सम्पादकीय

आरक्षण की आग में जलता मणिपुर

Rani Sahu
3 Jun 2023 12:36 PM GMT
आरक्षण की आग में जलता मणिपुर
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देश के राजनीतिक दल जब तक आरक्षण की आग में वोटों की रोटी सेकते रहेंगे, तब तक मणिपुर जैसे हादसे होते रहेंगे। आरक्षण की मांग को लेकर मणिपुर जल रहा है। मैतई समाज को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने की मांग को लेकर हिंसा भडक़ी हुई है। इसमें कई लोगों की जानें जा चुकी हैं। दंगाइयों ने भारी संख्या में सरकारी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाया है। मणिपुर में 16 जिले हैं जिसमें से वैली 10 फीसदी है और यहां पर 53 प्रतिशत मैतेई समुदाय के लोग रहते हैं। इसके साथ ही 90 फीसदी पहाड़ी इलाका है और यहां पर 42 प्रतिशत कुकी, नागा के अलावा दूसरी जनजाति रहती है। गैर-जनजातीय मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने के मणिपुर उच्च न्यायालय द्वारा राज्य सरकार को दिए गए निर्देश के बाद मणिपुर में सांप्रदायिक हिंसा भडक़ गई। 1993 में भी मणिपुर में हिंसा हुई थी, तब एक दिन में नागाओं की तरफ से 100 से ज्यादा कुकी समुदाय के लोगों को मार दिया गया।
यह हिंसक घटना जातीय संघर्ष का परिणाम थी। अब एक बार फिर मणिपुर हिंसा से जूझ रहा है, 54 मौतें हो चुकी हैं। मणिपुर का मामला पहला नहीं है, जहां आरक्षण को लेकर देश जला है। इससे पहले भी आरक्षण को लेकर कई हिंसक आंदोलनों में देश जला है। ऐसे हिंसक आंदोलनों में देश को भारी कीमत चुकानी पड़ी है। ओबीसी आरक्षण के खिलाफ आरक्षण की आग में देश कई बार झुलस चुका है। पहली बार मंडल कमीशन की सिफारिशों को 1990 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने लागू किया तो देश में सवर्ण समुदाय के लोग इसके विरोध में सडक़ पर उतर आए। ओबीसी आरक्षण के खिलाफ देशभर में प्रदर्शन हुआ। इसके विरोध में आत्मदाह और ऐसी कई घटनाएं सामने आई। कई जगह आगजनी-तोडफ़ोड़ तक हुई। वर्ष 2016 में हुए जाट आंदोलन के दौरान काफी हिंसा हुई थी। आंदोलनकारियों ने जाट समुदाय को ओबीसी में शामिल करने की मांग को लेकर काफी विरोध प्रदर्शन किया था। हरियाणा में जमकर हिंसा, आगजनी व तोडफ़ोड़ हुई थी। इस हिंसक आंदोलन में 30 लोगों की जान चली गई। गुजरात में पाटीदार समुदाय के लोगों ने ओबीसी में शामिल करने को लेकर 2015 में सबसे बड़ा प्रदर्शन किया था। गुजरात में हिंसा और आगजनी की घटनाएं सामने आईं। इलाके में कफ्र्यू लगाना पड़ गया था। प्रदर्शनकारियों ने सरकारी संपत्ति को भारी नुकसान पहुंचाया था। हरियाणा के जाट आरक्षण आंदोलन में करीब 34 हजार करोड़ का नुकसान हुआ था। देश में अब तक आरक्षण आंदोलन से लाखों करोड़ का नुकसान हो चुका है। राजनीतिक दल इसकी भरपाई भी देश के आम लोगों से ही करते हैं। आरक्षित वर्ग भी इससे अलग नहीं है। आर्थिक नुकसान से भरपाई के लिए बढ़ाए गए टैक्स की मार उन पर भी पड़ती है। गुर्जर आंदोलन : आरक्षण की मांग को लेकर राजस्थान में गुर्जर समुदाय ने काफी दिनों तक प्रदर्शन किया था।
आंदोलनकारियों ने लंबे समय तक रेलवे ट्रैक को जाम रखा। इसका प्रभाव भी पूरे देश पर पड़ा था। पुलिस और आंदोलनकारी आमने-सामने आ गए थे। इस आंदोलन के दौरान गोलीबारी की भी घटना सामने आई थी। इसमें 20 लोगों की जान चली गई थी। मराठा आंदोलन : महाराष्ट्र में मराठा आंदोलन काफी चर्चा में रहा है। आंदोलनकारियों ने हिंसक झड़प में आगजनी और तोडफ़ोड़ की घटनाओं को अंजाम दिया था। उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में निषाद आरक्षण आंदोलन के चलते एक सिपाही को अपनी जान गंवानी पड़ी। विकास के बजाय आरक्षण राजनीतिक दलों के सत्ता पाने का आसान रास्ता बना हुआ है। देश में आरक्षण के हिंसक इतिहास के बावजूद राजनीतिक दल इसे खोना नहीं चाहते। देश के करीब आधा दर्जन राज्य ऐसे हैं, जो 50 फीसदी आरक्षण का दायरा बढ़ाने के पक्ष में खड़े हैं, ताकि उनका राजनीतिक और सामाजिक समीकरण मजबूत हो सके। इनमें महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात, तमिलनाडु, झारखंड और कर्नाटक जैसे राज्य शामिल हैं। कर्नाटक ने भी आरक्षण बढ़ाया था। इसके अलावा बिहार, मध्य प्रदेश और अब छत्तीसगढ़ में भी आरक्षण बढ़ाने की मांग ने जोर पकड़े हुए है। इतना ही नहीं राजनीतिक दल वोटों की खातिर नौकरियों में भी अपने राज्य के लोगों के लिए आरक्षण लागू करने में पीछे नहीं रहे हैं। इससे लगता है कि क्षेत्रीय पार्टी भारत का हिस्सा होने के बजाय स्वतंत्र राष्ट्र हैं। राज्यों में निवासियों के लिए रोजगार आरक्षण विधेयक लाया गया है। ऐसा करने वाला झारखंड देश का सातवां राज्य है। इससे पहले आंध्रप्रदेश, हरियाणा, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक व बिहार में भी यह नियम लागू किया गया है।
देश की एकता-अखंडता और सौहार्द के बजाय राजनीतिक दलों की किसी भी सूरत में सत्ता पाने की महत्वाकांक्षा ने खून-खराबे, तोडफ़ोड़ और हिंसा को जन्म दिया है। आरक्षण आंदोलनों से न सिर्फ हजारों करोड़ की सरकारी-गैर सरकारी संपत्ति का नुकसान हुआ है, बल्कि देश में जातिवाद की जहरीली जड़ों को सींचने का काम किया गया है। हकीकत में राजनीतिक दलों का पिछड़ी और दलित जातियों की भलाई से सरोकार नहीं है। यदि ऐसा होता तो आजादी के 75 साल बाद देश में कोई दलित और पिछड़ा नहीं रहता। इन जातियों और समुदायों के लिए विशेष योजनाओं को लागू करके इन्हें देश की मुख्य धारा में शामिल करने के गंभीर प्रयास करने के बजाय राजनीतिक दलों ने आरक्षण के जरिए देश के आंतरिक विभाजन को हवा दी है। सत्ता के लिए यह रास्ता राजनीतिक दलों को ज्यादा आसान लगता है। जरूरतमंदों के लिए योजनाएं बना कर क्रियान्वित करना टेड़ी खीर है। भ्रष्टाचार के कारण योजनाओं का लाभ पिछड़े और दलितों तक नाममात्र का पहुंच पाता है। यही वजह भी है कि आरक्षण के साथ ही राजनीतिक दल चुनाव के दौरान धनबल से अपने राजनीतिक मंसूबे पूरा करने के प्रयास करते रहे हैं। चुनाव आयोग द्वारा जब्त की जाने वाली हजारों की राशि इसका प्रमाण है। राजनीतिक दलों ने आरक्षण के जरिए सत्ता प्राप्ति का छोटा रास्ता निकाला हुआ है। आरक्षण की बहती गंगा में हाथ धोने से किसी भी दल को गुरेज नहीं है। बेशक यह रास्ता देश में सामाजिक भेदभाव, कटुता और दूरियां बढ़ाने वाला ही क्यों न हो, किन्तु राजनीतिक दलों को यह मुफीद लगता है। यह निश्चित है कि देश के राजनीतिक दल अपने क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर उठकर जब तक समग्र रूप से देशहित की नीतियां नहीं अपनाएंगे, तब तक मणिपुर जैसे शर्मनाक हादसे होते रहेंगे।
योगेंद्र योगी
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal
Rani Sahu

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