सम्पादकीय

परिपक्व रुख की जरूरत

Triveni
1 May 2021 12:54 AM GMT
परिपक्व रुख की जरूरत
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सुप्रीम कोर्ट ने सरकारों को चेताया है कि वे नागरिकों को अपनी तकलीफें सार्वजनिक करने के लिए प्रताड़ित न करें।

जनता से रिश्ता वेबडेस्क | सुप्रीम कोर्ट ने सरकारों को चेताया है कि वे नागरिकों को अपनी तकलीफें सार्वजनिक करने के लिए प्रताड़ित न करें। सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने ऐसी खबरों का खुद ही संज्ञान लिया है, जिनके मुताबिक राज्य सरकारें उन लोगों या संस्थानों को सजा देने की बात कर रही हैं, जो इलाज न मिलने या ऑक्सीजन की कमी होने की बात सोशल मीडिया पर डाल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने खुद भी सवाल उठाया है कि मरीजों या उनके परिजनों को दवाओं के लिए यहां-वहां क्यों भटकना पड़ रहा है? दरअसल, कोविड-19 में इस्तेमाल होने वाली कुछ दवाएं आयात होती हैं और अचानक उनकी जरूरत बढ़ जाने पर आयात बढ़ाने व वितरण सुनिश्चित करने जैसे कदम उठाने में देर हो गई। यह सही है कि मीडिया या सोशल मीडिया पर कभी कुछ सनसनीखेज या भ्रामक बातें आ जाती हैं, लेकिन ऐसी बातों को रोकने के लिए अगर गैर-जरूरी सख्ती दिखाई जाती है, तो इससे नुकसान ज्यादा होता है। इससे एक तो लोग अपनी वास्तविक तकलीफ भी बताने से डर सकते हैं और इस बात की आशंका भी बढ़ जाती है कि प्रशासन में बैठे लोग ऐसे आदेशों का दुरुपयोग अपनी कमजोरी छिपाने के लिए कर सकते हैं। मीडिया या सोशल मीडिया पर संवाद के जरिए सूचना व सहायता का जो स्वत:स्फूर्त तंत्र विकसित हुआ है, वह कई तरह से लोगों की मदद कर रहा है और एक मायने में प्रशासन का हाथ भी बंटा रहा है। इसलिए उसे हतोत्साहित करना ठीक नहीं है। दुनिया तेजी से बदल रही है, लेकिन प्रशासन के कई तौर-तरीके पुराने हैं। मसलन, यह पुरानी सोच है कि कोई आपदा आए, तो सूचना को नियंत्रित करने के बारे में सोचा जाए, जैसे सौ साल पहले युद्ध या महामारी के दौर में तुरंत सेंसरशिप लगा दी जाती थी। पहले महायुद्ध के आखिरी दौर में सेंसरशिप की वजह से ही स्पेनिश फ्लू की खबरें प्रचारित नहीं हो पाईं और वह फैलती चली गई। बाद में भी सूचनाओं की कमी की वजह से उसके बारे में जानकारी जुटाना मुश्किल बना रहा और इसीलिए उसे 'भूला दी गई महामारी' की संज्ञा मिली। उस दौर में तो सूचना के साधन कम थे, इसलिए उन्हें नियंत्रित करना आसान था, लेकिन सूचना क्रांति के बाद यह काम व्यावहारिक रूप से भी बहुत कठिन है। वैसे भी, आधुनिक इतिहास से यही समझ आता है कि ऐसे नियंत्रण से नुकसान ज्यादा होता है, क्योंकि पाबंदी होती है, तो बेसिर-पैर की अफवाहों का खतरा बढ़ जाता है, जो ज्यादा घातक हो सकती हैं। खास तौर पर महामारी जैसी आपदा के दौर में पारदर्शिता और जनता को विश्वास में लेना सबसे अच्छी नीति है। इस आपदा से सरकार और जनता को मिलकर निपटना है, और अगर दोनों में विश्वास का रिश्ता होगा, तो यह सहयोग ज्यादा पुख्ता होगा। यह सही है कि लोग बहुत तकलीफ में हैं और उनकी तकलीफ सरकारों के प्रति गुस्से के रूप में फूट रही है। लेकिन परिपक्व प्रशासकों को इसे बर्दाश्त करना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि लोग सरकार से नाराज हैं, लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि उनका सरकार या व्यवस्था से भरोसा उठ चुका है। यदि सरकारें अपनी गलतियों या सीमाओं को स्वीकार करती हैं और जनता के गुस्से को स्वाभाविक मानकर बर्दाश्त करती हैं, तो इससे स्थिति सुधारने में सहयोग मिलेगा। जो हमारा साझा संकट है, उससे इसी तरह पार पाया जा सकता है।


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