सम्पादकीय

मैया मोहे 'बजटऊ' बहुत सतायो

Rani Sahu
17 Feb 2022 7:09 PM GMT
मैया मोहे बजटऊ बहुत सतायो
x
भगवान श्रीकृष्ण को पहले उनके बड़े भैया दाऊ बहुत खिझाते थे

भगवान श्रीकृष्ण को पहले उनके बड़े भैया दाऊ बहुत खिझाते थे। परंतु भगवान अब बड़े भाई से इतने दुखी-परेशान नहीं हैं, जितने सरकार के बजट से हैं। वे आजकल अपनी माताश्री से बजट की शिकायत करते देखे जा सकते हैं। बजट के सामने माता भी लाचार है, वह भी कुछ नहीं कर सकती। सरकार जो कर दे, उसमें कोई अमैंडमैंट भी वह नहीं करवा सकती। सरकार है कि चाहे जिस पर टैक्स लगा दे और चाहे जिसको उबार दे। इस बार बजट आया तो भगवान के भक्त चारों खाने चित्त। केवल कमाने-खाने की चिंता और भगवान की भक्ति दिनों-दिन कम होने का क्रम, यही उनके संताप का कारण है। पहले हम रेल बजट को ही लें। मान लीजिए यात्री किराया बढ़ गया, लेकिन रेल दुर्घटना हुई तो पचास-सौ यात्री जान से हाथ धो बैठे। मरने वालों के परिवारजनों की कारुणिक पुकार के सामने ईश्वर किंकर्त्तव्यविमूढ़! समझ में नहीं आता स्वयं भगवान के कि किसकी सहायता की जाए और किसकी नहीं? क्योंकि भगवान की भक्ति आजकल दुःख में होने लगी है। जब तक सब पटरी पर हैं, कोई उसे याद भी नहीं करता। इधर पटरी से उतरे और ईश्वर की भक्ति उपासना शुरू। बढ़ा हुआ रेल किराया देते समय भी प्रभु से प्रार्थना कि 'हे भगवान यह तूने क्या कर दिया'। करती है सरकार और दोष भगवान को। माल ढ़ोने वाली मालगाडि़यों का भाड़ा बढ़ते ही हर चीज महंगी। महंगी का मतलब महंगाई! अब बताइए महंगाई में आम आदमी या तो भगवान को कोसेगा अथवा उसके लफड़े में पड़कर भगवान को भूल जाएगा। दोनों ही स्थितियां भगवान को दारुण दुःख देने वाली हैं। अब आइए आम बजट पर। आम बजट हमेशा गरीबी और अमीरी की खाई को चौड़ा करता है। खाद्य सामग्री महंगी, सुख-सुविधाएं महंगी, आयकर की रेंज न बढ़ाकर ऊपर से टैक्स का प्रतिशत और बढ़ा देना, दोनों ही घनघोर त्रासद। अमीर इस हालात में ज्यादा मुनाफाखोरी करता है और गरीब उपभोक्ता की शामत।

भगवान फिर 'त्रिशंकु' होकर रह गए। दो चीजें हो रही हैं- एक तो यह कि आदमी भगवान को भूल रहा है, दूसरी यह कि भगवान के मंदिरों में भक्तों (दुःखीजनों) की भीड़ बढ़ रही है। दो कान वाले भगवान आखिर किस-किस की सुनें। पहले साधु-संन्यासी होते थे, निर्जन जंगलों में जाकर भगवान के लिए भक्ति करते थे और दिव्य शक्तियां प्राप्त कर अपना जीवन बाद में जनसेवा में लगा देते थे। अब तो जंगल रहे ही कहां? जंगलों में सरकारों ने आवासीय कालोनियां काट दी हैं तथा प्रोपर्टी के व्यवसाय में वारे-न्यारे हो रहे हैं। इसलिए भगवान की साधना का पैमाना एकदम नीचे आ गया। आदमी की सांस बजट आने के एक सप्ताह पहले ही फूलने लगती है। पता नहीं बजट का और उसकी आय का तालमेल बैठेगा या नहीं। आयकर की रेंज बढ़ा भी दी गई तो दूसरे मदों पर करों के कोड़े लगाकर सारी वसूली कर ली जाती है। घाटे के बजट में यही सब तो चलता है। कल्याणकारी राज की कल्पना अब मात्र कल्पना है। वास्तविकता का धरातल बहुत कठोर है। तो यह वजह भी भगवान को सताने वाली हुई न? गरीब को और बीपीएल को दाल-रोटी ही नहीं तो आदमी बिलबिलाएगा, न कि भक्ति-उपासना करेगा। दाऊजी श्री कृष्ण को अब यों चिढ़ाते हैं- 'ठीक रहा न भैया, मैं तो अब तुम्हें नहीं सता रहा। सताने वाली तो यह सरकार है, जो तुम्हारे भक्तों को दुःखी करके तुमसे दूर कर रही है। अब बोलो अम्मा से कि अम्मा इस कठोर बजट ने तुम्हें बहुत सताया है। दूध-घी की नदियां बहने वाले भारतवर्ष में शराब की नदियां भर गई हैं।'
पूरन सरमा
स्वतंत्र लेखक


Next Story