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रासू दा यानी रासबिहारी बोस। भारतीय क्रांतिकारी दल के अनोखे और सर्वमान्य नेता व संगठनकर्ता
सुधीर विद्यार्थी । रासू दा यानी रासबिहारी बोस। भारतीय क्रांतिकारी दल के अनोखे और सर्वमान्य नेता व संगठनकर्ता। अपने साहस, शौर्य और कार्य शैली से रासू दा ने अपने इर्द-गिर्द जांबाज नौजवानों की ऐसी टोली जमा कर ली थी, जिसमें शचींद्रनाथ सान्याल और प्रताप सिंह बारहठ सरीखे नौजवान थे, जिन्होंने आगे चलकर क्रांति का अनोखा इतिहास रचा। सान्याल 1912 के बनारस षड्यंत्र मामले में काला पानी गए और बारहठ 1918 में जेल के भीतर शहीद हो गए।
रासू दा को जानने के लिए सान्याल का लिखा बंदी जीवन आज भी सर्वोत्तम कृति है। लाला हरदयाल उनके मित्रों में थे। रासू दा थे बंगाल के, लेकिन अपने विप्लवी अभियान के दिनों में वह राजपूताना, पंजाब और दिल्ली से लेकर उत्तर भारत के नौजवानों के बीच अत्यंत लोकप्रिय थे। उन दिनों कलकत्ता से दिल्ली राजधानी बनने पर वहां चांदनी चौक में वायसराय लॉर्ड हार्डिंग पर 23 दिसंबर, 1912 को जो बम फेंका गया, उसमें रासू दा की टोली का हाथ था। यद्यपि वह तब देहरादून में कार्यरत थे और घोर संकट के समय तक 1915 तक देश में ही रहे। दिल्ली मामले का मुकदमा शुरू हुआ, तब उन्हें पकड़ने के लिए कई इनामों की घोषणा की गई, रेलवे स्टेशनों पर उनके फोटो टांगे गए, लेकिन वह हाथ नहीं आए।
कोलकाता से 33 किलोमीटर दूर और कभी फ्रांसीसियों का उपनिवेश रहे पुराने चंद्रनगर (अब चंदननगर) के रेलवे स्टेशन की दीवार पर जड़े एक फ्रेम में शहीद कन्हाईलाल दत्त, चटगांव मामले के क्रांतिकारी जीवन घोषाल और रवींद्रनाथ ठाकुर के साथ रासू दा का भी का चित्र लगा है। अंदर बाजार की तरफ जो रास्ता जाता है, उसी पर सड़क के एक किनारे गली के मुहाने पर उनकी उपेक्षित-सी प्रतिमा लगी है। वहीं मृत्युंजय स्वीट्स के सामने गली में रहने वाले 77 वर्षीय बनबिहारी बसु बताते हैं कि वह रासू दा के परिवार से हैं। पर उस दिन रासू दा का घर देख मैं लज्जित हो गया। कुछ बिखरी हुई ईंटें और झाड़-झंखाड़। इस दिग्गज क्रांतिकारी का उपेक्षित आवास अपनी व्यथा-कथा का स्वयं ही साक्षी था। बसु जी ने बताया कि कुछ वर्ष पहले यहां निर्माण के लिए नींव की खुदाई शुरू हुई, पर दूसरे दिन से फिर वही अंतहीन प्रतीक्षा।
वह उस नींव के निशान दिखाते हुए बेहद खामोश हैं। मैं तो रासू दा का पैतृक घर देखने आया था, पर यहां तो उसका नामोनिशान तक नहीं। आजादी के लिए समझौतविहीन संग्राम करने वाले क्रांतिकारी स्वतंत्र भारत में क्या इसी सम्मान के हकदार हैं? चंदननगर वही जगह है, जहां से चलकर रासू दा ने अपने मुक्ति अभियान की शुरुआत की थी। उत्तर भारत में लाला हरदयाल पहले से सक्रिय थे। रासू दा दिल्ली में लाला हनुवंत सहाय और मास्टर अमीरचंद के साथ काम करने लगे। वहीं उन्हें अवधबिहारी मिले। बनारस उन दिनों क्रांति का बड़ा केंद्र था, जहां उनकी भेंट शचींद्रनाथ सान्याल, दामोदर स्वरूप सेठ और सुरेशचंद्र भट्टाचार्य जैसे साथियों से हुई।
लॉर्ड हार्डिंग बम केस में पकड़े गए लोगों में अवधबिहारी, बालमुकुंद, मास्टर अमीरचंद और बसंत कुमार विश्वास को फांसी दी गई। छावनियों में विद्रोह कराने का जो उद्योग तय किया गया, वह मुखबिरी के चलते कामयाब नहीं हुआ, जिसमें करतार सिंह और विष्णु गणेश पिंग्ले फांसी पर चढ़ा दिए गए। अब रासू दा ने विदेश जाना तय किया, ताकि वहां से पिस्तौलें और गोलियां भेजकर बड़ी क्रांति का उपक्रम किया जा सके। वह जापान पहुंचे और वहां जापानियों को अंग्रेजी पढ़ाने लगे। उन्होंने जापानी भाषा सीख ली। उसमें वह लेख व पुस्तकें लिखते और भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में प्रचार करते। ब्रिटिश हुकूमत ने बहुत जोर डाला, पर जापान ने उन्हें अंग्रेजों के हवाले नहीं किया। उन्हें जापानी सैनिक पुनरुत्थान के नेता मितसूई तोयामा का साथ मिला, जिन्होंने एक जापानी महिला से उनका विवाह करा दिया। रासू दा ने वहां से न्यू एशिया नाम से एक पत्र भी निकाला।
वह हर साल टोक्यो में जलियांवाला बाग दिवस मनाते थे। उनके नेतृत्व में दक्षिण-पूर्व एशिया के भारतीयों ने अपने को संगठित करने की पुरजोर कोशिश की। जुलाई, 1943 में आजाद हिंद फौज का मुख्य सेनापतित्व सुभाषचंद्र बोस को सौंपा गया, तब रासू दा ने व्याख्यान देते हुए कहा था, 'मैं बूढ़ा हो गया हूं।...यह जवान व्यक्ति का काम है, और सुभाषचंद्र बोस सौभाग्य से भारत में जो कुछ भी श्रेष्ठ है, उसका प्रतिनिधित्व करते हैं।' रासू दा देश की आजादी का सवेरा देख नहीं पाए। 21 जनवरी, 1945 को उनका निधन हो गया। सान्याल जी ने अंडमान से लौट जिस बंदी जीवन की रचना की, उसमें चंदननगर के साथ रासू दा भी हैं।
चंदननगर स्थित फ्रांसीसी गर्वनर डुप्ले के महल को अब भारत-फ्रांस सांस्कृतिक संग्रहालय का रूप दे दिया गया है, जिसके एक कक्ष में रासू दा के साथ ईश्वरचंद्र विद्यासागर, राजा राममोहन राय, विवेकानंद, रवींद्रनाथ ठाकुर, चित्तरंजन दास, आशुतोष मुखोपाध्याय और कन्हाईलाल दत्त के चित्र लगे हैं। रासू दा की अनेक यादें चंदननगर सहेज कर रख सकता है, जिनमें जापान से सान्याल जी को लिखे उनके पत्र भी हैं और जिनका पाठ स्वतंत्रता संग्राम के विप्लवी पक्ष को जानने के लिए जरूरी है। रासू दा के मकान का पुनर्निर्माण उनके स्मारक के रूप में कराकर मुक्ति-संग्राम के इतिहास को संरक्षित करने का बड़ा दायित्व पूरा किया जा सकता है। फिलहाल रासू दा का कोई स्मारक हुगली नदी के चंद्राकार तट पर बसे चंदननगर की धरती पर नहीं है।
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Rani Sahu
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