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जिस विप्लवी ताने-बाने को कुछ युवकों ने अपने बल पर स्थापित करने का उद्यम किया, उनमें मुकुंदीलाल जैसे लोगों की बुनियादी हिस्सेदारी थी।
छोटे कस्बानुमा शहर ओरैया में रुककर मैं 'मैनपुरी षड्यंत्र केस' और 'काकोरी कांड' से जुड़े 'भारतवीर' कहे जाने वाले क्रांतिकारी मुकुंदीलाल की स्मृतियों को टटोलता हूं। वर्ष 1918 में मैनपुरी में चले पुराने मुकदमे में ब्रिटिश सरकार की ओर से आम माफी के बाद भी मुकुंदीलाल पूरे छह साल की कैद काटकर बाहर आए। उसके बाद नौ अगस्त, 1925 के काकोरी अभियान में रामप्रसाद बिस्मिल ने उन्हें अपने साथ ले लिया, जिसमें उन्हें आजीवन कारावास की सजा मिली।
औरैया के एक संपन्न और प्रतिष्ठित परिवार के होने पर भी मुकुंदीलाल ने क्रांति के मार्ग पर चलना तय किया था। पिता नहीं रहे, तो वह ज्यादा पढ़-लिख नहीं पाए। खाना, मुगदर घुमाना और कुश्ती लड़ना ही उनकी दिनचर्या था। पुलिस किसी को तंग करती, तो वह प्रतिरोध में तनकर खड़े हो जाते। यहां के एक स्कूल में अध्यापकी कर रहे गेंदालाल दीक्षित से उनका संपर्क हो गया था, जो क्रांतिकारियों की 'मातृवेदी' संस्था चला रहे थे। बस, उन्हें रास्ता मिल गया। गेंदालाल मैनपुरी मामले में गिरफ्तार होने के बाद जेल से निकल भागे और कुछ दिनों बाद शहीद हो गए।
पर मुकुंदीलाल इस देश के 'जिंदा शहीद' थे। काकोरी की घटना के बाद फरार होने पर वह अजमेर, कानपुर और जाने कहां-कहां भटकते-घूमते बनारस के पुस्तकालय में पुलिस के हाथ आ गए। उन्हें लखनऊ में चल रहे काकोरी मुकदमे में लाया गया, जहां जेल में सख्ती होने पर उन्होंने मेडिकल ग्राउंड पर विशेष व्यवहार के लिए भूख हड़ताल की। काकोरी मुकदमे में उन पर कई गंभीर अभियोग थे, जिसमें सजा के बाद बरेली केंद्रीय कारागार में भेजे जाने पर उन्होंने वहां मन्मथनाथ गुप्त, शचींद्रनाथ बख्शी और राजकुमार सिन्हा के साथ राजनीतिक कैदियों के अधिकार के लिए अनशन में मृत्यु के नजदीक पहुंचकर भी जीत हासिल की।
फिर वह आगरा जेल भेजे गए और 1937 में सूबे में कांग्रेसी मंत्रिमंडल बनने पर नैनी जेल से सभी की रिहाई हो गई। उस अवसर पर इलाहाबाद में जवाहरलाल नेहरू ने काकोरी बंदियों का भव्य स्वागत किया था। सभी को 'आनंद भवन' की दूसरी मंजिल पर ले जाया गया। नेहरू ने वहां चाय-पानी से पहले एक स्वागत भाषण दिया। उस समय तक मुकुंदीलाल अंदर नहीं पहुंच पाए थे। किसी से बातचीत करते-करते वह बाहर ही रह गए। वहीं खड़े आचार्य कृपलानी अपने साथियों से कह रहे थे, 'देखो, इस जवाहरलाल की मति मारी गई है।
इन जेल से छूटे हुए डाकुओं का कैसा स्वागत कर रहा है। गांधी यहां आकर देख ले, तो क्या बोलेगा।' मुकुंदीलाल कृपलानी को नहीं जानते थे। सुनकर वह तमतमा गए। आस्तीनें चढ़ाते हुए वह बोले, 'हिम्मत हो, तो फिर ऐसी भाषा बोलिए।' वह कृपलानी की तरफ लपके ही थे कि लोगों की निगाहें उन पर पड़ीं कि दौड़ पड़े सब। पूछा उनसे, 'मुकुंदीलाल जी, क्या बात है?' उन्होंने कृपलानी की ओर इशारा करते हुए कहा, 'यह हम लोगों को अपशब्द कह रहे हैं, यहां तक कि गांधी और नेहरू को भी गाली दे रहे हैं।
मैं इन्हें यहीं मजा चखाता हूं, ताकि भविष्य में ऐसी गाली देना भूल जाएं। तब तक नेहरू आ धमके। कृपलानी का मुकुंदीलाल से परिचय कराते हुए उन्होंने कहा, 'ये हैं दादा कृपलानी। अखिल भारतीय कांग्रेस के महामंत्री और गांधी आश्रम के मुख्य संचालक। गांधी के भक्त होते हुए भी यह जब उन्हें गाली देते हैं, तब हमें समझ लेना चाहिए कि यह इनकी स्वभावगत आदत है। यदि दिल से यह आप लोगों को डकैत समझते, तो यहां स्वागत में क्यों आते? इनकी बातों का बुरा नहीं मानना चाहिए।' मुकुंदीलाल शांत हो गए।
कृपलानी बोले, 'देखो भाई, क्या हम बुरा बोलता है? हम तो यही लोगों को समझाता है कि हम सब झूठ-मूठ उस बुड्ढ़े को विश्वास दिलाता आ रहा है कि हम सब अहिंसा के रास्ते को मानता है। हममें से जितना कांग्रेसी यहां है, कोई भी अहिंसा को दिल को नहीं चाहता। सभी दिल के अंदर हिंसा पर विश्वास रखता है। नहीं तो इसके क्या मायने हैं कि जिन्होंने डकैती डाली थी, कल से उन सब का स्वागत हो रहा है।' इतने में किसी ने कृपलानी से पूछ ही लिया, 'दादा, फिर आपको तो स्वागत में नहीं आना चाहिए था।'
वह हंसकर बोले, 'क्या हमको बुद्धू समझता है? सारा इलाहाबाद स्वागत कर रहा है, फिर हम न आता। तुम सब हमको गाली देता। क्या करूं, झक मारकर आना पड़ा।' कृपलानी की बात सुनकर अगल-बगल खड़े व्यक्ति ठहाका लगाकर हंस पड़े। नैनी जेल से छूटने के बाद भी मुकुंदीलाल चुप नहीं बैठे। बयालीस में वह फिर जेल गए और यह सिलसिला जारी रहा। आजादी के बाद ही वह मुक्त हुए, पर गुजरते समय के साथ लोगों ने उनकी ओर से मुंह फेर लिया। एक समय 'भारतवीर' कहे जाने वाले इस शख्स से किसी ने उनका हाल-चाल भी नहीं पूछा।
औरैया की गुमनाम बस्ती भी अब नहीं जानती कि 1972 में कानपुर के एक अस्पताल में अंतिम सांस लेने वाले इस क्रांतिकारी ने अपने अंतिम दिन किस बदहाली में बिताए। औरैया के शहीद स्मारक में उनका एकमात्र यादनामा पेश है। कुछ वर्ष पहले बरेली के केंद्रीय कारागार में उनके नाम पर एक बैरक का नामकरण, स्मृति-पटल तथा चित्र लगवाने के बाद भी हमें उनके बाद का कष्टप्रद जीवन कचोट से भर देता है। क्षमा-याचना करके भी हम उस पीड़ा से मुक्त नहीं हो सकते। 1912 के 'बनारस षड्यंत्र केस' के बाद बंगाली क्रांतिकारियों के प्रभाव से मुक्त उत्तर भारत में जिस विप्लवी ताने-बाने को कुछ युवकों ने अपने बल पर स्थापित करने का उद्यम किया, उनमें मुकुंदीलाल जैसे लोगों की बुनियादी हिस्सेदारी थी।
सोर्स: अमर उजाला
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