सम्पादकीय

नकाबपोश अंधेरे की आवाज

Rani Sahu
28 Jun 2023 6:58 PM GMT
नकाबपोश अंधेरे की आवाज
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आज के जमाने में तुम्हारे अंदर कुछ और बाहर कुछ और होना ही चाहिए। फटीचर साइकिल की सवारी से कभी आगे नहीं बढ़ पाए, फिर भी बूढ़ों से यही सुनते रहे, ‘भय्यन, हाथी की सवारी न कर बैठना, उसके खाने के दांत और तथा दिखाने के और होते हैं।’ अब भला बताइये फिटफिटिया के इस युग में हाथी तलाशने कौन जाता है? साइकिल से स्कूटर और स्कूटर से मोटरसाइकिल की दौड़ लगती है। यह बीच में ‘हाथी, घोड़ा, पालकी जय कन्हैया लाल की’ कहां से आ गए? लीजिये इधर भी तो असली पर नकली चेहरा लगाने की कवायद हो रही है। सींकिया बदन को विश्व चैम्पियन बताया जा रहा है। महा असुन्दर चेहरे पर ऐसे उबटन पोते जाते कि उसको मर्दों में हरक्युलीस और औरतों में क्लियोपैट्रा होने का भ्रम होने लगता। अब लो हवा बदल गयी। ताजा हवा में विषाणु घुल गये। यह मारक विषाणु हैं, पीछा छोडऩे में नहीं आता। दो साल गुजरे, तीसरा शुरू हो गया, पता नहीं किस राह से आता है। कण्ठ खरखरा कर गले के रास्ते उतर कर फेफड़ों में घुटने जमा कर बैठ जाता है। आदमी उसकी दहशत से ही तार-तार हो जाता है। अपने लिए नई उतर आई महामारी के लिए बैड तलाश करने जाओ तो कहते हैं कि बैड हैं, आक्सीजन नहीं है। यहां जेब गर्माओ तो शायद दाखिला मिल जाये। लेकिन अगर दूसरे जहां की शोकसभा सज गयी तो वहां भी दाखिले के लिए कतार लगेगी।
हमने तो पहले ही तुझे कहा था, ‘कुछ रसूख पैदा कर ले, सही लोगों का दत्तक बन जाए यहां जी लेगा, अस्पताल गया तो आक्सीजन भी मिल जायेगी। ऊपर का टिकट कटा तो दाह कर्म के लिए जगह पहले मिलेगी, शायद तेरी रुख्सत का कोई शोक सभा प्रस्ताव भी पारित हो जाए।’ लेकिन यह सब तो बाद की बातें हैं। अभी तो अपनी आत्मा का नकाब उतार कर अपना चेहरा ढक ले। हो सकता है कि इसी पर्दादारी में मौत का मसीहा तुझे अपने साथ ले जाना भूल जाये। देखा, एक नकाब ने क्या-क्या ढक दिया। अच्छा भला, जाना पहचाना चेहरा गुमशुदा हो गया। इस भेडिय़ा धसान में गुमशुदा हो जाने के बहुत से लाभ हैं, बन्धु। अब तू खाली शीशियों में नकली टीके भर कर भी बेचेगा, तो वे इस महामारी की रामबाण औषधि की तरह लगेंगे। न भी लगें तो तेरी तिजोरी मुस्करा देगी। देखो, आजकल चेहरों के गुमशुदा होने की बहुत ज़रूरत हो गयी, बिल्कुल उसी तरह जैसे आजकल आदर्श, नैतिकता और ईमानदारी सब नीलाम हो गयी। खोज, तलाश करो तो भी नहीं मिलती। महामारियों की उम्र लम्बी हो गयी, वह रूप बदलने लगीं। कब कौन सा रूप किसको अपनी चपेट में ले लेगा, कुछ पता नहीं। रोगियों के हुज़ूम बढऩे लगे, अस्पतालों में जगह कम होने लगी।
हमने तो कहा था, हमने तो ऐसा रास्ता दिखाया था कि देखते ही देखते यह मारक रोग इस देश से दुम दबा कर भाग गया, अब दूसरा चला आया। लोग मुक्ति जश्न मनाने के लिए उतावले हो उठे। चुनाव रैलियों में भीड़ सजने वाली है। चार धाम की यात्रा के घण्टे भी टनटनाने लगे थे। लेकिन यह क्या हुआ। विदा लेता वायरस रूप बदल लौट आया। लोग हमारी ओर देखते हैं। हमारी धीरज दिलासा की ओर देखते हैं। नहीं, हमारी ओर मत देखिये। याद रखो, जमाना समतावाद का नहीं, अंतर बना कर रखने का है। चेहरे को जितना नकाब से ढक कर रखोगे, उतना ही जान पर सांसत नहीं आयेगी। लाख कहा था, यह जमाना लिपटने-चिपकने का नहीं, भीड़ हो जाने का नहीं। यह जमाना तो तीन हाथ दूर रहने का है। दूर रह कर पूरी श्रद्धा के साथ ‘हमारा जिंदाबाद’ चिल्लाने का है। वही आप नहीं कर पाये। बस यहीं गड़बड़ हो गई।
सुरेश सेठ

By: divyahimachal

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