- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- शहीदों के गांव: संघर्ष...
x
संघर्ष से पीछे हटना स्वीकार नहीं था मन्मथनाथ को
सुधीर विद्यार्थी
नई दिल्ली के निजामुद्दीन पूर्वी इलाके में डी-14 आवास के सामने पहुंचकर आज मैं बहुत खामोश हूं। काकोरी के क्रांतिकारी मन्मथनाथ गुप्त की यह रिहाइश कभी हमारा आश्रय-स्थल थी। 1970 के बाद मैं उनके संपर्क में आ गया था। बिस्मिल और अशफाक के शहर का मेरा होना इस जुड़ाव को सुदृढ़ करता रहा। मन्मथ दा 26 अक्तूबर, 2000 को नहीं रहे, तब से टूटी रिश्ते की डोर को आज पुनः बांधने यहां आया हूं।
हम नीचे के तल में उनके पुत्र अभीक के साथ बैठे हैं, जहां सघन उदासी का आलम है। अभीक बोले, 'पिता देवता-तुल्य थे, पर अंतिम दिनों में वह गहरी मानसिक यंत्रणा से गुजरे। इस मकान का ऊपरी तल्ला मां ने बेचकर कलकत्ता का रुख कर लिया है।' मैं चिंतित था मन्मथ दा के अत्यंत समृद्ध निजी पुस्तकालय के लिए, जिसमें विश्व-क्रांति के इतिहास का बेजोड़ खजाना था। मैंने एक समय इसी कक्ष में उनकी पत्नी माया गुप्त के कई अनूठे काष्ठ-शिल्प भी देखे थे। मन्मथ दा काशी के रहने वाले थे। उनके पिता वीरेश्वर गुप्त और भाई मनमोहन गुप्त स्वतंत्रता सेनानी थे। 1921 के असहयोग आंदोलन में मन्मथ दा जेल गए। उसके बाद काशी के अनेक नौजवानों का गांधी के रास्ते से मोहभंग होने से क्रांतिकारी संग्राम से जुड़ाव हो गया। उनमें चंद्रशेखर आजाद, राजेंद्र लाहिड़ी, शचींद्रनाथ बख्शी और मणींद्र बनर्जी जैसे नौजवान थे।
गठनकर्ता शचींद्रनाथ सान्याल वहां थे ही। बिस्मिल के नेतृत्व में नौ अगस्त, 1925 के काकोरी कांड में काशी के आजाद, लाहिड़ी, बख्शी और मन्मथ दा ने सक्रिय भूमिका निभाई, पर गिरफ्तारियां होने पर आजाद हाथ नहीं आए। मन्मथ दा के पकड़े जाने पर बनारस जेल में शिनाख्त के दौरान उनकी ओर इशारा करते हुए मजिस्ट्रेट ऐनुद्दीन ने बाबू श्रीप्रकाश से कहा था, 'जो अभियोग इस नौजवान के विरुद्ध लगाए गए हैं, वे साबित हो जाएं, तो इसे कोई फांसी से बचा नहीं सकता।' लखनऊ ले जाते समय उनके पैरों में बेड़ियां डाल दी गईं और बुर्का पहनाया गया। वहां की अदालत में 18 महीने तक मुकदमा चला, जिसमें बिस्मिल, अशफाक, रोशन सिंह और लाहिड़ी को फांसी तथा दूसरे क्रांतिकारियों को लंबी सजाएं तजवीज हुईं। मन्मथ दा को 14 वर्ष के कठोर कारावास की सजा मिली, पर सरकार इससे संतुष्ट नहीं थी। उसने फांसी के लिए अपील की, पर चीफ कोर्ट ने उनकी कम उम्र का हवाला देकर फांसी देने से इनकार कर दिया।
मन्मथ दा जेल में थे, तभी उनके पिता का देहांत हो गया। कैदी जीवन में अध्ययन-मनन का सिलसिला तब क्रांतिकारियों की विशेषता थी। काकोरी के मुकदमे के समय मन्मथ दा और लाहिड़ी अनीश्वरवादी चिंतन की ओर बढ़ चुके थे। जब मन्मथ दा बरेली केंद्रीय जेल में आए, तब राजनीतिक कैदियों के हकों के लिए उन्हें अपने साथी राजकुमार सिन्हा, मुकुंदीलाल और शचींद्रनाथ बख्शी के साथ 52 दिन अनशन करना पड़ा, जिसमें वे कामयाब हुए। भूख हड़ताल की उस लड़ाई में वे मृत्यु के नजदीक पहुंच गए थे, जिससे चिंतित हो भगत सिंह ने भी लाहौर जेल से तार भेजकर अनशन समाप्त करने का अनुरोध किया और भगत सिंह के पिता किशन सिंह ने भी, पर वे मांगें पूरी होने तक डटे रहे। उन्होंने गणेशशंकर विद्यार्थी के अनुरोध पर भी उस संघर्ष से पीछे हटना स्वीकार नहीं किया।
बरेली जेल में मन्मथ दा ने काकोरी के शहीदों पर पहली पुस्तक लिखी, जिसे बंगाल के क्रांतिकारी गणेश घोष के यहां से छूटने पर उन्होंने चुपके से बाहर भिजवाया। बाद में वह छपी, पर सरकार ने उसे जब्त कर उसके प्रकाशक मोतीलाल राय को भी सजा दी। फतेहगढ़ जेल में क्रांतिकारी मणींद्र बनर्जी ने अनशन करते हुए मन्मथ दा की गोद में ही प्राण त्यागे। उनकी आत्म रचना में मणींद्र का वह मृत्यु-वर्णन मार्मिक शब्दों में दर्ज है। 1937 में उत्तर प्रदेश में कांग्रेसी मंत्रिमंडल बनने पर सभी काकोरी बंदी नैनी जेल से रिहा कर दिए गए। उसके बाद भी मन्मथ दा इलाहाबाद में 'युवक संघ', 'साम्यवादी दल' और 'फॉरवर्ड ब्लॉक' में काम करते और बार-बार जेल जाते रहे। इस तरह उन्होंने उम्र के 20 साल बंदी-जीवन में गुजारे। उन्होंने सुभाष बाबू के रामगढ़ में हुए समझौता-विरोधी सम्मेलन में भी हिस्सेदारी की। उस सम्मेलन में आई माया गुप्त से उन्होंने विवाह किया।
आजादी के बाद बड़े लेखकों में उनका शुमार हुआ। हिंदी, बांग्ला और अंग्रेजी में उन्होंने लगभग 150 पुस्तकों की रचना की, जिनमें क्रांतिकारी की आत्मकथा, भारत के क्रांतिकारी, भगत सिंह और उनका युग, दे लिव्ड डेंजरसली, क्रांतिकारी आंदोलन का वैचारिक विकास, भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास, क्रांतियुग के संस्मरण आदि प्रमुख हैं। उन्होंने अनेक कहानियां व उपन्यास भी लिखे। विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय की अमर बांग्ला कृति पथेर पांचाली का उनका हिंदी अनुवाद अत्यंत महत्वपूर्ण है।
आजाद भारत में उन्हें भारत सरकार के प्रकाशन विभाग में संपादक नियुक्त किया गया, जहां उन पर बाल भारती, आजकल और योजना जैसी पत्रिकाओं का दायित्व था। उनके वहां रहते ही कर्मवीर पंडित सुंदरलाल का ब्रिटिश शासनकाल में जब्त गौरव ग्रंथ भारत में अंग्रेजी राज दोबारा प्रकाशित हुआ। मन्मथ दा की पौत्री अन्या यह सुनकर बहुत खुश हैं कि बरेली केंद्रीय कारागार में मैंने सबसे ऊंचा और बड़ा द्वार मन्मथ दा की स्मृति में बनवाया है। काकोरी के क्रांतिकारियों का जेल के भीतर खींचा गया समूह चित्र मन्मथ दा की जिंदगी का सबसे बड़ा दस्तावेज है।
Rani Sahu
Next Story