सम्पादकीय

मंगलीपुरवा की बस्ती : इस घर में महफूज हैं भगत सिंह की घड़ी और जूते

Neha Dani
18 Feb 2022 3:52 AM GMT
मंगलीपुरवा की बस्ती : इस घर में महफूज हैं भगत सिंह की घड़ी और जूते
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जयदेव दा के शहर से लौटते हुए क्रांतिकारियों के इन्हीं मजबूत इरादों से भरे-पूरे चेहरे मेरा पीछा कर रहे हैं।

हरदोई रेलवे स्टेशन के बाहर बाईं तरफ मंगलीपुरवा की बस्ती में एक साधारण-से मकान के दुतल्ले पर बैठकर हम क्रांतिकारी जयदेव कपूर के साथ इतिहास को बयान करने वाली दो धरोहरों का स्पर्श कर रहे हैं। एक घड़ी है, जिसे हाथों में थामे उन्होंने कहा, 'पता नहीं, इसकी सुइयां कब सही वक्त बताएंगी उस इंकलाब का, जिसकी आमद का देश अब तक इंतजार कर रहा है।

यह घड़ी रासबिहारी बोस की अमानत है, जिसे जापान जाते समय उन्होंने शचींद्रनाथ सान्याल को सौंपा था और सान्याल जी इसे भगत सिंह को दे गए थे। उसके बाद जयदेव दा वे जूते भी हमें दिखाने लगे, जिन्हें पहनकर भगत सिंह ने आठ अप्रैल, 1929 को दिल्ली की केंद्रीय असेंबली में बम विस्फोट किया था। उन पलों में वह यह कहना नहीं भूले, 'ये जूते आज पूछते हैं कि इंकलाब की कठिन डगर पर हमसे कदम मिलाकर चल सकोगे क्या?'
उस रोज हमारी पीढ़ी से किया गया उनका यह सवाल खुद उनकी आंखों को भी नम कर गया। इस वाकये को कई दशक गुजर गए। फिर 19 सितंबर, 1994 को जयदेव दा नहीं रहे। तब से इस घर में मेरी आमद का सिलसिला भी थम गया। जयदेव दा को 'लाहौर षड्यंत्र केस' में आजीवन कालापानी की सजा मिली थी। अंडमान में रहते उन्होंने राजनीतिक बंदियों के बीच द काल जैसा हस्तलिखित पत्र निकाला। उसके बाद छूटे, तो आजाद देश में मजदूरों के हकों की लड़ाई में अपने को झोंक दिया।
हरदोई शक्कर मिल मजदूर यूनियन का नेतृत्व, वहां के आंदोलन में जेल जाना और ट्रिब्यूनल तक कामगारों के मुकदमों के लिए सघन भाग-दौड़। उनकी जिंदगी तब कुछ इसी तरह की बन चुकी थी। गहरी राजनीतिक समझ-बूझ से संपन्न एक आजीवन योद्धा का इंकलाब की आंच में तपा हुआ बेहद ईमानदार चेहरा आज भी मेरा पीछा करता है।
स्वतंत्र भारत में पुलिस और प्रशासन से उनकी लड़ाइयां उनके उसी मुसलसल सफर का साक्ष्य थीं। इस वक्त मैं मंगलीपुरवा के उसी दरवाजे के बाहर खड़ा हूं, जो मुझे अधिक जर्जर, उदास और एकाकी दिखाई पड़ रहा है। सिनेमा चौराहे पर उनके बेटे के कपूर जनरल स्टोर पर भी एक उड़ती नजर डालता हूं, जहां 1979 में मैंने जयदेव कपूर का पहला साक्षात्कार लिया था।
उसके बाद पुराना कंपनी बाग उनके प्रयासों से 'शहीद उद्यान' में तब्दील हुआ, जहां शहीद चंद्रशेखर आजाद की प्रतिमा का अनावरण करने कैप्टन डॉ. लक्ष्मी सहगल आईं, तो शिव वर्मा और डॉ. गयाप्रसाद जैसे क्रांतिकारी भी वहां थे। वहीं बाद में 'शहीद दीर्घा' बनी। शहर में नगरपालिका की ओर से बने 'बाबू जयदेव कपूर द्वार' को देखकर हम बहुत आश्वस्त नहीं हैं।
प्रेरक और सादगी से भरे-पूरे स्मारक की हमारी कल्पना अभी अधूरी है, जिसमें इस नगर के तीनों क्रांतिकारी-शिव वर्मा, काशीराम और जयदेव कपूर एक साथ खड़े हों। इस त्रिमूर्ति का भारतीय विप्लवी इतिहास में विशिष्ट महत्व है। शिव दा तो बाद में माकपा के शीर्ष व्यक्ति बने, जिन्होंने संस्मृतियां जैसी कालजयी पुस्तक की रचना की।
आजाद के साथी काशीराम ने भी क्रांति के वे दिन लिखकर उस संघर्षमय अतीत की अनेक पर्ते खोलीं। जयदेव दा ने अपने साथियों पर लिखा तो बहुत, पर वह प्रायः बिखरा पड़ा है। अपनी पहली ही मुलाकात में जयदेव दा ने जो यादें हमसे साझा कीं, वे अक्सर मेरा पीछा करती हैं, 'केंद्रीय असेंबली में बम फेंकने पहले मैं ही जाने वाला था, पर सुखदेव के उलहना देने पर भगत सिंह ने जिद पकड़ ली कि इसके लिए अब वही जाएगा।
ऐसे में दल को उसे इजाजत देनी पड़ी।...दैट इज फर्स्ट डिफीट टू मी बाई भगत सिंह। उसके बाद लाहौर षड्यंत्र केस का फैसला आया, तो सरदार को फांसी का हुक्म और मुझे सिर्फ कालापानी की सजा।...द सेंकेंड डिफीट। इस तरह उसने मुझे दो बार शिकस्त दी।'
लाहौर मामले में जयदेव दा, शिव वर्मा और डॉ. गयाप्रसाद की गिरफ्तारी सहारनपुर में हुई। उसके बाद मुकदमे में लंबी सजा और फिर जेल के भीतर भूख हड़तालों का सिलसिला। अपने साथी जतीन दास को लाहौर जेल में तथा महावीर सिंह को अंडमान में उन्होंने तभी खोया।
हरदोई के इसी घर में भगत सिंह से अंतिम मुलाकात का दृश्य बताते हुए वह न जाने कितनी बार भावुक हुए होंगे, 'हमारे मुकदमे में सजाएं सुनाई जा चुकी थीं। 1930 के दिसंबर का महीना। मैं लाहौर जेल की पुरानी कंडम सेल्स में था। सरदार, राजगुरु और सुखदेव नई कंडम सेल्स में। अचानक आधी रात के वक्त हमारा दरवाजा खोला गया। कहा, बाहर आओ।
हमारे साथ शिव वर्मा, डॉ. गयाप्रसाद, विजय कुमार सिन्हा, किशोरीलाल भी थे। हमने समझ लिया कि कहीं दूसरी जगह जाना है। कोठरियों से निकालकर हमें हथकड़ियां-बेड़ियां पहनाई गईं। उस समय भावनाएं कुछ भारी जैसी हो गई थीं, यह सोचकर कि फांसी वाले साथियों से अब कभी मुलाकात न होगी।
जेलर मुहम्मद अकबर से मैंने कहा कि सामने की कोठरियों में हमारे तीन साथी बंद हैं, उनसे एक बार मिल लेने दीजिए। वह पसीज गया। हमने देखा कि आधी रात में भी बाहर से आती रोशनी में भगत सिंह कुछ पढ़ रहा था। उसने हम सबसे मुलाकात की।
फिर बोला कि मैं तो जल्दी ही फांसी पर चढ़ जाऊंगा, पर तुम लोगों के सामने जेलों में कठिन संघर्ष करते और एक-एक इंच मौत की तरफ बढ़ते हुए अपने क्रांतिकारित्व को साबित करने की कठिन चुनौती होगी, जिससे तुम डिगोगे नहीं।' जयदेव दा के शहर से लौटते हुए क्रांतिकारियों के इन्हीं मजबूत इरादों से भरे-पूरे चेहरे मेरा पीछा कर रहे हैं।

सोर्स: अमर उजाला

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