सम्पादकीय

जातिगत जनगणना का मतलब

Admin Delhi 1
21 Jun 2022 5:27 AM GMT
जातिगत जनगणना का मतलब
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प्रदीप पंडित, संपादक

गुलजार ने लिखा 'जरा सी गर पीठ नंगी होती

फटे हुए होते उसके कपड़े

लबों पर गर प्यास की रेत होती

और एक-दो दिन का फांका होता

तो फिर यह तस्वीर बिक जाती'

इस तस्वीर को बेचने में कई पार्टियां लगी हैं। भले ही उन्होंने इस तस्वीर को ठीक से देखा भी न हो, भले ही वह इस तस्वीर की जरूरी लकीरें हों। फिर चलने लगी बयार कि जातिगणना होनी चाहिए। जब आंकड़े हाथ में आएंगे तभी तो उन्हें बेचा या बरगलाया जा सकता है। इसे मानने में हर्ज क्या है कि आप गरीबों को जातियों में बांट या दिखाकर सियासत करना चाहते हैं। ऐसा नहीं है तो क्यों जाति आधारित जनगणना की मांग कर रहे हैं। आर्थिक विपिन्नता भी तो कदाचित जाति होती है। मानना होगा कि सृजन भंगिमा का कोई गणित नहीं होता तो यह लोग किस गणित की खोज कर रहे हैं। बताते चलें कि बौद्धों के संघ होते थे उसमें दास और स्त्री दोनों होते थे। इन्हें कोई अधिकार नहीं था। याद तो होगा कि तमिलनाडु के बिशपों ने फरवरी 1988 में एक भाव पूर्व पत्र में कहा था कि जातिगत विभेद और नतीजतन होने वाला अन्याय और हिंसा ईसाई सामाजिक जीवन और व्यवहार में अभी जारी है। हम इस स्थिति को जानते हैं और गहरी पीड़ा से इसे स्वीकार करते हैं। भारतीय चर्च स्वीकार करता है कि 1 करोड़ 90 लाख भारतीय ईसाईयों का लगभग 60 फीसदी भाग भेदभाव पूर्ण व्यवहार का शिकार है। समझ गए होंगे कि उच्च जाति और निम्न जाति के बीच अंतर व्यवहार नहीं होते। मुसलमानों में हालत थोड़ी अलग है, मगर शरीफ जात (उच्च जाति जैसा वर्ग) और अजलाफ जात (निम्न जाति) जैसे मसलों पर बात आम है।

यही सब अंतर समूह सामाजिक अंतर क्रिया को तय करते हैं। आप देखें कि पठान अफगान मूल के थे, फिर भी अनेक ने जिनका अफगानिस्तान से दूर का भी नाता नहीं रहा स्वयं को पठान कहा। जैन, बौद्ध, सिखों में जातियों के उदाहरण मौजूद हैं। आशय यह कि इनकी गणना से हासिल क्या होगा? आप उन्हें अपनी जाति स्थितियों और सामाजिक अंतर विरोधियों के बीच ही जीवित रखना चाहते हैं। वरना दिक्कत क्या है कि जातियां विगलित हों और एक वृहतर समाज बन सके। लगातार छोटी और बड़ी जातियों के भेद ने समाज को फसाद की जमीन तक पहुंचा दिया। भरोसा न हो लेकिन एक नन्ही दसवीं की बेटी से संवाद करते मैंने जाना कि कितना कसैलापन उसके मन में सवर्णों के लिए भरा गया है। इसलिए संख्याबल तलाशना है या कि... वे चुनाव में वह साथ दे सकें या उन्हें लुभाया जा सके। आप बताइए असम के मंगोलों को इतिहास की पड़ताल में देखेंगे तो उनकी जगह कहां तय करेंगे? सिर्फ सामान्यीकरण महज विवाद पैदा करते हैं। यही एक वर्ग है बोडो या बोरो। यह सिर्फ जनजाति का द्योतक नहीं है। इसमें अनेक समुदाय आते हैं जो बोडो भाषा बोलते हैं। आप कचरी को क्या कहेंगे? उन्हें कहां रखेंगे? उनका एक वर्ग अपने को हिंदू मानता है। वे अपने को राजवंशी कहते हैं। छूतिया, देवरी, मिशिंग को कहां रखेंगे? ओहम को कहां देखेंगे? यह यूनान से बर्मा और वहां से असम फिर इन्होंने असमिया को अपनाया और 1450 के आसपास शंंकर देव ने इस समाज के विचार, परंपरा, रीति रिवाज, भाषा, वेशभूषा को नया स्वरूप दिया। प्रभाकर श्रोत्रिय का मानना था कि मनुष्य का विकास उसका उन्नयन प्रकृति को प्रिय नहीं होता तो सत्य मनाने की पहल में वृक्ष खाल उतार कर वस्त्र क्यों पहनाते। और राजनेता वृक्षों की संवेदना को भी कुरेद कर अपने लिए राजनीति की जमीन तैयार कर रहे हैं। कूटनीति, छल नीति और स्वार्थ नीति की देन है जातिगत, जनगणना। आपकी इच्छा क्यों है कि यह जानने की कि वह ब्राह्मण है या दलित, क्यों? वह मनुष्य है, इससे काम नहीं चल रहा। राज्यों और जगह सत्ता जमाए लोगों को शर्म आनी चाहिए कि वह बिजली, पानी, छत और रोटी का इंतजाम नहीं कर पाए। बावजूद इसके कि कृषि और उद्योग की व्यावहारिकता पर ध्यान नहीं दिया गया, ये राजनेता अपने ही देश के बाशिंदों को लड़ाने पर तुले हैं। इसमें नीतीश कुमार जैसा समझदार राजनेता भी शामिल है। वह बुझी हुई कैंडल को फूंक मारकर जलाना चाहता है।

समझना होगा कि ह्रदय शरीर का बेहद संवेदनशील और नरम लोध होता है, उसे प्रकृति कितने जालों, नसों में संभाल कर रखती है। हम उन सभी को जो आर्थिक रूप से पिछड़े हैं, उन सभी को संभालने की योजना क्यों नहीं बना सकते। इसके लिए बिरादरी में फर्क क्यों जरूरी है। क्या सभी सवर्णों के पास वह सब है, जिसके लिए सरकारें दावा करती हैं कि जिनके पास नहीं है उन्हें दे देंगे। सभ्यता की सड़क पर जातियों का भय निर्मित कर उसके खंभे न बनाए जाएं, आखिर कैसे भीतर निर्मित असहमति के तत्व खारिज किए जाने लगे, आखिर कैसे गांधी और मार्क्स सहमति के आधुनिक तत्वों में शामिल हो सकें। जातियों में तो कतई नहीं। उनकी गणना में भी नहीं। नीतीश कुमार ने जानबूझकर केंद्रीय मंत्री रामचंद्र प्रसाद सिंह का राज्यसभा का टिकिट काटा और भाजपा के न चाहने के बाद भी जातिवार जनगणना की तरफदारी की। इसमें समझने जैसा कुछ भी नहीं है यह एकदम साफ है कि इस सबके पीछे राजद से बढ़ती-घटती उनकी पींगे हैं। उन्हें इस बात का भी मलाल है कि भाजपा यह मानने को पूरे यूपी चुनाव में कभी राजी नहीं हुई कि उनकी ताकत यूपी में भी है। 2015 और 20 में उनके सहयोगी दलों को उनकी पार्टी से ज्यादा सीटें मिली मगर मुखिया वे ही रहे। बिहार के राजनीतिक समीकरण में राजद और भाजपा साथ नहीं आ सकते। इसलिए 15 से 25 फीसदी वोट पाकर भी नीतीश मनमानी कर लेते हैं। देश की राजनीति को ऐसी हरकत आपसी सिरफुटव्वल और घनघोर जातिवाद की तरफ ले जाएगी। इसका नतीजा निश्चित ही खराब ही होगा। 1981 की जनगणना के अनुसार देश में करीब 4000 कस्बे या नगर हैं जिसमें जिसमें 16 करोड़ से ज्यादा लोग रहते हैं। आपसी समझ और समरसता के आधार पर ही देश को असहमति और फिर वैमनस्यता तक पहुंचाने से हर हाल में बचाना होगा। गरीबों की तस्वीर को बेंचे नहीं, उन्हें समाज में जीने लायक बनाएं।

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