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मणिपुर का राजनीतिक परिदृश्य, चुनावों में कौन से मुद्दे हैं बड़े
अमिय भूषण
मणिपुर का चुनावी समर अब जोर पकड़ रहा है। 60 सीटों वाले राज्य में चुनाव दो चरणों में होने हैं। चुनाव आयोग द्वारा मतदान तिथि परिवर्तन उपरांत अब 28 फरवरी और 5 मार्च को मणिपुर में मतदान है। फिलहाल भाजपा प्रत्याशी सूची जारी होने के बाद से यहां का राजनैतिक तापमान बढ़ा है।
चाल चरित्र और चेहरे वाली पार्टी पर टिकटों मे परिवारवाद का आरोप बखेड़े का कारण है। कांग्रेसी पृष्ठभूमि से निकल पांच साल मुख्यमंत्री रहे एन.बिरेन सिंह के परिजनों को प्रत्याशी बनाए जाने के बाद भाजपा में हंगामा बरपा है। कांग्रेस एक बार फिर पुराने मुख्यमंत्री ओकराम ईबोबी सिंह के सहारे चुनावों में है। वहीं भाजपा की साझेदार रही क्षेत्रीय पार्टीयां चुनावी अखाड़े में भाजपा के सामने खड़ी है।
मणिपुर चुनाव में मुद्दों की बात करें तो यहां तीन मुद्दे सर्वाधिक चर्चा में हैं। पहला, सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (आफस्पा) वहीं दूसरा शांति और तीसरा मुद्दा विकास का है। आफस्पा की बात करें तो नागालैंड मे हुई एक दुखांत घटना के बाद से पड़ोसी मणिपुर मे भी इसको हटाए जाने की मांग जोरो पर है।ऐसे में कांग्रेस और क्षेत्रीय दल इसको लेकर मुखर है।
कांग्रेस जहां प्रथम कैबिनेट मे इसे निरस्त करने की घोषणा के साथ चुनावी मैदान में है। वही एनपीएफ और एनपीपी पार्टी के लिए पहाड़ों मे अपने पक्ष के लिए ये आवश्यक है। जबकी भाजपा के लिए ये मुद्दा असमंजस भरा है। इसलिए वो इसे पुराना एवं जटिल बताकर कांग्रेस को भावनाओं से खिलवाड़ न करने की नेक सलाह दे रही है।
मुख्यमंत्री एन.बिरेन सिंह इस पर अपना पक्ष रख चुके हैं। उनका कहना है-
आफस्पा से सहमति न होने की सूरत में भी राष्ट्रीय सुरक्षा सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। दरसल यह अधिनियम अशांत क्षेत्र विशेष मे सैन्य बल को विशेष अधिकार देता है। यह कानून संसद से सन 1958 मे पारित किया गया था। यदा कदा सीमावर्ती अशांत क्षेत्रों मे इसके उल्लंघन के मामले भी सुनाई पड़ते हैं।
कई बार ये महज आरोप होते हैं वही कई मामले में मानवीय चूक भी हो सकते हैं। जिसे मानवीय भूल या दुर्घटना मान कर देखने की जरूरत है। किंतु देश का एक तबका इसे मानवाधिकार हनन का मामला बता दुष्प्रचार में लगा रहता है। वही कांग्रेस जैसे दल की कोशिश ऐसे भावनात्मक मुद्दों से राजनीतिक लाभ लेने की होती है। बात अगर चुनाव के दूसरे प्रमुख मुद्दे की करे तो वो शांति, सदभाव है।
स्वतंत्रता के बाद पहली बार यह क्षेत्र पूर्णरूपेण शांत है। यह भाजपा सरकार के लिए भुनाने को एक उपलब्धि है। जिसे भाजपा के खिलाफ खड़ी एनपीएफ और एनपीपी जैसी स्थानीय पार्टी भी स्वीकार रही है। पहली बार इस सरकार में मणिपुर ने शांति देखी है। पांच सालों में न कोई बंदी और न ही कही हिंसक प्रदर्शन हुए हैं।
विकास है सबसे अहम मुद्दा
तीसरा महत्वपूर्ण मुद्दा यहां विकास का है। म्यांमार और बांग्लादेश से घिरा ये भारतीय राज्य विकास से कोसों दूर रहा है। प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर और सुंदर प्रकृति वाले प्रांत में पर्यटन और व्यापार की काफी संभावनाएं हैं। किंतु हाल के कुछ वर्षों को छोड़ दें तो मणिपुर न केवल अशांत राज्य रहा है अपितु यहां संचार एवं यातायात के ढांचागत संरचनाओं का भी अभाव रहा है। जबकि यह पूर्वी एवं दक्षिण पूर्व के एशियाई देशों को जोड़ने का मणिबंध, कलाई हो सकता है। विकास के मुद्दे पर भाजपा सरकार के पास बताने को काफी कुछ है। राष्ट्रीय स्तर के शैक्षणिक संस्थानो से लेकर स्वास्थ्य संबंधित कई बड़े केंद्र हालिया दिनों में खुले हैं।
पहाड़ों में बेहतर आधारभूत ढांचा और स्वास्थ्य सेवा एक बड़ा मुद्दा है।
वहीं इंफाल हवाई अड्डे को विकसित कर अन्तर्राष्ट्रीय उड़ानों के अनुरूप बनाया गया है। अब ये गुहाटी के बाद पूर्वोत्तर का सबसे बड़ा विमान पत्तन है। बात अगर सड़क और रेलवे के आधारभूत ढांचे विकास की करें तो इस मोर्चे पर भी मणिपुर आगे है। मणिपुर में रेल लाने का श्रेय भाजपा सरकार को है। जीरीबाम तक चालू ट्रेन अब इम्फाल पहुंचने को है। वही इम्फाल से म्यांमार सीमा के मोरहे तक इस रेलवे को ले जाने का निर्णय भी लिया जा चुका है।
केंद्र सरकार की दरियादिली से यहां 16 राष्ट्रीय राजमार्ग निर्माणाधीन हैं। जबकि भारत म्यांमार और थाईलैंड को जोड़ने वाली ट्रांस रोड योजना भी अब अंतिम चरण में है। इन सब के बीच यहां के नागा पहाड़ी जिले तामेंगलोंग तक पहली मालगाड़ी दौर चुकी है। यह नागा स्वाभिमान की प्रतीक रानी गाइदिन्ल्यू का गृह जिला है। जहां केंद्र सरकार के पहल से जनजातीय नायकों के स्मृति में एक संग्रहालय भी निर्माणाधीन है।
भाजपा और कांग्रेस के वादे
बात अगर मणिपुर चुनाव के अन्य मुद्दों की करे तो निश्चित ही बुनियादी जरूरतों के साथ पहाड़ों में बेहतर आधारभूत ढांचा और स्वास्थ्य सेवा एक बड़ा मुद्दा है। मणिपुर में पहाड़ क्षेत्रफल का 90% है। वहीं आबादी का 40% भी यही निवास करती है। ऐसे मे असमान विकास यहां सामाजिक विद्वेष का कारण भी हो सकती है। मैतेई बनाम नागा एवं कूकी जनजाती संघर्ष देखने को मिल सकता है।
इन चुनावों में कांग्रेस माउंटेन इकनॉमी नाम से पहाड़ों में समान विकास का वादा कर रही है। वहीं भाजपा नागा कुकी जनजाति बाहुल्य पहाड़ों में पहुंचाई गई सड़क और हालिया मालगाड़ी रेल लाने का हवाला दे वोट मांग रही है। वैसे जनजातीय समुदाय मे अपनी पहुंच को बढ़ाने के लिए भाजपा सरकार ने कई योजनाएं भी चलाई है।
गो टू हिल और गो टू विलेज के माध्यम से कल्याणकारी योजनाओं को सुदूर पहाड़ों में ले जाया गया है। मणिपुर चुनाव को अगर दलों के हवाले से समझें तो तस्वीर भाजपा बनाम कांग्रेस की बनती दिखती है। जहां क्षेत्रीय एवं अन्य दल सीटों की सेंधमारी मे लगे हैं। सीटों और मत के आधार पर विचार करे तो पहाड़ों में 31सीटें है जबकि घाटी में 29 सीटें आती है।
वहीं आरक्षित सीटों की संख्या 20 है, जिनमें से 19 केवल जनजाति के लिए आरक्षित है। जिस पर दावा केवल नागा एवं कुकी समुदाय का बनता है। बात घाटी की हो तो यह हिंदू मैतेई बाहुल्य है। वहीं पहाड़ नागा और कुकी जनजाति बाहुल्य है। दुर्योग से कुकी पूरी तो नागा जनजाति की बहुसंख्यक आबादी ईसाई मत मे परिवर्तित हो चुकी है। ऐसे में यहां के चुनावों पर इसका भी बड़ा असर होता है।
भाजपा पिछले चुनावों में सर्वाधिक मत 36.28% लेकर भी यहां के पहाड़ों में कमाल दिखाने में असफल रही थी। वहीं कांग्रेस, एनपीएफ और एनपीपी जैसे दल पहाड़ों के नाते ही जीतकर आए थे। कांग्रेस तो मत प्रतिशत मे भाजपा से कम होकर भी सीटों में आगे थी। ऐसे में अगर भाजपा को सरकार बनानी है तो उसे हिंदू मैतेई मतदाताओं के साथ ही नागा एवं कुकी मतदाताओं के बीच अपनी स्वीकार्यता को सिद्ध करना होगा। बात अगर वयोवृद्ध नेता ईबोबी सिंह के नेतृत्व में उतरी कांग्रेस की करें तो वो अब मैतेई मतदाताओं की पहली पसंद नहीं रही।
वही नागा बाहुल्य सीटों पर भी वो पहले की तरह प्रभावशाली उपस्थिति नहीं रखती है। ईबोबी सिंह के कार्यालय और तत्कालीन गृहमंत्री गायखंगम के तौर तरीकों को लेकर नागा समुदाय में कांग्रेस का विरोध है। उसे यहां कुकी समुदाय का पक्षधर मान हितों पर चोट करने वाला समझा जा रहा है।
ऐसे में नागा बाहुल्य सीटों पर मुख्य मुकाबला एनपीएफ बनाम भाजपा का बनता दिख रहा है। ऐसे में 41.29% ईसाई और करीब 8.4% मुस्लिम आबादी वाले राज्य मे कांग्रेस निश्चित ही अल्पसंख्यक मतों का ध्रुवीकरण चाहेगी। चुनावों में वो अलगाववादी विचारों का समर्थन भी कर सकती है। जिसकी बानगी उसके चुनाव घोषणा-पत्र में है।
भाजपा पिछले चुनावों में सर्वाधिक मत 36.28% लेकर भी यहां के पहाड़ों में कमाल दिखाने में असफल रही थी। वहीं कांग्रेस, एनपीएफ और एनपीपी जैसे दल पहाड़ों के नाते ही जीतकर आए थे।
कांग्रेस आफस्पा हटाने के साथ ही सरकारी हिरासत में रहे मीडियाकर्मियों को मुआवजे देने की बात कर रही है। जबकि इनकी गतिविधियां संदिग्ध रही है। वहीं हिंदू बनाम मुस्लिम का विवाद भी यहां पहली बार देखने को मिल रहा है। चुनाव तिथियों के आने के बाद का एक गोकशी वीडियो बेहद चौकाने वाला है।
यहां गणतंत्र दिवस पर मुस्लिम युवक समूह द्वारा एक गाय को भाजपाई झंडे मे लपेटकर बेरहम तरीके से काटा गया। इस विभत्स सार्वजनिक घटना में शीर्षस्थ भाजपा नेतृत्व और महिलाओं के लिए अपमानजनक बोला गया।
ऐसी घटनाओं पर चुप्पी और आफस्पा हटाने का जोर शोर से नारा निश्चित ही कांग्रेस के अलगाववादी संगठन एवं चर्च, मौलवियों के समर्थन हेतु एक प्रयास है। फिलहाल मणिपुर के मसले पर कांग्रेस का रुख कुछ ऐसा ही है। वही भाजपा मणिपुर में तेजी से पसरते राष्ट्रवाद के सहारे इन चुनावों में खड़ी है।
हाल के दिनों में तेज गति विकास, शांति और उग्रवादी समूहों के कमर तोड़ कार्यवाही के बाद वो यहां की घाटी में पहली पसंद बन कर उभरी है। वही पहाड़ों में भी करीब आधे दर्जन सीटों पर उसकी दमदार उपस्थिति है। किंतु टिकट बंटवारे के बाद हुए असंतोष ने भाजपा के लिए चुनौतियों को बढ़ाया है।
दरसल निर्दलियों की जीत और क्षेत्रीय दलों के पनपने के लिए मणिपुर की मिट्टी बेहद मुफीद है। पुराने चुनाव कुछ ऐसा ही बताते है। ऐसे में भाजपा के असंतोष और कांग्रेस में कटी टिकटों ने यहां कई नए दलों को भी उभरने का मौका दिया है।
जदयू यहां विधायक रहे 15 प्रत्याशियों के सहारे मैदान में हैं। वहीं शिवसेना मणिपुर विधानसभा के पूर्व उपाध्यक्ष भाजपा नेता टी थांगजालम के सहारे अपनी जमीन टटोल रही है। जबकी मणिपुर भाजपा सरकार की सहयोगी रही एनपीपी 42 सीटों पर तो एनपीएफ 10 सीटों पर चुनाव लड़ रही है।
इसमें एनपीएफ के 19 प्रत्याशी तो भाजपा के संभावित टिकटार्थी थे। ऐसे में इन दलों का उभार निश्चित ही भाजपा और कांग्रेस जैसे स्थापित दलों को नुकसान पहुंचायेगा। पूर्वोत्तर भारत के इस राज्य में प्रति विधानसभा क्षेत्र मतदाता का औसत करीब 30 से 35 हजार है। ऐसे में स्थानीय लोगो से जुड़ा कोई भी प्रत्याशी महज कुछ हजार मतों के सहारे चुनावी परिणाम बदल सकता है। पिछले चुनाव में यहां विधानसभा की आधी से अधिक सीटों पर जीत हार का अंतर दो हजार से भी कम मतों का रहा है।
ऐसे में यहां मतों का मामूली बिखराव भी सत्ता के दौर में खड़े दल विशेष पर भारी पड़ सकता है। अगर बात इस चुनाव में खड़े अन्य दलों के चुनावी रणनीति की करे तो इन्हें भी पता है ये अपने दम पर सरकार नहीं बना सकते। किंतु कुछेक सीटों की बदौलत नई सरकार का हिस्सा हो सकते है।ऐसे में यहां जदयू,लोजपा, एनपीएफ और एनपीपी पार्टी केंद्र से लेकर विभिन्न प्रान्तों में भाजपा की सहयोगी होने को भुना रही है।
दरसल पूर्वोत्तर राज्य के चुनावों में केंद्र सरकार से संबद्ध होना दल विशेष को फायदा पहुंचाता रहा है। एनपीएफ मणिपुर के साथ ही पड़ोसी राज्य नागालैंड मे भाजपा के साथ सरकार चला रही है। जबकि मेघालय के संगमा परिवार की एनपीपी पार्टी मणिपुर मे भाजपा की सहयोगी तो मेघालय मे भाजपा के सहयोग से सरकार चला रही है।
अगर बात इन दलों के चुनौती की करें तो जदयू तीन वही एनपीपी करीब नौ सीटों पर मुकाबले में दिखती है। जबकि नागा पहाड़ी क्षेत्र की 10 सीटों पर कांग्रेस और भाजपा को एनपीएफ से जूझना होगा। ऐसे में ये देखना बेहद दिलचस्प होगा की भाजपा और कांग्रेस पार्टी इनकी चुनौतियों से कैसे निपटती है। बहरहाल मणिपुर का चुनाव बेहद रोचक हो चला है। कभी चुनावों को लेकर उदासीन रहने वाले राज्य में अब चुनावी बयार बह रही है।
वही चुनाव बहिष्कार और चुनावी प्रक्रिया के विरोधी वाले प्रदेश में प्रत्याशी घोषित न किए जाने की सूरत में अब धरने प्रदर्शन हो रहे हैं। यहां की फिजाओं मे घोला गया हिंदी विरोध भी भारत विरोध की तरह काफूर सा हो गया है। कुछ दिल्ली की पहल और कुछ यहां के दमदार खिलाड़ियों के नाते ये सकारात्मक बदलाव दिख रहा है।
वास्तव में ये लोकतंत्र में बढ़ती आस्था,संघवाद मे दिखते भविष्य का दोतक है। वहीं यह भारतीयता में महसूस होते गर्व का भी सूचक है। जहाँ तक चुनावों की बात है तो फिलहाल यहां की नई सरकार का रास्ता इन दलबदलुओं के प्रदर्शन और प्रभाव पर निर्भर करता है। वैसे फिलहाल यहां की फिजाओं मे कमल फूल भगवा दल छाया है।
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