सम्पादकीय

गिरते रुपये का मतलब : एक-दूसरे पर निर्भर देश और वैश्विक कारोबार को प्रभावित करने वाले कारक

Neha Dani
14 May 2022 1:42 AM GMT
गिरते रुपये का मतलब : एक-दूसरे पर निर्भर देश और वैश्विक कारोबार को प्रभावित करने वाले कारक
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कमजोर रुपये और उच्च मुद्रास्फीति की दोहरी चुनौती से जूझना होगा। गर्मियों का मौसम सचमुच बहुत खराब बीत रहा है।

मैं भारत में रहता हूं, इसलिए डॉलर के मुकाबले रुपये के मूल्य में गिरावट मेरे लिए कोई मायने नहीं रखती। यह मेरे एक दोस्त का तर्क है। पाम ऑयल के वैश्विक रूप से सबसे बड़े निर्यातक इंडोनेशिया ने कुछ महीने पहले निर्यात पर रोक लगा दी। आदर्श रूप में भारतीयों पर इसका प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए था, क्योंकि इंडोनेशिया की सरकार ने तेल की आंतरिक जरूरतों के प्रबंधन के लिए यह फैसला लिया था। जिस तरह से पाम ऑयल और अन्य खाद्य तेलों के दामों में बढ़ोतरी हुई है, उसे देखते हुए मेरे दोस्त की पत्नी ने डॉलर को लेकर की गई उसकी टिप्पणी से असहमति जताई।

उसने अपने पति को याद दिलाया कि हमें आज जो महंगा पेट्रोल या डीजल लेना पड़ रहा है, उसका कारण कच्चे तेल के बढ़ते दाम हैं। सचमुच हम आज ऐसी दुनिया में रह रहे हैं, जो पूरी तरह से एक-दूसरे से जुड़ी हुई है और एक-दूसरे पर निर्भर है। एक देश में यदि सूखा पड़ता है या कहीं और अत्यधिक बारिश होती है, तो इससे वैश्विक कारोबार का तरीका बदल जाता है। आइए पहले यह समझें कि भारत आयात की तुलना में मूल्य के संदर्भ में वस्तुओं और सेवाओं का निर्यात बहुत कम करता है।
व्यापार की भाषा में इसका मतलब है कि अगर भारत 100 रुपये के सामान का निर्यात करता है, तो वह डेढ़ गुना या 150 रुपये के सामान का आयात करता है। वैश्विक व्यापार डॉलर में होता है, क्योंकि डॉलर एक शक्तिशाली मुद्रा है और वैश्विक स्तर पर अग्रणी मुद्रा के रूप में इसकी स्वीकृति है, जिसे अधिकांश देश अपनी मुद्रा के बरक्स स्वीकार करते हैं। ऐसे कई आर्थिक, राजनीतिक और विविध कारक होते हैं, जिनका प्रभाव वैश्विक कारोबार पर पड़ता है। महामारी और युद्ध इसे और जटिल बनाते हैं।
भारत के पास डॉलर का समुचित भंडार था, लेकिन चार महीनों से डॉलर के निवेश का बहिर्प्रवाह बढ़ा है। इसमें वैश्विक निवेशकों द्वारा भारत में लगाया गया धन शामिल है, जो कि भारतीय बाजारों को अपने अनुकूल पा रहे हैं। रुपये के कमजोर होने से और डॉलर के मजबूत होने पर बाहर निकलने से उन्हें फायदा होता है, फिर बाहर निकलने की उनकी वजह चाहे कुछ भी हो सकती है। उदाहरण के लिए, अभी वैश्विक रूप से मुद्रास्फीति बढ़ रही है, जो कि संस्थागत निवेशकों सहित बड़ी संख्या में निवेशकों को अपनी नकद होल्डिंग बढ़ाने को मजबूर करती है, ताकि वे उच्च मुद्रास्फीति की चुनौती का सामना कर सकें।
एक अमेरिकी डॉलर 77.4 रुपये का हो गया है, यह संभवतः डॉलर के मुकाबले रुपये का सबसे न्यूनतम मूल्य है। इसके अलावा कच्चे तेल के बढ़ते दाम के साथ ही कच्चे माल की लागत भी बढ़ रही है, जिनमें इस्पात, इलेक्ट्रॉनिक्स, भारी मशीनरी और लॉजिस्टिक्स इत्यादि शामिल हैं। हम, कई अन्य देशों की तरह, रुपये के मुकाबले डॉलर के मजबूत होने के कारण बढ़ती मुद्रास्फीति की चुनौती का सामना कर रहे हैं। यह कितना बुरा है? ईंधन के दाम बढ़ रहे हैं और ये अभी और बढ़ेंगे। इसलिए खुद को अगले कुछ महीनों की कड़ी चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार करें।
कच्चे तेल के बढ़ते दाम और कमजोर रुपये का मतलब है कि समान मात्रा के ईंधन के लिए आपको पहले से अधिक भुगतान करना होगा। आप सिर्फ कच्चे तेल के उच्च दाम के लिए ही अधिक भुगतान नहीं करेंगे, बल्कि डॉलर के मजबूत होने की कीमत भी चुकाएंगे। लंबा खिंचता यूक्रेन-रूस संघर्ष भी अनेक वस्तुओं और ऊर्जा लागत को प्रभावित करेगा। खाना पकाने के सूरजमुखी के तेल पर गौर करें। सूरजमुखी तेल के कुल वैश्विक उत्पादन के 66 फीसदी का स्रोत रूस और यूक्रेन ही हैं।
युद्ध ने तेल के निर्यात को अनिश्चित काल तक के लिए कठिन बना दिया है और यह कोई नहीं जानता कि हालात कब बेहतर होंगे। भारत के पास डॉलर का पर्याप्त भंडार है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि चीजें बहुत अच्छी हैं। भारतीय रिजर्व बैंक रुपये की मजबूती के लिए कुछ कदम उठा सकता है, मगर ब्याज दरों में वृद्धि करने से मुद्रास्फीति में आई तेजी से वह पहले ही जूझ रहा है। सरकार गिरते रुपये को उठाने के लिए कुछ झटके दे सकती है, लेकिन इस समय वह ऐसा कुछ करेगी लगता नहीं, क्योंकि इसका प्रभाव व्यापार पर पड़ेगा।
हां, सकारात्मक यह देखा जा सकता है कि कमजोर रुपये के कारण भारत के निर्यात में वृद्धि के लिए यह एक अच्छा समय है, लेकिन मुश्किल यह है कि हम वैसे भी वैश्विक व्यापार में उस स्तर का निर्यात नहीं करते हैं, जो अन्य देशों को भारत से आयात करने के लिए आकर्षित करे। ईंधन की लागत और मुद्रास्फीति पहले ऐसे संकेतक हैं, जिसका सीधा असर आम आदमी पर पड़ रहा है और पड़ेगा। इसका असर अर्थव्यवस्था के दूसरे हिस्सों पर भी पड़ेगा। उदाहरण के लिए, घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हवाई यात्रा की लागत बढ़ती जा रही है।
विदेशों में पढ़ने वाले लाखों भारतीय छात्रों को देखते हुए साफ है कि इसका विदेशी शिक्षा पर भी असर पड़ेगा। अलबत्ता अप्रवासी भारतीयों (एनआईआई) के लिए यह अच्छी खबर है। कमजोर रुपये का मतलब है कि स्वदेश भेजने वाले प्रत्येक डॉलर पर उन्हें अब अधिक रुपये मिलेंगे। सिर्फ भारतीय रुपया अकेली मुद्रा नहीं जिसमें गिरावट आई है। यहां तक कि येन (जापान), युआन (चीन), पाकिस्तानी रुपया के साथ ही बांग्लादेश तथा श्रीलंका की मुद्राएं नीचे गिर रही हैं। यह चिंता का विषय है और हालांकि सरकार सीधे तौर पर कुछ नहीं कर सकती है, वह नुकसान को नियंत्रित करने के लिए कदम उठा सकती है।
यह आने वाले समय में ही पता चलेगा कि हमें कैसा नुकसान हुआ है। वैसे देखा जाए, तो ईंधन की कीमतों में बढ़ोतरी का सरकार पर ज्यादा असर नहीं पड़ा है; रुपये में गिरावट का भी सरकार पर कोई असर पड़ने की संभावना नहीं है। आम आदमी के लिए पहले ही जीवन कठिन है और आने वाले समय में उसकी मुश्किल बढ़ने ही वाली है। शेयर बाजारों में भी गिरावट है, लेकिन उसे गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है, क्योंकि विदेशी निवेशक कमजोर रुपये के कारण यहां से जा रहे हैं। इसके अलावा शेयर बाजारों से सिर्फ तीन करोड़ लोगों का ताल्लुक है, बाकी बचे भारतीय हैं, जिन्हें कमजोर रुपये और उच्च मुद्रास्फीति की दोहरी चुनौती से जूझना होगा। गर्मियों का मौसम सचमुच बहुत खराब बीत रहा है।

सोर्स: अमर उजाला

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