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चीन कोई जेंडर सेंसिटिव देश नहीं है. तमाम सेंसरशिप के बावजूद विश्वव्यापी मीटू मूवमेंट के दौरान चीन से जिस तरह की कहानियां सामने आईं
मनीषा पांडेय चीन कोई जेंडर सेंसिटिव देश नहीं है. तमाम सेंसरशिप के बावजूद विश्वव्यापी मीटू मूवमेंट के दौरान चीन से जिस तरह की कहानियां सामने आईं, जितने ताकतवर और रसूखदार मर्दों पर आरोप लगे, चीन पर एक तरह का वैश्विक सांस्कृतिक दबाव तो था कि वह अपनी स्त्री विरोधी छवि को सुधारे. सेक्सुअल हैरेसमेंट को लेकर चीन अभी भी कड़े कानून के इंतजार में है, लेकिन इस बीच सरकार धीरे-धीरे कुछ ऐसे कदम जरूर उठा रही है, जिससे कार्यक्षेत्र में महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव और उत्पीड़न पर कुछ लगाम लगाई जा सके.
चीन एक नया कानून लाने पर विचार कर रहा है, जिसकी अभी सिर्फ पहला ड्राफ्ट पेश किया गया है. यदि ये कानून लागू हो जाता है तो कोई भी इंम्प्लॉयर नौकरी के इंटरव्यू में किसी महिला से उसका मैरिटल स्टेटस, चाइल्डबर्थ, प्रेग्नेंसी और रिलेशनशिप स्टेटस से जुड़ा कोई भी सवाल नहीं पूछ सकेगा. नए कानून में ऐसे सवाल करना दंडनीय अपराध होगा और इंम्प्लॉयर को जेल भी हो सकती है.
इस खबर को सुनकर दो तरह के भाव एक साथ जगते हैं. जो कानून अमेरिका, यूके समेत दुनिया के 40 से ज्यादा विकसित देशों में कई दशकों से लागू हैं, उस कानून का पहला ड्राफ्ट बनाने में चीन को तीन दशक लग गए. हालांकि चीन के ठीक बगल में विश्व गुरू होने का दावा करने वाले हमारे देश में ऐसा कोई कानून नहीं है. यहां धड़ल्ले से महिलाओं का मैरिटल स्टेटस न सिर्फ पूछा जाता है, बल्कि उसके आधार पर फैसला भी किया जाता है. इससे जुड़े पूर्वाग्रह भी अपनी जगह पूरी तरह जड़ें जमाए बैठे हैं.
यूरोप और अमेरिका का अलिखित कानून
आज जिस दुनिया में मैरिटल स्टेटस पूछना तक दंडनीय अपराध है, उसी दुनिया में कभी मैरिटल स्टेटस के आधार पर ही महिलाओं को नौकरी देने और न देने के फैसले लिए जाते थे. ये कोई बहुत ज्यादा पुरानी भी नहीं, सिर्फ 4-5 दशक पुरानी बात है. उन्नीसवीं सदी के आखिर से लेकर (जब महिलाओं ने घरों से बाहर निकलकर नौकरी करना शुरू किया) तकरीबन बीसवीं सदी के मध्य तक पूरे यूरोप और अमेरिका में ये अलिखित कानून था कि विवाहित महिलाओं को नौकरी पर नहीं रखा जाता था. यदि नौकरी के दौरान कोई स्त्री विवाह करती थी तो उसकी नौकरी को खत्म माना जाता था. हालांकि विधवा स्त्रियों के साथ यह नियम लागू नहीं था. यदि किसी स्त्री का पति मर जाए और उसके बच्चे हों तो वह नौकरी करती रह सकती थी. हालांकि डॉक्यूमेंटेड फैक्ट ये कहते हैं कि पहले और दूसरे वर्ल्ड वॉर के समय इस कानून में कुछ ढील दी गई थी. एक जर्मन फेमिनिस्ट हिस्टॉरियन जेर्डा हेडविग लर्नर ने लिखा है कि इसकी मुख्य वजह तात्कालिक राजनीतिक और आर्थिक
अमेरिकन इकोनॉमिक इतिहासकार, लेबर इकोनॉमिस्ट और वर्तमान में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में इकोनॉमिक्स की प्रोफेसर क्लॉडिया गोल्डिन ने कंपनियों के इंप्लॉयमेंट डेटा के साथ विस्तृत रिसर्च की है कि 1931 से लेकर 1940 तक अमेरिका में किस तरह इस अलिखित नियम का पालन किया जाता रहा कि महिलाओं को नौकरी देने से पहले और नौकरी देने के बाद भी उनके मैरिटल स्टेटस, प्रेग्नेंसी आदि फैसलों से उनका प्रमोशनल, सैलरी और फ्यूचर प्रॉस्पेक्ट प्रभावित होता रहा.
सेकेंड वेव फेमिनिस्ट मूवमेंट के उभार के साथ अमेरिका समेत पूरी दुनिया में ये सवाल उठना शुरू हुआ कि कोई समाज मातृत्व को महिलाओं के विकास को रोकने के लिए एक हथियार की तरह नहीं इस्तेमाल कर सकता. फेमिनिन मिस्टीक जैसी ऐतिहासिक किताब लिखने वाली फेमिनिस्ट राइटर बेट्टी फ्राइडेन ने लिखा कि यह पितृसत्ता का मर्दवादी दोहरा मापदंड है कि एक तरफ तो वो मातृत्व को स्त्री के सबसे बड़े गौरव की तरह पेश करते हैं और दूसरी ओर उसी चीज को स्त्रियों के खिलाफ एक हथियार की तरह भी इस्तेमाल करते हैं.
यूरोप में भी सेकेंड वेव फेमिनिस्ट मूवमेंट के दौरान औरतें लगातार यह सवाल उठाती रहीं कि मैरिटल स्टेटस और बच्चों का औरत के कॅरियर से कोई लेना-देना नहीं है. जिस तरह के मर्दवादी पूर्वाग्रह कार्यक्षेत्र में स्त्रियों के खिलाफ काम करते हैं, उससे निपटने के लिए जरूरी है कि ये कानून बनाया जाए, जिसमें नौकरी देते वक्त स्त्रियों के मैरिटल स्टेटस और प्रेग्नेंसी से जुड़े सवाल करना दंडनीय अपराध हो. इस तरह के कानूनी क्लॉज हों, जो इन प्रैक्टिसेज को पूरी तरह प्रतिबंधित करते हों.
ये सेकेंड वेव फेमिनिस्ट मूवमेंट की मेहनत और लड़ाइयों का ही नतीजा था कि 1957 में नीदरलैंड इस तरह का कानून बनाने वाला दुनिया का पहला देश बना. नीदरलैंड में मैरिज बार को समाप्त किया गया और ये कानून लागू किया गया, जिसके तहत किसी भी महिला से नौकरी के इंटरव्यू में उसके मैरिटल स्टेटस से संबंधित कोई भी सवाल डायरेक्टली या इनडायरेक्टली पूछना दंडनीय अपराध हो गया. कोई इंटरव्यूअर ये भी नहीं पूछ सकता था कि "आप मिस या मिसेज, क्या कहलाया जाना पसंद करेंगी?" 1973 में आयरलैंड में ये कानून बना.
आज की तारीख में अमेरिका, यूके, नॉर्वे, स्वीडन, जर्मनी, फ्रांस, आइसलैंड, डेनमार्क, फिनलैंड, न्यूजीलैंड समेत दुनिया के 40 से ज्यादा देशों में यह कानून लागू है, जो वर्कप्लेस पर नौकरी के अवसरों से लेकर प्रमोशन और सैलरी तक में किसी भी तरह के जेंडर भेदभाव को रोकने के लिए कड़े प्रावधानों का पालन करता है.
हालांकि आज भी दुनिया में 18 ऐसे देश हैं, जहां मेल गार्जियनशिप का कानून है और जहां औरतें अपने पिता या पति की लिखित अनुमति के बगैर न यूनिवर्सिटी में दाखिला ले सकती हैं, न नौकरी कर सकती हैं, न पासपार्ट बनवा सकती हैं, न रेलवे और हवाई जहाज का टिकट बुक कर सकती हैं और न ही यात्रा कर सकती हैं.
ऐसा ही नहीं, इसी साल जुलाई तक इंडोनेशिया में आर्मी में भर्ती होने वाली महिलाओं के वर्जिनिटी टेस्ट का भी कानून था, जिसे इसी साल अगस्त में समाप्त कर दिया गया. औरतों ने दो दशक लंबी लड़ाई लड़ी इस कानून को खत्म करवाने के लिए.
आज भी दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में ऐसे बहुत से लिखित और अलिखित कानून हैं, जो महिलाओं के साथ भेदभाव का पूरी श्रद्धा से पालन करते हैं. मर्दों को ऐसे किसी कानून से कभी कोई उज्र नहीं रहा. चाहे इंडोनेशिया हो, यूरोप-अमेरिका हो या फिर मौजूदा चीन का बदलाव हो, ऐसे हर बदलाव के पीछे औरतों की आवाज और औरतों की लंबी लड़ाई रही है. मर्दों को खुद कभी ये इलहाम नहीं हुआ कि वो औरतों के साथ जो कर रहे हैं, वो गलत और भेदभावपूर्ण है.
उम्मीद है, चीन में जल्द ही यह कानून लागू होगा. साथ ही उम्मीद की जानी चाहिए कि लड़कियों की शादी की उम्र 18 से बढ़ाकर 21 करने के लिए हलकान हमारा देश भी ऐसे कठोर कानून बनाएगा, जो वर्कप्लेस पर स्त्रियों के साथ किसी भी तरह के भेदभाव के प्रति जीरो टॉलरेंस का रुख अपनाएगा. तभी सही मायनों में स्त्री सशक्तिकरण मुमकिन होगा.
Rani Sahu
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