सम्पादकीय

शहीदों के गांव: चौदह की उम्र में लिखी क्रांति की इबारत

Neha Dani
15 July 2022 1:40 AM GMT
शहीदों के गांव: चौदह की उम्र में लिखी क्रांति की इबारत
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लेकिन कम उम्र के चलते उन दोनों को फांसी न देकर आजीवन कारावास की सजा दी गई थी।

कोलकाता के निकट हुगली तट पर चंद्रनगर (अब चंदननगर) का बागबाजार इन दिनों सुनीति चौधुरी की क्रांति-कथा को विस्मृत कर चुका है। मैं इस शहर के भीड़ भरे इलाके में किसी से उस मकान का पता पूछता हूं, जहां अपने क्रांतिकारी जीवन को पीछे धकेल, एमबीबीएस करने के बाद सुनीति चिकित्सक की भूमिका में सेवा भाव से जुट गई थीं। इस जगह उन्हें अब कोई नहीं जानता। उस घर के निशानात भी जमींदोज हो चुके हैं, जिसके एक कक्ष में बैठकर वह मरीजों की सेवा में जुटी रहती थीं। वह एक किराये का घर था, जिसे बाद में बेच दिया गया और जहां अब बहुमंजिली इमारत है।




वर्ष 1974 में इसी जगह बैठकर वह मरीजों को देखने में व्यस्त थीं, जब उन्होंने कहा था, 'यू हैव कम टू मीट विद ए किलर, बट हियर इज ए हीलर नॉट ए किलर।' यानी आप एक हत्यारी से मिलने आए हैं, किंतु यहां पर एक चिकित्सा करने वाली है, मारने वाली नहीं।' सुनीति चौधुरी हिंदी कम बोल पाती थीं, सो उनसे वार्तालाप अंग्रेजी या बांग्ला में ही संभव था। बचपन की याद आते ही वह गीता के अनेक श्लोक भी सुना देतीं, जो उन्हें कंठस्थ थे। बंगाल के कोमिल्ला में उन्होंने अपनी सहयोगी शांति घोष के साथ क्रांतिकारियों का दमन करने वाले वहां के जिला मजिस्ट्रेट स्टीवेन्स को उसके बंगले पर जाकर मारा था। लेकिन कम उम्र के चलते उन दोनों को फांसी न देकर आजीवन कारावास की सजा दी गई थी।


शांति घोष बाद में पश्चिम बंगाल की विधान परिषद और विधानसभा की सदस्य बनीं, पर सुनीति ने चिकित्सक का पेशा अपनाया। जिन हाथों ने एक समय रिवॉल्वर पकड़ा, उनमें स्टेथेस्कोप थमा देख किसी को भी हैरत होती थी। वह एक किस्सा सुनाती थीं, 'बचपन में एक ज्योतिषी ने मेरा हाथ देखकर कहा था कि मेरे हाथ में हत्या की रेखा है। मेरे पिता जी ने नाराज होकर उसे भगा दिया, लेकिन बाद में उसकी बात सच निकली।' स्टीवेंस से उनका कोई व्यक्तिगत द्वेष नहीं था। जिस समय स्टीवेंस पर हमला किया गया, तब सुनीति चौधुरी और शांति घोष की उम्र क्रमशः 14 और 15 वर्ष थी। क्रांति के मार्ग पर इन दोनों किशोरियों का बहादुर कारनामा सचमुच बहुत रोमांचकारी था, जिसे वे अपने साहस के चलते 14 दिसंबर, 1931 को सफलतापूर्वक संपन्न कर पाईं। इस अभियान के लिए इन दोनों किशोरियों को दल की ओर से बाकायदा प्रशिक्षित किया गया था। स्टीवेंस पर गोली चलाने के बाद उन्होंने वंदे मातरम् और 'आमार भारत, आमार भारत' का जयघोष भी किया था। पकड़े जाने के बाद वे इस बात के लिए चिंतित थीं कि उनका शिकार जिंदा है या मर गया। उस कामयाब योजना के पीछे ललित बर्मन, सतीश चंद्र राय, प्रफुल्लमयी, क्रांतिकारी अनंत सिंह की बहन श्रीमती इंदुमती सिंह जैसे लोग थे।

शिनाख्त के समय प्रफुल्ल, सुनीति और शांति ने एक दूसरे को पहचानने से साफ इनकार कर दिया। इंदुमती ने काफी सख्ती के बाद भी चटगांव के अपने विप्लवी दल का कोई रहस्य नहीं खोला। पर सुनीति के परिवार का बहुत उत्पीड़न किया गया। उनके रिटायर्ड पिता ने सरकारी नौकरी ईमानदारी से की थी, पर उनकी पेंशन बिना कारण बताए रोक दी गई। बड़े भाई शिशिर चौधुरी पकड़े गए और भाई सुकुमार चौधरी को पुलिस ने गिरफ्तार कर पीटा भी। ब्रिटिश पुलिस के सिपाही उनके घर पर निगरानी रखने लगे। उस समय परिवार की स्थिति अत्यंत जर्जर हो गई थी। राजशाही और ढाका जेलों में रखे जाने के बाद सुनीति को मिदनापुर जेल भी भेजा गया, लेकिन इस बार उन्हें शांति घोष से पृथक कर दिया गया, जो दोनों के लिए अत्यंत पीड़ादायक था।

जून 1939 में सुनीति और शांति को रिहा कर दिया गया। सुनीति के भाई भी तब जेल से बाहर निकल आए और उन्होंने अपने थके-हारे पिता की आंखों का ऑपरेशन कराया, पर मोतियाबिंद से जा चुकी उनकी ज्योति फिर लौटी नहीं। सुनीति यह मानती थीं कि बंगाल पहले भारत का बौद्धिक नेतृत्व करता था, लेकिन अब उसकी दुर्दशा हो रही है। उनका यह भी कहना था कि हमारे वर्तमान शासकों के मुकाबले अंग्रेज हुक्मरान अधिक सुसंस्कृत और अनुशासित थे। उनका दोष यही था कि उन्होंने हमें गुलाम बनाया था। आज के मुकाबले ब्रिटिश भारत में भारतीय नारी अधिक सुरक्षित और सम्मानित थी। उस रोज पीड़ा से भरकर उन्होंने यह भी कहा था, 'मैं तो अपने घर से बाहर नहीं निकलना चाहती। भूखे और नंगे मासूम बच्चों को आजादी के इतने वर्षों बाद भी भीख मांगते देख तथा गरीब बच्चों की कभी खत्म न होने वाली तकलीफों को जानकर मेरा हृदय फट जाता है। क्या इसी दिन के लिए हम बालिकाओं ने अंग्रेजों के खून की होली खेली थी?' उन दिनों उनके पुराने साथी ललित बर्मन जा चुके थे, पर सतीश चंद्र राय कलकत्ता में थे। सुनीति ने प्रद्योत कुमार घोष से विवाह किया था, पर उनके निधन के बाद उन्होंने अपनी प्रैक्टिस बंद कर दी। इसके बाद वह कभी कलकत्ता रहतीं, तो कभी बेटी भारती के पास बंबई।

लगभग एकांतवास में रहते हुए 12 जनवरी, 1988 को उनका निधन हो गया। उसके साल भर बाद शांति घोष भी नहीं रहीं। कोलकाता के 'महाजाति सदन' में स्वाधीनता आंदोलन के दृश्य-इतिहास में सुनीति और शांति, दोनों की क्रांति कथाएं आज भी गुंजायमान हैं। शांति घोष ने बांग्ला में अपनी आत्मकथा अरुण वह्नि (लाल अग्नि) की रचना की, जबकि सुनीति के लिखे यादनामे को सामने रख उनकी पुत्री भारती सेन ने उनका अधूरा कार्य पूरा किया है। विप्लव मार्ग की इन दोनों वीर किशोरियों की स्मृति का यह खजाना समूचे बंगाल के तत्कालीन उद्वेलन का सचेत दस्तावेज है।

सोर्स: अमर उजाला

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