सम्पादकीय

Matua Community: नागरिकता के भंवर में मतुआ समुदाय

Neha Dani
27 Dec 2022 2:08 AM GMT
Matua Community: नागरिकता के भंवर में मतुआ समुदाय
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राजनीतिक दलों द्वारा मतुआ समुदाय को लुभाने की कोशिशें हो रही हैं।
पश्चिम बंगाल में तीन करोड़ से ज्यादा की आबादी वाला मतुआ समुदाय नागरिकता के भंवर में फंसा हुआ है। भाजपा अपने इस वादे को जहां हर हाल में पूरा करवाना चाहती है, वहीं मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के मुताबिक, मतुआ समुदाय के पास अगर राशन कार्ड, वोटर कार्ड और आधार कार्ड जैसे कागजात हैं, तो उन्हें फिर अलग से नागरिकता कार्ड की जरूरत क्या है? इस तरह वह हर हाल में नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) को बंगाल में लागू नहीं करने का दम भरती हैं। बंगाल में मतुआ समुदाय अनुसूचित जाति की श्रेणी में आता है, जिसका राज्य के 70 से अधिक विधानसभा क्षेत्रों में प्रभाव है। उत्तर और दक्षिण 24 परगना, नदिया और कुछ दूसरे सीमावर्ती जिलों में इनकी आबादी है। 42 संसदीय क्षेत्रों में से 10 अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित हैं। पूरे वाम शासन के दौरान उच्च जातियों (ब्राह्मण, वैश्य और कायस्थ) को मिलाकर बने 'भद्रलोक' का दबदबा रहा और मतुआ समुदाय गुमनाम बना रहा।
वर्ष 2003 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार ने नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2003 लागू किया और इसके तहत 1971 के बाद 'अवैध प्रवासी' के रूप में आए लोगों को शरणार्थी घोषित किया गया। इससे मतुआ समुदाय में खलबली मची, क्योंकि उनमें से कई 1971 के बाद राज्य में आए थे। वर्ष 2019 में सीएए के जरिये भाजपा ने इस डर को खत्म करने की कोशिश की और मतुआ समुदाय की लंबित नागरिकता समस्या को हल करने का वादा किया। हालांकि, मतुआ समाज की दिवंगत बड़ी मां वीणापाणि देवी की पुत्रवधू ममता बाला ठाकुर तृणमूल खेमे में हैं। लेकिन 2019 के आते-आते मतुआ समुदाय का झुकाव ममता से हटकर मोदी की तरफ होने लगा। इस तरह मोटे तौर पर मतुआ समुदाय अब भी दो खेमों में बंटा हुआ लगता है। वैसे मतुआ लोग तृणमूल के रुख से सहमत नहीं हैं, क्योंकि पासपोर्ट बनवाते वक्त मतुआ समुदाय से मां-बाप के जन्मस्थान से जुड़े कागजात मांगे जाते हैं और इन्हें वापस अपने घर लौटना पड़ता है।
भाजपा भले ही खुले तौर पर कबूल नहीं कर रही हो, पर बंगाल में सीएए को लागू करने को लेकर उसमें थोड़ी हिचक भी है। दिसंबर, 2019 और जनवरी, 2020 के बीच सीएए और एनआरसी आंदोलन में बंगाल में जिस पैमाने पर हिंसा हुई, उससे अराजकता का माहौल बना। कहा गया कि प. बंगाल में सभी धर्मों के बीच सद्भाव की संस्कृति है, इसलिए मुस्लिम शरणार्थियों को नागरिकता से वंचित क्यों किया जाए? आरोप है कि सीएए हिंसा के लिए बंगाल में तृणमूल द्वारा मुस्लिम समुदाय को उकसाया गया। बंगाल के उत्तर 24 परगना का ठाकुर नगर मतुआ समुदाय का गढ़ है।
शुरुआती दौर से ही हरिचंद ठाकुर परिवार और बंगाल की राजनीति में करीबी रिश्ते रहे। परिवार के प्रथम रंजन ठाकुर 1962 में ही कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा चुनाव जीते थे। फिर ममता बनर्जी ने भी मतुआ माता या बोड़ो मां से नजदीकी रिश्ता बनाया, जिसकी वजह से 2011 के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी को जबर्दस्त फायदा हुआ। वर्ष 2014 में मतुआ माता के बेटे कपिल कृष्ण ठाकुर टीएमसी के टिकट पर लोकसभा चुनाव भी जीते। उनकी मौत के बाद उपचुनाव में टीएमसी ने उनकी पत्नी ममता बाला ठाकुर को टिकट देकर जिताया। मतुआ माता के छोटे बेटे मंजुल कृष्ण ठाकुर प्रधानमंत्री मोदी से प्रभावित होकर भाजपा में शामिल हो गए और 2019 के लोकसभा चुनाव में उनके बेटे शांतनु ठाकुर बनगांव से चुनाव जीतकर केंद्र में मंत्री बने।
इतिहास की तरफ देखें, तो मतुआ समदाय ने 1947 में मुस्लिमों के अत्याचार के कारण बांग्लादेश से पलायन शुरू किया और 1970 के दशक तक वे भारत के विभिन्न राज्यों में बसते गए। ओराकांडी, जहां हरिचंद ठाकुर (1812-1871) ने मतुआ समुदाय को संगठित कर दलित आंदोलन का बिगुल फूंका था, मतुआओं का आज भी महातीर्थ है। आज पश्चिम बंगाल में मतुआ समुदाय एक बड़ी राजनीतिक ताकत बनकर उभरा है, जिसके कारण 2024 के लोकसभा चुनावों के मद्देनजर राजनीतिक दलों द्वारा मतुआ समुदाय को लुभाने की कोशिशें हो रही हैं।


सोर्स: अमर उजाला

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