सम्पादकीय

कांग्रेस में चुनाव के मायने

Rani Sahu
21 Oct 2022 10:26 AM GMT
कांग्रेस में चुनाव के मायने
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सोनिया कांग्रेस में अध्यक्ष के लिए अंतत: चुनाव सम्पन्न हो गया। सोनिया गांधी परिवार के वारिस राहुल गांधी काफी लम्बे अरसे से कह रहे थे कि पार्टी को युवा लोगों की जरूरत है, तभी पार्टी में नए रक्त व ऊर्जा का संचार होगा। कई हल्कों में यह प्रश्न भी उठने लगा था कि क्या राहुल गांधी स्वयं को युवा नहीं मानते? आखिर क्या कारण है कि वे पार्टी में युवाओं की महत्ता को स्वीकार भी कर रहे हैं और स्वयं जि़म्मेदारी संभालने को तैयार भी नहीं हैं। तब यह ख़ुलासा हुआ था कि सोनिया परिवार ने निर्णय किया है कि इस बार परिवार के बाहर के किसी व्यक्ति को भी मौक़ा देना चाहिए। लेकिन इसका भी एक सरल और पार्टी में पुराने समय से प्रचलित तरीक़ा था ही। सोनिया गांधी जी किसी भी बाहरी व्यक्ति को पार्टी का अध्यक्ष मनोनीत कर सकती थीं। लेकिन देश में बहुत समय से चर्चा चल रही थी कि पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र ग़ायब है। इसलिए इस मौके पर पार्टी के भीतर छिपे हुए आंतरिक लोकतंत्र का भी प्रदर्शन किया जा सकता था। कांग्रेस को पुनर्जीवित करने की इच्छा से यदि ये सारे उपक्रम किए जाते तो इसमें कोई बुराई नहीं थी। कम से कम कांग्रेस को स्वयं को मूल्यांकित करने और आम भारतीय जन की आकांक्षाओं के अनुरूप स्वयं को ढालने का एक अवसर अवश्य मिल जाता। लेकिन सोनिया परिवार की मंशा सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे वाली थी। परिवार चाहता था कि पार्टी का नियंत्रण भी उनके हाथ में रहे और अध्यक्ष के चुनाव इत्यादि की सामाजिक-राजनीतिक रस्म भी पूरी हो जाए। इसलिए किसी ऐसे यजमान की तलाश हुई जो ये सारी रस्में बख़ूबी निभाता रहे लेकिन पुरोहित के नियंत्रण से बाहर भी न जाए। सोनिया परिवार को लगा कि राजस्थान के अशोक गहलोत इन सभी मापदंडों पर पूरे उतरते हैं। इसलिए उन्हें अध्यक्ष बना कर सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाने की स्क्रिप्ट लिखी गई। लेकिन इस पूरी रणनीति में एक कमी रह गई। सोनिया गांधी परिवार शायद यह अनुभव नहीं कर पाया कि अब स्वयं परिवार के राजनीतिक रुतबे का पार्टी के भीतर ही अवमूल्यन हो चुका है। सोनिया परिवार के बाहर के व्यक्ति के लिए कांग्रेस अध्यक्ष का पद उतना आकर्षक नहीं है। क्योंकि न तो सोनिया परिवार के नाम से सत्ता प्राप्ति की आशा बंधती है और न ही नए कांग्रेस अध्यक्ष को यह परिवार सचमुच संगठनात्मक सत्ता हस्तांतरित करेगा, इसकी आशा की जा सकती है।
इसलिए अशोक गहलोत तो कन्नी काट गए। उनका कहना था कि यदि उन्हें राजस्थान के मुख्यमंत्री के साथ-साथ अध्यक्ष भी बना दिया जाता है तो वे पूरी ईमानदारी से परिवार के हितों को ध्यान में रखते हुए अध्यक्ष पद की सभी रस्में निभाते रहेंगे। अब जब अशोक गहलोत की स्वामिभक्ति ही संदिग्ध दिखाई देने लगी थी तो उस पर दांव खेलना परिवार के लिए ख़तरे से ख़ाली नहीं था। जब सोनिया परिवार को घर से बाहर के राजनीतिक यथार्थ का ज्ञान हो गया तो उसने युवा की जरूरत, पार्टी में युवा चेतना व ऊर्जा की जरूरत इत्यादि राजनीतिक जुमलेबाजी को त्याग कर कर्नाटक के अस्सी वर्षीय मल्लिकार्जुन खडग़े को ही अध्यक्ष बनाने का निर्णय कर लिया। अब साफ-साफ यह भी कहा जाने लगा कि पार्टी में सर्वसम्मति से ही चुनाव की परम्परा है। लेकिन केरल के शशि थरूर इससे सहमत नहीं हुए। 66 वर्षीय शशि थरूर आखिर खडग़े के मुक़ाबले तो युवा ही माने गए। वैसे भी वे संयुक्त राष्ट्र संघ इत्यादि जगहों पर रह चुके हैं। थरूर खडग़े के मुक़ाबले में मैदान में आ ही नहीं गए बल्कि उन्होंने पार्टी की पुरानी परम्पराओं की अपील को ख़ारिज करते हुए मैदान में से हटने से भी इंकार कर दिया। वैसे भी थरूर अनेक सामाजिक परम्पराओं को भी तोड़ चुके हैं तो राजनीतिक परम्पराओं में बंधे रहना वे कैसे स्वीकार कर सकते थे? यदि सोनिया गांधी द्वारा भारत की कांग्रेस पार्टी पर शिकंजा कस लेने से पूर्व के पार्टी के इतिहास को भी निरंतरता में ही जोड़ लिया जाए तो पार्टी की उम्र 137 साल की ठहरती है। अब तक के इतिहास में अध्यक्ष पद को लेकर केवल चार बार घमासान मचा था।
यह उसी प्रकार का पांचवां घमासान कहा जा सकता है। लेकिन तथाकथित हाई कमांड या फिर नेहरू परिवार जिसे आजकल सोनिया गांधी-नेहरू परिवार भी कहा जाने लगा है, की इच्छा के विपरीत चुन कर आए कांग्रेस अध्यक्ष को पद पर बने नहीं रहने दिया गया। गांधी की समय में यह कांड सुभाष चंद्र बोस के साथ हुआ था और जवाहर लाल नेहरू के समय यह पुरुषोत्तम दास टंडन के साथ हुआ था। सोनिया गांधी के काल में यही कांड सीता राम केसरी के साथ हुआ था। बीच बीच में पार्टी के भीतर की लोकतांत्रिक व्यवस्था का प्रदर्शन करने के लिए चुनाव इत्यादि करवाने की परम्परा भी पार्टी में रही है। सन् 2000 में सोनिया गांधी ने स्वयं यह सिद्ध करने का प्रयास किया था कि वे स्वयं अपने बलबूते भारत की राजनीति में खड़ी हैं। इसलिए पार्टी में बाक़ायदा अध्यक्ष पद के चुनाव की रस्म निभाई गई थी। मुक़ाबले में उत्तर प्रदेश के ही जितेंद्र प्रसाद थे। सोनिया जी को 7448 वोट मिले थे और जितेन्द्र प्रसाद ने 96 वोट लेकर सार्वजनिक रिकार्ड के लिए मुक़ाबले को द्विपक्षीय बनाया था। तब से लेकर अब तक मां-बेटा आपस में ही अध्यक्ष पद की अदालत बदली करते रहे हैं। अब दो दशकों बाद फिर पार्टी के भीतर से ही मद्धम स्वर में आवाज़ें आने लगी थीं कि अध्यक्ष के चुनाव वाली रस्म को पूरा करना चाहिए। लेकिन रस्म निभाने से पूर्व राहुल गांधी जी से बार-बार प्रार्थनाएं की गईं कि वे स्वयं आगे आकर इस पद को संभालें ताकि पार्टी के वोटरों को 'चुनने' जैसी मन को आघात पहुंचाने वाली दारुण प्रक्रिया में से न गुजऱना पड़े । लेकिन राहुल गांधी नहीं माने।
कुछ लोग यह भी कहते हैं कि राहुल गांधी अशोक गहलोत का कांटा निकाल कर इस सारी रस्म में अपने मित्र सचिन पायलट को राजस्थान का मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे। लेकिन गहलोत ने यह चाल शुरू होने से पहले ही फेल कर दी। अंतिम क्षणों में बलि के बकरे की तलाश खडग़े पर आकर टिकी। लेकिन उनका चुनाव भी विवाद रहित नहीं रहा। विरोधी पक्ष बहुत देर तक तो वोटर सूची को सार्वजनिक करने की मांग करता रहा। फिर नया झगड़ा शुरू हुआ कि आखिर वोटर सूचियों का आधार क्या है? मामला चुनाव के शुरू होने से लेकर मतगणना तक चलता रहा। शशि थरूर के चुनाव एजेंट सैफुद्दीन सोज़ बहुत देर तक इस बात पर अड़े रहे कि उत्तर प्रदेश की वोटों को रद्द किया जाए क्योंकि वहां मतदान में फ्राड हुआ है। लेकिन चुनाव अधिकारी मधुसूदन मिस्त्री नहीं माने। जब गिनती पूरी हुई तो कुल मिला कर 9385 वोटों में से खडग़े को 7897 वोट मिले। शशि थरूर को 1072 वोट मिले। 416 वोट रद्द कऱार दिए गए क्योंकि वोट डालने वाले को वोट डालना आता नहीं था। वैसे शशि थरूर को बधाई दी जानी चाहिए कि उन्होंने पार्टी में परिवार की इजारेदारी के खिलाफ आखिर लडऩे का साहस तो दिखाया। वैसे भी 22 साल पहले जितेन्द्र प्रसाद को सोनिया जी के मुक़ाबले 96 वोट मिले थे और शशि थरूर ने 1072 वोट लेकर परिवार के कि़ले में ज्यादा सेंध लगाई है। इसके लिए वे निश्चय ही बधाई के पात्र हैं। लेकिन मल्लिकार्जुन खडग़े के लिए सिर मुंडाते ही ओले पड़े जैसी स्थिति हो गई है। हिमाचल प्रदेश और गुजरात की विधानसभाओं के चुनाव सिर पर आ गए हैं। खडग़े इसमें क्या कर सकेंगे, यह तो समय ही बताएगा, लेकिन परिवार को हार का ठीकरा खडग़े के सिर पर फोडऩे का एक बहाना अवश्य मिल जाएगा।
कुलदीप चंद अग्निहोत्री
वरिष्ठ स्तंभकार
ईमेल:[email protected]
By: divyahimachal
Rani Sahu

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