सम्पादकीय

मायावती का ब्राह्मण कार्ड: अपनी राजनीतिक जमीन पूरी तरह खो चुकी बसपा 2007 के नतीजे को दोहराना चाहती है

Rani Sahu
13 Sep 2021 6:47 AM GMT
मायावती का ब्राह्मण कार्ड: अपनी राजनीतिक जमीन पूरी तरह खो चुकी बसपा 2007 के नतीजे को दोहराना चाहती है
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बसपा प्रमुख मायावती ब्राह्मण समुदाय को अपने पाले में लाने के लिए खुलेआम जिस तरह की कोशिशें कर रही हैं

अजय बोस । बसपा प्रमुख मायावती ब्राह्मण समुदाय को अपने पाले में लाने के लिए खुलेआम जिस तरह की कोशिशें कर रही हैं, उसका लक्ष्य अगले साल होने वाले उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में घड़ी के कांटे को उल्टी दिशा में मोड़ना है।

यह दलित नेत्री दरअसल 2007 के नतीजे को दोहराना चाहती हैं, जब विधानसभा चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश में शुरू की गई कुछ ब्राह्मण भाईचारा बैठकों ने समाज के उच्च और निम्न वर्गों के बीच एक अप्रत्याशित गठजोड़ पैदा कर दिया था, जिसके जरिये मायावती के नेतृत्व वाली बहुजन समाज पार्टी को शानदार चुनावी जीत हासिल हुई थी। बहनजी के नजदीकी साथी सतीश चंद्र मिश्र, जो खुद एक ब्राह्मण हैं, करीब डेढ़ दशक पहले बने उस राजनीतिक समीकरण के निर्माता थे, तो आज भी वह मायावती के प्रमुख रणनीतिकार हैं।
पिछले एक दशक में अपनी राजनीतिक जमीन पूरी तरह खो चुकी बसपा ने विगत कुछ महीने से एक बार फिर प्रबुद्ध सम्मेलनों के जरिये ब्राह्मण कार्ड खेलने में तेजी दिखाई है, जो लगभग डेढ़ दशक पुरानी ब्राह्मण भाईचारा बैठकों का ही नया स्वरूप है। इन प्रबुद्ध सम्मेलनों के आयोजनों में सतीश चंद्र मिश्र के साथ इस बार उनके बेटे कपिल और दामाद परेश भी मददगार हैं, और वे उम्मीद कर रहे हैं कि इन सम्मेलनों के जरिये बसपा विधानसभा चुनाव में राज्य के 12 फीसदी ब्राह्मणों का वोट हासिल करने में कामयाब होगी।
हाल ही में ऐसा एक प्रबुद्ध सम्मेलन लखनऊ में हुआ, जहां खुद मायावती ने मौजूदा भाजपा सरकार के अराजक शासन में ब्राह्मणों की सुरक्षा का मुद्दा उठाया। उन्होंने मारे गए अपराधी सरगना अमर दुबे की सत्रह वर्षीया पत्नी खुशी दुबे की राज्य पुलिस द्वारा हाल ही में की गई गिरफ्तारी का मुद्दा उठाते हुए कहा कि किशोरी होने के बावजूद पुलिस प्रशासन खुशी दुबे को जमानत नहीं दे रहा, ऐसे में, उनकी पार्टी यह कानूनी लड़ाई लड़ेगी। लखनऊ के प्रबुद्ध सम्मेलन को इसलिए भी बेहद महत्वपूर्ण बताया गया, क्योंकि लंबे समय बाद बसपा के किसी कार्यक्रम में इतनी भीड़ जुटी थी, लिहाजा इसे अगले साल के चुनाव के मद्देनजर बसपा की मुहिम की शुरुआत माना जा रहा है।
इसके बावजूद कई ऐसे कारण हैं, जिनसे यह लगता है कि अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में ब्राह्मण कार्ड मायावती के लिए उतना कारगर साबित नहीं होने वाला, जितना कि वह पंद्रह साल पहले हुआ था। उस वक्त ब्राह्मणों के बसपा के साथ आने की वजहें थीं। दरअसल डेढ़ दशक पहले उत्तर भारत मंडल आंदोलन के बाद की हलचलों की गिरफ्त में था, और समाज का उच्च वर्ण-तथा उनमें भी खासकर ब्राह्मण समुदाय पिछड़ी जातियों के उत्थान से सहमा हुआ था। इसी वजह से उत्तर प्रदेश के ब्राह्मणों ने यादवों के वर्चस्व वाली समाजवादी पार्टी को रोकने के लिए, मुलायम सिंह जिसके नेता थे, मायावती के साथ होने का फैसला किया था, जिनके पास दलितों का भारी समर्थन था। उस फैसले की एक वजह यह भी थी कि ब्राह्मण समुदाय तब यादवों के नेता मुलायम सिंह यादव को अपने लिए एक बड़ा खतरा मानता था। हालांकि ऐसे में, इस महत्वपूर्ण तथ्य की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए कि वर्ष 2007 में बसपा को मिली शानदार जीत से पहले ही भाजपा के ब्राह्मण नेतृत्व ने कांग्रेस के मौन समर्थन से सूबे में मायावती के नेतृत्व में एकाधिक बार अल्पमत सरकारें बनवाईं, ताकि सपा को सरकार बनाने से रोका जा सके।
लेकिन तब से अब तक उत्तर प्रदेश में बहुत कुछ बदल चुका है। एक तो यही कि मायावती और उनकी पार्टी अब अपने सुनहरे अतीत की छाया भी नहीं रह गई हैं। इसके अलावा न केवल गैर जाटव सहित दूसरी निचली जातियों में बहनजी का असर कम हुआ है, बल्कि जो जाटव उनके मुख्य वोटर थे, उसकी युवा पीढ़ी भी अब तुलनात्मक रूप से ज्यादा आक्रामक व ऊर्जावान नेता चंद्रशेखर आजाद और उनकी भीम आर्मी से जुड़ रही है।
फिर जहां तक मुस्लिम मतदाताओं के बीच बहनजी के प्रभाव की बात है, तो यह याद रखना चाहिए कि पिछले विधानसभा चुनाव के समय मायावती ने खुद मुसलमानों को रिझाने की पहल की थी। लेकिन मुस्लिमों के बीच मायावती का असर अब नगण्य रह गया है। इसकी वजह मुस्लिम समुदाय में पनपी यह धारणा है कि बहनजी ने केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के सामने आत्मसमर्पण कर दिया है। सतीश चंद्र मिश्र ने रामलला की आराधना करने के बाद अयोध्या से प्रबुद्ध सम्मेलन की जिस तरह शुरुआत की, उससे दुर्योग से मुस्लिमों की बसपा के बारे में बनी यह धारणा और मजबूत ही हुई है।
लखनऊ स्थित एक राजनीतिक विश्लेषक ने, जो संयोग से ब्राह्मण हैं, इन पंक्तियों के लेखक को यह कहा, 'आज मायावती की छवि विजेता जैसी कतई नहीं है। यही कारण है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा ठाकुरों को वरीयता देने और भाजपा के ब्राह्मण वोटों की उपेक्षा करने के कारण राज्य का ब्राह्मण समुदाय भाजपा को विधानसभा चुनाव में सबक तो सिखाना चाहता है। लेकिन वह यह भी महसूस करता है कि आगामी चुनाव में मायावती की तुलना में अखिलेश यादव भाजपा को पराजित करने में कहीं अधिक सक्षम हैं। इसलिए भाजपा से रूठा हुआ ब्राह्मण समुदाय बसपा के साथ जाने के बजाय सपा के साथ जाना पसंद करेगा।'
दूसरी तरफ राज्य के एक चर्चित दलित विश्लेषक का यह मानना है कि सतीश चंद्र मिश्र के नेतृत्व में हो रहे प्रबुद्ध सम्मेलनों की वजह से दलितों का बसपा से मोहभंग आने वाले दिनों में और व्यापक आकार लेगा। 'अनेक दलितों का यह भी मानना है कि बसपा के संस्थापक मान्यवर कांशीराम की प्रमुख दलित वैचारिकता से पीछे हटते हुए प्रबुद्ध सम्मेलनों का आयोजन कर सतीश चंद्र मिश्र पार्टी सुप्रीमो मायावती को गुमराह ही कर रहे हैं', वह कहते हैं। सबसे अधिक हैरान करने वाली बात यह है कि एक मामले में ब्राह्मण और दलित विश्लेषकों की सोच समान है। मसलन, ये दोनों मानते हैं कि अगले वर्ष होने वाले उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में बसपा और भाजपा के बीच कोई गोपनीय सौदेबाजी हो सकती है।
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