हो गई है, इसलिए वे जरूरी खर्चों के मामले में भी मुट्ठी भींच कर चल रहे हैं। ऐसे में नए रोजगार के रास्ते संकुचित हो गए हैं। नए रोजगार के अवसर पैदा करने के लिए बड़े पूंजीपति घरानों के बरक्स लघु, सूक्ष्म और मंझोले उद्योगों को मजबूती से खड़ा करना बहुत जरूरी है। इसके अलावा महंगाई रोकने के उपायों पर गंभीरता से अमल करना होगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि रिजर्व बैंक की समावेशिता की नीति इस दिशा में कुछ सकारात्मक परिणाम दे सकेगी।