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मैं इन दिनों छपास के रोग से पीडि़त हूं। वैसे तो मेरा यह रोग क्रॉनिक हो गया है
मैं इन दिनों छपास के रोग से पीडि़त हूं। वैसे तो मेरा यह रोग क्रॉनिक हो गया है, क्योंकि मैं पैंतालीस साल से व्यंग्य लेखन कर रहा हूं, लेकिन इन दिनों छपास की भूख इसलिए बढ़ गई है कि एक तो मैं सरकारी सेवा से सेवानिवृत्त हो गया हूं, दूसरा विसंगतियों की बाढ़ आ गई है। जैसा कि व्यंग्य के बारे में कहा जाता है कि इसमें विसंगतियों पर प्रहार होता है, इस दृष्टि से मैं विसंगतियों को इग्नोर नहीं कर पाता और उस पर कुछ भी लिख मारता हूं। आजकल दैनिक पत्रों पर सामयिक समाचारों पर व्यंग्य कॉलम खूब छप रहे हैं, तो मेरा लिखा हल्का-भारी सब खप जाता है। सामयिक व्यंग्य लेखन में होता यह है कि ज्यादा मेहनत अथवा दिमाग नहीं लड़ाना पड़ता। छोटे-छोटे कॉलमों के लिए आधा तो समाचार और आधी मनमानी टिप्पणी भरकर पाठकों को परोस दी जाती है। इसलिए मेरा छपा लगातार छपने से और उससे मिलने वाले पारिश्रमिक ने मेरी छपास को बढ़ा दिया है। बढ़ती महंगाई, बढ़ते पैट्रोल-गैस के भाव और बढ़ता राजनीतिक भ्रष्टाचार मेरे खूब काम आ रहा है।
ये विषय सदाबहार हैं। इनका जिक्र आया और अखबार सामग्री को लपक कर लेता है। अब तो सारा काम ऑनलाइन हो जाने से रचना दूसरे अथवा तीसरे दिन ही छप जाती है। इस कूड़ा लेखन ने मेरी हौंसला अफजाई की है और मैं दिन में फुलटाइम जॉब के रूप में दो से तीन रचनाएं देश के समाचार पत्र-पत्रिकाओं को सप्लाई कर देता हूं। इससे मेरी छपास रोग की दवा हो जाती है। व्यंग्य-पुस्तकों की भी यही स्थिति हो गई है। वे भी इन एक्सपाइरी रचनाओं से भरी रहती हैं। मेरा प्रकाशक व्यंग्य संग्रह मांगता है और मैं हर तीसरे महीने अपना सामयिक व्यंग्य लेखन का संग्रह पकड़ा देता हूं। वह सोचता है पुराना नामी-गिरामी लेखक है, इसलिए इसका लिखा सब बिक जाएगा। दरअसल हो भी यही रहा है कि सरकारी खरीद में कुछ नहीं देखा जाता, केवल कमीशन की मोटी रकम से प्रकाशक करोड़ों का व्यारा-न्यारा कर रहा है। इसलिए पुस्तक छपास भी मेरी मिट जाती है। इन दिनों में तो हो रहे आंदोलन, अनशन और धरना-प्रदर्शन भी मेरे खूब काम आ रहे हैं। राजनेताओं के बेवकूफीपूर्ण बयान तो रोज काम आते हैं। कोई क्षेत्रीयता भडक़ा रहा है तो कोई अपाहिज होकर मौनी बाबा हो रहे हैं।
कोई प्रधानमंत्री बनने के सपने संजो रहा है तो कोई तीसरा मोर्चा बनाकर अगले चुनाव में मैदान मारने की योजना बना रहा है। इधर कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा और अकाल, ये भी मेरी रोजी-रोटी के साधन बन गए हैं। हालांकि मुझे अपने बिजनिस सीक्रेट बताने नहीं चाहिए, लेकिन यह भी एक विषय है, मेरी छपास इसे भी छोडऩा नहीं चाहती। यह भी आज की बड़ी विसंगति है और जैसा कि मैंने बताया कि मैं विसंगति को इग्नोर नहीं कर सकता। ऐसे लेखन की चिंता वे व्यंग्य लेखक और आलोचक कर रहे हैं, जो न तो ऐसा लिख पा रहे और जो लिखते हैं, वह छप नहीं पाता, तो वे छोटी पत्र-पत्रिकाओं में अपनी भड़ास निकालते रहते हैं। लेकिन मैं इन आलोचनाओं से बेपरवाह अपना लक्ष्य साधने में लीन हूं। मुझे व्यंग्य में मील का पत्थर तो गाडऩा नहीं है, इसलिए गंभीर-स्थायी व्यंग्य लेखन असल में मेरे बस की बात भी नहीं है। पत्नीवादी व्यंग्य, प्रेमी-प्रेमिका के प्रसंग और सामाजिक-राजनीतिक बुराई पर स्थाई प्रहार करने वाले सदाबहार व्यंग्य पर समाचारपत्र-पत्रिकाओं की आवश्यकता नहीं है। कालजयी रचनाएं चारपाई के नीचे पड़ी कराह रही हैं। उनका हाल-चाल पूछने वाला कोई नहीं है।
पूरन सरमा
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal
Rani Sahu
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