सम्पादकीय

शहादत: खीरी में अभी जिंदा है बयालीस की हुंकार

Neha Dani
1 Oct 2021 2:41 AM GMT
शहादत: खीरी में अभी जिंदा है बयालीस की हुंकार
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ऐसा वीर साहसी कोई हो तो सम्मुख आए, फांसी के दिन वजन जिसका सात पौंड बढ़ जाए।

मैं खीरी-लखीमपुर के भीखमपुर गांव में आ गया हूं। जिले की मोहम्मदी तहसील की इस गंवई बस्ती की शोहरत शहीद राजनारायण मिश्र के नाम से है। बयालीस की क्रांति में दो व्यक्तियों को फांसी दी गई थी। 21 जनवरी, 1943 को सिंध के हेमू कालाणी को वहां की सक्खर सेंट्रल जेल में, जबकि उत्तर प्रदेश में राजनारायण मिश्र को नौ दिसंबर, 1944 को लखनऊ जिला कारागार में फांसी दी गई थी।

बयालीस के आंदोलन का केंद्र बने राजनारायण के इस घर-गांव में ब्रिटिश सरकार ने जो किया, वह दमन की पराकाष्ठा था। उनके मकान को पूरी तरह जमींदोज करके पत्नी और बच्चों को दर-बदर कर दिया गया था। राजनारायण मिश्र की शहादत को करीब 77 वर्ष का लंबा समय बीत चुका है। जिस लखनऊ में उन्हें फांसी लगी, वहां उनके बलिदान की कथा सब भूल चुके हैं, और कानपुर में किसी को याद नहीं कि गंगा के सरसैया घाट पर उनकी चिता धू-धू कर जली थी।
इस समय बरसात होकर थम चुकी है। दोपहर ढलान पर है। सब ओर हरियाली। गन्ने और धान के खेतों का लंबा सिलसिला। जिला मुख्यालय से यहां की दूरी 36 किलोमीटर है। गांववासी यहां लगी शहीद राजनारायण की प्रतिमा के पास आ गए हैं, जिसकी स्थापना वर्ष 1984 में हुई। तीन हजार की आबादी वाले इस गांव के लोग चाहते हैं कि इलाके के गोला-सीतापुर मार्ग का नामकरण राजनारायण मिश्र की स्मृति में हो तथा ग्राम भीखमपुर के चौराहे पर उनका एक भव्य स्मारक बने।
अब मैं उस घर को भी देखना चाहता हूं, जो राजनारायण मिश्र की जन्म स्थली है। ब्रिटिश हुकूमत ने इस मकान को जमींदोज करने के साथ ही इसकी मिट्टी में नमक भरवा दिया था। बाद को हुई तामीर के बावजूद लोनी के बदरंग निशान इसका पीछा नहीं छोड़ते। बरामदे में राजनारायण की धुंधली तस्वीर टंगी है, जिस पर एक माला पहनाई गई है। उनकी शहादत के बाद पत्नी विद्यादेवी पुत्र बनारसीलाल और बेटी केतकी देवी के साथ गांव का अपना घर छोड़कर निकटवर्ती गोला नगर में पलायन कर गई थीं। वे उनके संकट के दिन थे और गुजारे का कोई साधन भी नहीं था।
राजनारायण की शहादत के बाद खीरी जिले में 'राजनारायण स्मारक कोष' की स्थापना की गई थी। एक स्मारक ट्रस्ट भी बना था, जिसका अब कुछ अता-पता नहीं। खीरी शहर में सीतापुर आंख अस्पताल की इमारत वर्ष 1951 में शहीद राजनारायण मिश्र की स्मृति में ही निर्मित हुई, जहां उनके नाम का पत्थर और प्रतिमा स्थापित है। लखनऊ की वह जिला जेल अब पूरी तरह नापैद की जा चुकी है, जहां उन्हें फांसी दी गई थी।
उन दिनों उसी जेल में बंद क्रांतिकारी दल के नेता योगेश चंद्र चटर्जी के दिए वस्त्र पहनकर राजनारायण फांसी पर चढ़े थे। यह उनकी आखिरी इच्छा थी। प्रख्यात कम्युनिस्ट नेता झारखंडे राय भी तब इसी जेल में कैद थे, जिनके जरिये एक समय हमें राजनारायण और उनके मध्य बैरक में हुए पत्र-व्यवहार को देखने-जानने का अवसर मिला। योगेश दा की आत्मकथा इन सर्च ऑफ फ्रीडम में भी राजनारायण पर एक अध्याय है।
अब हम राजनारायण मिश्र के पौत्र असीम कुमार को तलाशते हुए गोला नगर में आ चुके हैं। राजनारायण मिश्र की पत्नी जमीन के एक टुकड़े के लिए यहां के सरकारी दफ्तरों में दर-दर भटकीं, पर जीवन के अंतिम पल तक उन्हें एक छत नसीब नहीं हुई। उनका परिवार आज भी 600 रुपये महीने किराये की एक मामूली कोठरी में किसी तरह गुजर-बसर करने के लिए अभिशप्त है, जबकि देश स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मना रहा है।
क्रांति-पथ पर चलने से पहले राजनारायण ने अपनी पत्नी से पूछा था, 'कहो, मुझे अपने आप जेल जाना चाहिए या देश की जो पुकार है, वह कार्य मैं करूं, परंतु उसकी अंतिम सजा फांसी होगी।' उन कठिन पलों में उस स्त्री ने यही उत्तर दिया था, 'नाथ! आप वही काम करें, जिससे देश का लाभ हो, चाहे मुझे आपको ही क्यों न खोना पड़े। मरना तो सभी को एक दिन है। देश की खातिर मरे, तो मेरा सौभाग्य होगा।' बयालीस के दिन थे और महीना सावन का।
राजनारायण की पत्नी ने उस दिन डिया पूजी थी। सुबह उनके गांव में प्रभात फेरी निकली थी। उनके भाई जनता को इकट्ठा करने गए थे तहसील तथा थाने पर कब्जा करने के लिए। राजनारायण पर हथियार जमा करने की जिम्मेदारी थी। चौदह अगस्त को वह और उनके आठ साथी घर से निकले। पत्नी ने रोचना लगाया, आरती उतारी और कहा, 'नाथ! पीठ मत दिखाना।'
राजनारायण नहीं लौटे। वह पकड़े गए और फांसी चढ़कर शहीदों की टोली में जा मिले। अपनी अंतिम इच्छा में उन्होंने कहा था, 'मेरी हार्दिक कामना यही है कि देश की शासन-सत्ता किसान-मजदूरों के हाथों में जाए।' राजनारायण ने फरारी के दिनों के अपने ब्योरे दर्ज किए, जिनमें क्रांति का खाका, अगस्त-विद्रोह की हलचलों के साथ उनका जीवन-संघर्ष, नवनिर्माण की योजनाएं और सपने ध्वनित हुए हैं। अवधी-सम्राट कवि पं. वंशीधर शुक्ल ने इसी शहीद के लिए लिखा था, ऐसा वीर साहसी कोई हो तो सम्मुख आए, फांसी के दिन वजन जिसका सात पौंड बढ़ जाए।

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