सम्पादकीय

हाशिये पर: वे जो सुर्खियों में नहीं हैं, इसलिए बेकार हो जाती हैं तमाम पुनर्वास योजनाएं

Neha Dani
16 Dec 2022 2:26 AM GMT
हाशिये पर: वे जो सुर्खियों में नहीं हैं, इसलिए बेकार हो जाती हैं तमाम पुनर्वास योजनाएं
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मौतें और भेदभाव सीवरों की सफाई का हिस्सा हैं। इसे जारी रखने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।
विश्व कप फुटबॉल और चुनावी विश्लेषण के सुर्खियों में रहने के साथ एक बार फिर एक बहुत ही गंभीर सवाल धीरे-धीरे सार्वजनिक चर्चा में छाए रहने की संभावना है। सीवर और सेप्टिक टैंक की खतरनाक सफाई करते समय 'दुर्घटनाओं' के कारण भारतीयों की मौत वर्ष 2022 में भी क्यों जारी है?
इस हफ्ते केंद्र सरकार ने लोकसभा को बताया कि देश में पिछले तीन वर्षों (2019 से 2022) में हाथ से मैला ढोने के कारण किसी की मौत नहीं हुई, लेकिन इस अवधि के दौरान 233 लोगों की मौत 'सीवर और सेप्टिक टैंक की खतरनाक सफाई करते समय दुर्घटनाओं के कारण' हुई। उसके तुरंत बाद, सफाई कर्मचारी आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक, बेजवाड़ा विल्सन ने ट्वीट किया, 'सरकार सभी सीवर और सेप्टिक टैंक में हुई मौतों को केवल दुर्घटनाओं बताने की इच्छुक है। ऐसे में, इस अप्रतिष्ठित जाति-आधारित कुप्रथा को समाप्त करने की उम्मीद नहीं की जा सकती है।' सामाजिक न्याय और अधिकारिता राज्यमंत्री रामदास आठवले ने एक लिखित उत्तर में लोकसभा को बताया कि 2022 में सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान कम से कम 48 श्रमिकों की मौत हुई, जिनमें दिल्ली के चार और हरियाणा के 13 (देश में सर्वाधिक) सफाईकर्मी शामिल थे। सरकार ने कहा कि 2022 में सीवर की खतरनाक सफाई के दौरान मरने वाले 48 लोगों में से 43 को अब तक मुआवजा दिया जा चुका है।
पिछले साल (दिसंबर, 2021) राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने कहा था कि पिछले पांच वर्षों में मैला ढोने से किसी की मौत की सूचना नहीं मिली है। हालांकि, 2017 से 2021 के बीच सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान 321 लोगों की जान चली गई।
ऐसा क्यों है कि साल-दर-साल अनुसूचित जाति के लोग इस तरह के क्रूर अपमानजनक काम करते हुए मर जाते हैं? साल-दर-साल मैला ढोने की कुप्रथा को खत्म करने के लिए उठाए जा रहे कदमों पर संसद में सवाल उठाए जाते हैं। आखिर हम इस पर और जोरदार ढंग से चर्चा क्यों नहीं करते? गंदे शौचालयों में हाथ से मानव मल को साफ करने और उसे सिर पर ढोकर ले जाने की अनुमति कानून में नहीं है। 'मैनुअल स्कैवेंजर्स के नियोजन का प्रतिषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम, 2013' के तहत हाथ से मैला ढोने की कुप्रथा को प्रतिबंधित कर दिया गया है। लेकिन वास्तविकता में इस जाति-आधारित अमानवीय प्रथा के खत्म होने का कोई संकेत नहीं दिखाई देता है।
यह एक पुरानी कहानी है। पिछली और वर्तमान सरकारें, सीवरों और सेप्टिक टैंकों की खतरनाक सफाई को रोकने के लिए स्वयं द्वारा उठाए गए कदमों को गिनाती हैं। लेकिन ऐसी मौतें लगातार जारी हैं। एक के बाद एक आने वाली सरकारों ने मरने वालों के परिवारों को मुआवजा देने की भी बात कही है।
हमें इन सबके प्रति उदासीन नहीं रहना चाहिए। हमें सवाल पूछना चाहिए कि मौतें क्यों हो रही हैं और मानवाधिकार के पैरोकारों और जमीनी कार्यकर्ताओं की बातें सुननी चाहिए, जो जाति व्यवस्था में निहित इस अमानवीय प्रथा से संबंधित प्रमुख प्रश्न उठा रहे हैं।
मैला ढोने की प्रथा के बारे में एक सार्थक राष्ट्रव्यापी बहस का प्रारंभिक बिंदु विश्वसनीय आंकड़ा है। जनवरी, 2021 में, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) के एक आधिकारिक बयान में कहा गया था, 'मैन्युअल स्कैवेंजिंग पर एनएचआरसी द्वारा आयोजित क्षेत्रीय कार्यशाला में यह दृढ़ता से महसूस किया गया था कि कई राज्य यह दावा करते हैं कि उनके यहां एक भी मैला ढोने वाले और गंदे शौचालय नहीं हैं, लेकिन यह सच नहीं है। इसलिए आयोग ने सिफारिश की है कि देश के किसी भी क्षेत्र में मैला ढोने वालों की संख्या के बारे में संबंधित अधिकारियों द्वारा गलत सूचना दिए जाने के मामले में जवाबदेही तय की जानी चाहिए।'
हमारे पास इस बात का विश्वसनीय आंकड़ा होना चाहिए कि कितने भारतीय अब भी इस घृणित गतिविधि में शामिल हैं। फिर हमें यह समझने की जरूरत है कि मैला ढोने वालों के पुनर्वास के लिए बनाई गई विभिन्न योजनाएं पूरी तरह से काम क्यों नहीं कर पाई हैं। ऐसी पुनर्वास योजनाओं में एकमुश्त नकद सहायता, कौशल विकास प्रशिक्षण और सब्सिडी शामिल हैं।
संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट (2020) में कुछ ऐसे क्षेत्रों को चिन्हित किया गया है, जिन पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, समिति ने बताया कि 31 मार्च, 2020 तक देश में 63,246 मैला ढोने वालों की पहचान की गई थी। समिति ने निराशा जताई कि एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण में चिह्नित 48,687 हाथ से मैला ढोने वालों में से केवल 30,246 सफाई कर्मियों की मुक्ति और पुनर्वास के लिए स्वरोजगार योजना (एसआरएमएस) के तहत एकमुश्त नकद सहायता (ओटीसीए) प्रदान की गई थी।
'कथित तौर पर, राज्य सरकारों द्वारा प्रदान किए गए बैंक खातों, पते आदि के अधूरे विवरण के कारण शेष मैला ढोने वालों को ओटीसीए प्रदान नहीं किया जा सका। समिति के विचार से सरकार की प्रतिबद्धता के अनुसार सभी मैला ढोने वालों को ओटीसीए प्रदान किया जाना चाहिए। इसलिए वह विभाग से सक्रिय रूप से संबंधित राज्य सरकारों से अपेक्षित विवरण प्राप्त करने का आग्रह करती है। समिति ने यह भी रेखांकित किया कि अभी तक 9,563 मैला ढोने वालों या उनके आश्रितों के एक छोटे से हिस्से ने कौशल विकास प्रशिक्षण का विकल्प चुना है। समिति को लगता है कि भले ही इस योजना के तहत कौशल विकास प्रशिक्षण स्वैच्छिक है, लेकिन विभाग द्वारा अधिक से अधिक हाथ से मैला ढोने वालों को कौशल प्रशिक्षण का विकल्प चुनने के लिए प्रोत्साहित करने के प्रयास किए जाने चाहिए, ताकि वे बेहतर रोजगार के अवसरों का सृजन/उपयोग कर सकें और गरिमापूर्ण जीवन जी सकें।'
आधिकारिक तौर पर भारत मैला ढोने और सीवर व सेप्टिक टैंक की सफाई के बीच अंतर करता है। लेकिन कठोर वास्तविकता यह है कि मौतें और भेदभाव सीवरों की सफाई का हिस्सा हैं। इसे जारी रखने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।'

सोर्स: अमर उजाला

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