सम्पादकीय

ध्यान और बेध्यान की बातें

Subhi
21 Nov 2022 6:16 AM GMT
ध्यान और बेध्यान की बातें
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प्राय: घर के बड़े-बूढ़े सदस्य और आस-पड़ोस के लोग हमें बचपन से ही सिखाते रहे हैं कि ध्यान से सुनो, ध्यान से बोलो, ध्यान से पढ़ो, ध्यान से लिखो, ध्यान से देखो, ध्यान से उठो-बैठो, ध्यान से चलो, खाओ, पीओ। मतलब, सब काम ध्यान से करो। पर यह क्या कोई वस्तु है, जो हमें यों ही मिल जाएगी? यह है किस चिड़िया का नाम।

सुरेश कुमार मिश्रा 'उरतृप्त': प्राय: घर के बड़े-बूढ़े सदस्य और आस-पड़ोस के लोग हमें बचपन से ही सिखाते रहे हैं कि ध्यान से सुनो, ध्यान से बोलो, ध्यान से पढ़ो, ध्यान से लिखो, ध्यान से देखो, ध्यान से उठो-बैठो, ध्यान से चलो, खाओ, पीओ। मतलब, सब काम ध्यान से करो। पर यह क्या कोई वस्तु है, जो हमें यों ही मिल जाएगी? यह है किस चिड़िया का नाम।

आंख बंद किए साधु-संत की तस्वीर देख हम प्राय: पूछते हैं कि इन्होंने आंखें बंद क्यों की हैं, तो बदले में उत्तर मिलता है कि ये बड़े ज्ञानी-ध्यानी हैं, ध्यान लगा कर बैठे हैं। किसके ध्यान में बैठे हैं, तो जवाब मिला, भगवान जी के। इस दृष्टांत से यह सीखने को मिला कि ध्यान का मतलब आंखें बंद कर भगवान का स्मरण करना है।

यही प्रयास जब स्वयं आंख बंद कर ध्यान में बैठने की की, तो पता चला कि ध्यानावस्था तो दूर, उसके आसपास फटकने में भी हम सफल नहीं हो पा रहे हैं। आंखें बंद की तो मन न जाने कहां-कहां डोल आया। कल्पना लोक में यात्रा करते रहे और जो स्थान आंखें खुली होने पर भी नहीं दिखते थे, जिन्हें देखने की मनाही थी, वे सब भी इधर-उधर से आकर आसपास मंडराने लगे। कुल मिलाकर यह समझ आया कि केवल आंखें बंद कर लेने से ध्यान नहीं लगाया जा सकता है।

ध्यान आंखें बंद करने से आगे की चीज है। ध्यान तो जब लगता तब लगता, अभी तो किसी काम में मन भी लगना नहीं शुरू हुआ था। जिस-जिस बात को मना किया जाता, मन सबसे अधिक दौड़ वहीं की लगाता और जो-जो काम करने को सौंपे जाते, उनमें बिल्कुल नहीं लगता। मतलब, पाठ्यक्रम की किताबें छोड़ कर किस्से-कहानी में बहुत मन रमता और जैसे ही पढ़ाई करने को कहा जाता, मन उचट जाता। बेबात की बात खूब करवा लो, पर जैसे ही काम की बात होती, मन लाख लगाओ, लगता ही नहीं। अब मन ही मनमानी करे तो ध्यान बेचारे की क्या बिसात, जो घड़ी दो घड़ी लग जाए।

एक बार प्यार से समझाया भी गया, जब कोई बात कान खोलकर सुनी जाती है और कोई वस्तु आंख खोल कर, पलक झपकाए बिना देखी जाती है, तब उसे ध्यान से सुनना और देखना कहते हैं। अब हम तो किताब खोल कर खूब आंखें गड़ाए रहते, फिर भी परीक्षा में गोल-गोल बड़ा-सा अंडा ही मिलता। यानी खूब कान के पर्दे खोल कर बात सुनो, फिर भी बात अनसुनी रह जाती है और खूब आंखें खोल-खोल कर देखो, फिर भी बहुत-सा अनदेखा रह ही जाता है।

ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि कैसे ध्यान से सुना, बोला, पढ़ा, लिखा और देखा जाता है? कैसे काम में ध्यान लगाया जाता है? कैसे ध्यान से बात सुनी जाती है? प्रश्न तो वहीं के वहीं अटके रह गए। किताबी मनोविज्ञान और शिक्षा विषयों ने यह सिखाया कि जब आपकी रुचि और चेतना किसी व्यक्ति, वस्तु, भाव या स्थान में केंद्रित हो जाती है, उसे ध्यान कहा जाता है। ध्यान और रुचि एक सिक्के के दो पहलू हैं। जिस काम को ध्यान से किया जाता है, उसमें रुचि पैदा होती है और जिन कामों में रुचि होती है उनमें खूब ध्यान लगता है।

किसी वस्तु, व्यक्ति, भाव और स्थान में चेतना का केंद्रित होना ही ध्यान है। अभी तक तो ध्यान में ही उलझे पड़े थे, अब एक नया शिगूफा और छोड़ दिया, चेतना। अब चेतना को पढ़ने-समझने बैठे तो अचेतन और अवचेतन दो शब्दों का झुनझुना और पकड़ा दिया। कुल मिलाकर ध्यान की ढेर सारी परिभाषाएं तो रटने को दे दी और रुचि का छौंका अलग से लगा दिया। ऊपर से ध्यान को समझने के चक्कर में चेतन, अवचेतन शब्दों में उलझा दिया सो अलग।

ध्यान शब्द सुनने में आसान है, लेकिन आचरण में अत्यंत दुष्कर कार्य है। इसी की कमी से कोई कुछ का कुछ बन जाता है। जो चाहता है वह नहीं बन पाता। फिर दोष अपने भाग्य को देता है। हवा दिखाई नहीं देती, लेकिन जब हवा का बवंडर उठता है, तो धूल के कण अपने आप उस बवंडर के साथ हो जाते हैं, उसी धूल कणों से बवंडर हमें दिखाई देता है।

इसी प्रकार जब हम ध्यान अवस्था में पहुंचते हैं, तो हमारे अंदर भी मौजूद विद्युत वलय में बदलाव शुरू हो जाता है। उसी बदलाव के फलस्वरूप हमारे मस्तिष्क का द्रव बदलने लगता और हमारे शरीर की सारी प्रक्रिया, जिसे हम यौगिक प्रक्रिया कहते हैं, वह भी बदल जाती है। हमारे शरीर के अंदर कई प्रकार की इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगें मौजूद हैं, जिन्हें हम विद्युत तरंगें भी कह सकते हैं। विद्युत तरंगों में बदलाव होते ही हमारे सारे शरीर की प्रक्रिया धीरे-धीरे बदल जाती है।


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