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- माया मरी न मन मरा
स्वरांगी साने: कबीरदास की इन पंक्तियों के याद आने की वजह तीन साल पहले की स्मृतियों का यकायक आ जाना है। वैश्विक आपदा ने कितना कुछ तहस-नहस किया था, कई लोग मारे गए, लेकिन तब भी न माया मरी, न मन, न आशा, न तृष्णा। यह हमारा आर्थिक असुरक्षा, सामाजिक भेदभाव और भयावह आपदा का ताजा सामूहिक इतिहास है। इस दौर में कुछ बचाया जा सकता था, बचाया जा सकता है तो वह है हम अलग क्या कर सकते हैं! आज हम जहां हैं, वही हमारे अलग होने, बचे रहने की पहचान है।
सामूहिक संघर्ष के दौर से गुजरने के बाद सामूहिक जीत हासिल करने की ओर बढ़ना होगा। जीत के पथ पर बने रहने के लिए दृढ़ता से अपने आपसे और समाज के प्रति ईमानदार रहना होगा, ताकि दुनिया के सामने अपने कार्यों को सम्मानपूर्वक तरीके से पेश किया जा सके। भले ही इसके लिए एक कदम पीछे हटना पड़े तब भी चलेगा। शेर भी ऊंची छलांग लगाने से पहले थोड़ा पीछे हटता है।
धनुष की प्रत्यंचा की डोरी भी जितनी पीछे खींची जाती है, तीर उतना आगे छूटता है। अगर लोगों की नजर में वह पलायन भी हुआ, तब भी लकीर से हटकर एकांत में अकेले बैठना और सोचना चाहिए, फिर आगे बढ़ना चाहिए। पीठ पीछे जो लोग फरेब कर रहे होते हैं, उन्हें भी पलटकर पीछे मुड़ने पर ही देखा जा सकता है। कुछ समय के लिए पीछे हटना अंतिम सत्य नहीं होता।
दीर्घावधि के लक्ष्य को पाने के लिए अल्पावधि के लिए झुकना भी पड़ जाए तो उसे झुकना, टूटना, हारना नहीं कहा जा सकता। किसी को लंबे समय बाद पता चले कि आप गलत राह पर थे या जिनके साथ आप चल रहे थे वे गलत लोग थे, तो वह बहुत पीड़ादायी होगा। उससे पीछे जाने और फिर आगे की यात्रा दुबारा तय करने का कष्ट सहा जा सकता है।
अगर हम बेईमान लोगों की संगत में हैं और वे हमसे भी बेईमानी करवाना चाहते हैं, तो बेहतर है, थोड़ा रुक कर दुबारा सोचा जाए। विश्वास हासिल करने में सालों लग जाते हैं और अस्थायी लाभ के लिए झूठ का सहारा लेना बिल्कुल भी सही नहीं है। अगर हमने सोचने-परखने के लिए कुछ समय नहीं दिया तो आने वाले परिणाम बड़े घातक और भयंकर हो सकते हैं।
वैश्विक आपदा ने भी हमें थोड़ा रुकने, कुछ सोचने का अवसर दिया था। अब गहरी सांस लेने के बाद डायरी लिखना शुरू कर देना चाहिए। अपने आपसे सवाल पूछना चाहिए कि हम बेईमानी को प्रथम स्थान पर रखना क्यों चाहते हैं? अगर हमें इस सवाल का जवाब नहीं मिल रहा है तो किसी ऐसे को तलाशना चाहिए जो इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने में हमारी मदद कर पाए।
इच्छा शक्ति का न होना, उत्साह या अपने आसपास होने वाली घटनाओं के प्रति लापरवाह होना, उनके प्रति अरुचि रखना अच्छा लक्षण नहीं है। तृष्णा या किसी चीज की प्यास नहीं होनी चाहिए, लेकिन उदासीन हो जाना घातक है। इसे अपने जीवन से निकाल डालना चाहिए। भीड़ से अलग होना मतलब भीड़ से अलग हटकर कुछ काम करना है, न कि अपने आपको ही अलग-थलग कर लेना।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, इस सत्य को किसी भी स्थिति में भुलाया नहीं जा सकता, क्योंकि यह हमारे मनुष्य होने का जरूरी और आवश्यक सत्य है। जो लोग समाज से कट जाते हैं, वे मानसिक तौर पर बीमार हो जाते हैं। हमें समाज में रहते हुए ही इस तरह कार्य करना है कि हम पर समाज का प्रभाव हावी न हो। जैसे कमल के पत्ते निर्लेप होते हैं, उन पर पानी की बूंदें नहीं टिकतीं।
हम अपने प्रति कितने ईमानदार हैं, इसे परखा जा सकता है। हम फल क्यों नहीं खरीदते? एक मासूम जवाब होगा कि फल महंगे होते हैं। लेकिन सस्ता हुआ केला तो लिया जा सकता है! मौसमी फलों की बहार इतनी महंगी नहीं होती। मान लीजिए एक समोसा की औसत कीमत दस से बारह रुपए है। हम चीकू लेना टालते हैं क्योंकि चीकू के भाव तीस रुपए प्रति पाव है।
पर भूल जाते हैं कि एक पाव में लगभग तीन-चार चीकू आ जाते हैं। इस तरह एक चीकू की कीमत सात-आठ रुपए से अधिक नहीं होगी। एक चीकू खाकर समोसे के बराबर पेट भरा जा सकता है। पर हम समोसा खरीदते हैं, क्योंकि वह हमारी जेब या सेहत के अनुकूल है, बल्कि इसलिए कि वह हमारी जीभ और स्वाद के अनुकूल है।
ईमानदार बनना चाहिए, अपने कार्यों को दूसरों से हटकर करने की कोशिश करते रहना चाहिए और जीने की आस को बने रहने देना चाहिए। तृष्णा नहीं रखनी, पर उदासीन भी नहीं बनना है। सच के अनुकूल जीना चाहिए। लंबे समय तक सेहतमंद भोजन न लेने पर हम बीमार पड़ते हैं तो उसका कोई तात्कालिक कारण खोजने की जरूरत नहीं है। कारणों और हालात के प्रति ईमानदार हो जाया जाए, फिर आने वाला वक्त अपना होगा।
क्रेडिट : jansatta.com