सम्पादकीय

आ गई एमसीआई

Rani Sahu
23 Jun 2023 2:27 PM GMT
आ गई एमसीआई
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By: divyahimachal
हिमाचल में स्वास्थ्य सेवाओं के पिछले दो दशक हालांकि मेडिकल कालेजों की फेहरिस्त बढ़ाते रहे हैं, लेकिन इसी दौरान डाक्टरों की टोपियां बदल-बदल कर ये संस्थान जैसे तैसे चलाए गए। नतीजन यह अवधि चिकित्सा सेवाओं के संस्कारों का ऐसा पतन लिख गई कि ‘ईंटें बहुत हैं इन दीवारों में, मगर कोई बताता नहीं कि घर कब बसेगा’। आफत यह रही कि हर नए मेडिकल कालेज के अस्तित्व को लेकर भारतीय चिकित्सा परिषद (एमसीआई) बनाम स्वास्थ्य विभाग के बीच ‘खो खो’ का मैच चलता रहा। एमसीआई साल भर की मान्यता के पैमाने में टोह लेती रही और इधर हिमाचल का स्वास्थ्य विभाग आंख मिचौनी करके हर निरीक्षण-परीक्षण में डाक्टरों को इधर से उधर करता रहा। यानी हिमाचल के स्वास्थ्य विभाग ने अपने कारनामों से यह पता नहीं चलने दिया कि वह मेडिकल कालेजों का ऐसा अभिभावक है जो चुन्नू की फ्रॉक मुन्नू को पहनाते-पहनाते, बेगानी शादी में अबदुल्ला (डाक्टर) को दीवाना बना चुका है।
आश्चर्य यह कि डाक्टरों के काफिले चले बहुत, लेकिन पहुंच कहीं नहीं। परिणाम यह है कि चंबा मेडिकल कालेज में बिना फैकल्टी के भी कई विभागों ने डाक्टर बनाने का कारनामा कर दिया। इसलिए अब एमसीआई ने नए मेडिकल कालेजों की मान्यता में हाजिरी रजिस्टर के बजाय बायोमीट्रिक अटेंडेंस की शर्त नत्थी कर दी है। कुल छह सरकारी, एक गैर सरकारी मेडिकल कालेज, बिलासपुर एम्स, मंडी मेडिकल यूनिवर्सिटी तथा ऊना में पीजीआई सेटेलाइट सेंटर के साथ हिमाचल को चिकित्सा सेवाओं का स्तंभकार होना चाहिए था, लेकिन हुआ इसके विपरीत। टांडा मेडिकल कालेज बना तो कुछ रगड़ा आईजीएमसी को लगा, लेकिन बाद की व्यवस्था ने आसपास के कई अस्पताल और मुख्य रूप से अंग्रेजी शासन के वक्त में स्थापित और आधे हिमाचल को स्वास्थ्य सेवाएं देते आए धर्मशाला के जोनल अस्पताल को ही निगल लिया। इसके बाद चंबा, हमीरपुर, नाहन तथा नेरचौक मेडिकल कालेजों की स्थापना ने टीएमसी की परिपक्वता को शहीद करके अपनी मांग के अनुसार तमाम डाक्टरी योग्यता को अस्थिर कर दिया। हर नए मेडिकल कालेज ने प्रत्यक्ष में तो कुछ हासिल नहीं किया, लेकिन परोक्ष में प्रदेश पहले से स्थापित चिकित्सा सेवाओं से ऐसी छीना झपटी की कि आज जोनल, क्षेत्रीय व नागरिक अस्पतालों के भीतर खाली पदों से जनता का द्वंद्व जारी है। कहीं सर्जन नहीं, तो कहीं मेडिसिन के डाक्टर नहीं। हद तो यह कि जहां विशेषज्ञ भेजे भी जा रहे वहां एक ही डिपार्टमेंट में अनेक लाद दिए जा रहे। जोनल अस्पताल धर्मशाला में आर्थो, मेडिसिन के डाक्टर नहीं, लेकिन चर्म रोग के जरूरत से ज्यादा विशेषज्ञ इक कर दिए गए।
पालमपुर में शिशु विशेषज्ञ नहीं, तो नूरपुर में मातृ-शिशु अस्पताल बसने से पहले उजडऩे लगा है। दरअसल राजनीति ने हमें यह तो सिखा दिया कि नेताओं के सेहरे पर शिक्षा व चिकित्सा के बड़े-बड़े संस्थान सुशोभित होने चाहिएं, लेकिन इतिहास साक्षी है कि इस अंदाज ने गुणवत्ता का चीरहरण कर दिया। हिमाचल के निजी व सरकारी मेडिकल कालेजों तथा एम्स के वजूद में आने पर आठ सौ से कहीं अधिक एमबीबीएस डाक्टर हर साल निकलेंगे, तो इस रथयात्रा का सारथी कौन होगा। क्या सरकार के संसाधन इस काबिल हैं कि अस्पतालों, मेडिकल कालेजों व डाक्टरों के संसार को निरंतर प्रश्रय देते हुए काबीलियत व दक्षता का मुकाम हासिल होगा। यह इसलिए भी कि एक मेडिकल कालेज की असफलता से उसी की परिधि में कई निजी अस्पताल उग आते हैं। कांगड़ा, ऊना, सोलन, मंडी व प्रदेश के कमोबेश हर शहर में निजी अस्पतालों का साम्राज्य पूरे प्रयत्न मेें है कि सामने खड़े सरकारी अस्पताल और मेडिकल कालेज ध्वस्त हों और यह होने लगा है। ऐसे में एमसीआई की जद में आए चंबा, हमीरपुर, नाहन व नेरचौक मेडिकल कालेजों को अब जबकि बायोमीट्रिक हाजिरी के तहत स्थाई फैकल्टी के रूप में डाक्टर व अन्य स्टॉफ चाहिए होगा, तो इससे फिर चिकित्सा का ही ढांचा हिलेगा।
Rani Sahu

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