सम्पादकीय

चुनाव में मायावती इसलिए हारीं क्योंकि वक़्त के साथ उन्होंने अपनी राजनीति में बदलाव नहीं किया

Gulabi Jagat
23 March 2022 8:02 AM GMT
चुनाव में मायावती इसलिए हारीं क्योंकि वक़्त के साथ उन्होंने अपनी राजनीति में बदलाव नहीं किया
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Tata School of Social Sciences के डीन अश्वनी कुमार का कहना है कि मायावती आत्म-विनाश की ऐतिहासिक मिसाल हैं
कार्तिकेय शर्मा।
भारतीय राजनीति (Indian Politics) में मायावती (Mayawati) का जिस तरह से पतन हुआ है, वह इस बात का बेहतरीन उदाहरण है कि एक राजनीतिज्ञ को क्या नहीं करना चाहिए. मायावती ने, सामाजिक मुद्दों से जुड़े दलित संगठन बहुजन समाज पार्टी (BSP) को सफलतापूर्वक एक राजनीतिक पार्टी में तब्दील किया. जबकि महाराष्ट्र के अंबेडकरवादी राजनेता यह काम करने में नाकाम रहे. 1990 के बाद, मायावती एक बार नहीं, बल्कि तीन बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं. लेकिन 22 वर्ष बाद, आज की तारीख में मायावती की राजनीति एक तरह से खत्म हो चुकी है. बीएसपी की राजनीति, परिवारवाद और भ्रष्टाचार के आरोपों से दागदार हो चुकी है. किसी वक्त सफलतापूर्वक सरकार चलाने और राज्य में कानून-व्यवस्था को दुरुस्त करने के उनकी कोशिश को आज कोई याद नहीं करता.
Tata School of Social Sciences के डीन अश्वनी कुमार का कहना है कि मायावती आत्म-विनाश की ऐतिहासिक मिसाल हैं. वे कहते हैं, "मायावती अपने आप को नए अंदाज नहीं पेश कर पाईं. वह एक चमत्कारी महिला से रहस्यमयी महिला में बदल गईं. वह सुशासन जैसी नई व्यवस्था में अपनी राजनीति को दोबारा संगठित नहीं कर पाईं. बीजेपी के विकासवादी हिंदुत्व के आगे वह हार गईं." आज उत्तर प्रदेश की अधिकतर आरक्षित सीटें बीजेपी के खाते में जा चुकी हैं.
उत्तर प्रदेश में आरएसएस ने जमीन पर किस तरह काम किया?
बीते 25 वर्षों के दौरान, राज्य की राजनीति में यादवों का दबदबा हो गया. यादवों के इसी दबदबे ने दलितों के बीच असुरक्षा की भावना को जन्म दिया. राज्य में कानून-व्यवस्था को दुरुस्त करते हुए योगी आदित्यनाथ ने दलितों को सुरक्षा का माहौल दिया. ध्रुवीकरण के साथ-साथ बीजेपी के बुलडोजर वाले नारे ने उन समुदायों को सकारात्मक संदेश दिया जो प्रमुख पिछड़ी जाति (यादव) से खतरा महसूस करते थे.
इसके अलावा, आरएसएस के कार्यकर्ता चौबीसों घंटे सामाजिक कार्यों से जुड़े रहे. प्रोफेसर बद्री नारायण का कहना है कि हिंदुत्व भी एक सोशल प्रोजेक्ट है, और आज के दौर में राजनीतिक पार्टियों को सोशियो-पॉलिटिकल होना होगा और वे केवल चुनावी चक्र तक सीमित नहीं रह सकतीं. वे कहते हैं, "दलित राजनीति महज एक प्रतीक से आगे निकल चुकी है. RSS ने जमीन पर काम किया, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि दलित सम्मान की रक्षा की जाए और हिंदुत्व आधारित राजनीति में उसे सम्मानित स्थान हासिल हो सके. हिंदुत्व की अवधारणा के भीतर आज दलितों ने अपना राजनीतिक स्थान प्राप्त कर लिया है."
बद्री नारायण कहते हैं कि दलित छात्रों के लिए आज भी शिक्षा हासिल करना एक समस्या है, लेकिन जब आरएसएस सरस्वती शिशु मंदिर चलाता है तो वह दलितों को इसमें शामिल करता है, इससे ये दलित सीधे तौर हिंदुत्व के दायरे में आ जाते हैं. वे कहते हैं कि इसी वजह से हाशिए पर रहे कई समुदायों के लिए हिंदुत्व एक ऐसी विचारधारा बन चुकी है, जिसकी छत्रछाया में सभी शामिल हो सकते हैं. वे आगे कहते हैं कि आरएसएस ने गांव के स्तर पर काम किया, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि हाशिए पर रहे समुदाय के मंदिरों का ध्यान रखा जाए और सार्वजनिक तालाबों और उद्यानों तक उनकी पहुंच पर किसी तरह की बाधा न आए.
परिवारवाद इन पार्टियों को कमज़ोर कर देता है
मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजनीति को जिस नए तरीके से परिभाषित किया है उसने यूपी में एसपी और बीएसपी को खत्म कर दिया और यह तरीका लोकसभा चुनावों में भी इन मजबूत क्षेत्रीय दलों को कुचल सकता है. मोदी ने परिवारवाद के नारे को दोबारा जीवित कर दिया. उदारवादी होने दावा करने वाली हर पार्टी वंशवादी बन चुकी है. प्रधानमंत्री इस 'मूल्यविहीन' राजनीति पर हमला कर रहे हैं क्योंकि कांग्रेस भी इतनी कमजोर चुकी है कि वह राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी का सामना करने के लायक नहीं है.
राज्य स्तर पर क्षेत्रीय पार्टियां बीजेपी से लड़ सकती हैं, लेकिन परिवारवाद की राजनीति उन्हें बांधकर कर रख देती है. इससे बीजेपी को उन्हें राजनीति तौर पर कमजोर करने में मदद मिल जाती है. शायद, मायावती ने यह सोचा होगा कि अपना जन्मदिन मनाकर और बड़े-बड़े पार्क बनाकर, वह दलित वोटरों को अपने साथ रख सकती है. लेकिन उनकी यह सोच काम न आई. हालांकि, मायावती की राजनीतिक गिरावट का यह अर्थ नहीं है कि उत्तर प्रदेश से दलित राजनीति का अंत हो चुका है. इसका मतलब यह कि चुनावी दलित राजनीति में दिलचस्पी रखने वाली पार्टियों को अब अपने आप को पुनर्परिभाषित करना होगा.
इसी वजह से, मायावती केवल अपना बेस वोट हासिल कर पाईं, जो कि 13 फीसदी है. सेंटर फॉर लेबर स्टडीज, स्कूल ऑफ मैनेजमेंट एंड लेबर स्टडीज में असिस्टेंट प्रोफेसर और चेयरपर्सन डॉ. वर्षा अय्यर के मुताबिक, "अब उनकी स्थिति बदलने की संभावना नहीं है. एक सफल दलित राजनीतिक संगठन एक बार फिर बाधा उत्पन्न करने वाला संगठन बन चुका है. उनके स्थिति जल्द बदलने की संभावना नहीं दिखती."
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक निजी हैं.)
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