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77वें स्वतंत्रता दिवस की सभी देशवासियों को बहुत-बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं। स्वतंत्रता दिवस के पूर्व 13 अगस्त 2023 की रात्रि को भयावह प्राकृतिक आपदा ने पहाड़ी प्रदेशों में असंख्यों को अपने आगोश में समाहित कर लिया, जो बहुत दुखद है। दुख की इस घड़ी में सभी प्रदेशवासी स्तब्ध हैं। कहीं न कहीं हम सभी इस प्राकृतिक आपदा का आह्वान करने में संलिप्त रहे हैं। फोरलेन के निर्माण के दौरान वृक्षों का अंधाधुंध कटान। इन पेड़ों के कटान की भरपाई न होना। वर्षा ऋतु के समापन पर विभाग द्वारा पौधारोपण करने की केवल मात्र औपचारिकता किया जाना। फोरलेन का निर्माण यद्यपि यातायात व्यवस्था को सुगम बनाने के लिए किया जाता है। इस निर्माण के दौरान सडक़ में लगाए गए डंगे मलबे के ऊपर टिकाए गए हैं। आवागमन पहले भी इतना बाधित नहीं था। यातायात व्यवस्था सुचारू रूप से चली रहती थी, किंतु आधुनिकता की दौड़ में शीघ्र मंजिल पर पहुंचने की लालसा ने सब कुछ ध्वस्त करके रख दिया है।
प्राकृतिक आपदा ऐसे ही नहीं आती, उसे निमंत्रण दिया जाता है। निमंत्रण देने वाले अपने निजी स्वार्थ को ही सर्वोपरि रखते हैं। थोड़े से लाभ के लिए वे असंख्याओं को मौत के घाट उतारने में अपनी भागीदारी निश्चित करते हैं। कुछ प्रशिक्षित अभियंता ठेकेदारों के प्रलोभन की चपेट में आकर अपना ईमान दाव पर लगा देते हैं। समय आने पर सब कुछ भूलने के लिए प्रयासरत रहते हैं। यदि उनसे बात की जाए, उनका कहना भी ऐसा ही रहता है कि प्रकृति के साथ सभी खिलवाड़ कर रहे हैं, उनके कहने से भी ऐसा ही प्रतीत होता है कि वे सबसे अधिक प्रकृति प्रेमी हैं, प्रकृति का विनाश वे बिल्कुल भी नहीं चाहते। नदियों के किनारे बनी सडक़ें, इन सडक़ों के निर्माण के दौरान जितना भी मलवा निकलता है, बेरोकटोक इन नदियों में डाल दिया जाता है। नदियां अपना बहाव परिवर्तित कर देती हैं। पानी को तो स्थान चाहिए। नदियों के बहाव बदलते हैं, तब प्रकृति मुंह खोले हुए भूखे बाघ की तरह सब कुछ निगल लेती है। नेता, अभिनेता, देश के अन्य नागरिक ऐसे दुखदाई अवसरों पर संवेदना व्यक्त करते हैं। आर्थिक मदद करते हैं, किंतु क्या उन परिजनों को वापस लाने में कोई मदद कर सकते हैं? नहीं! कभी नहीं! बच्चे अनाथ हो जाते हैं। माता-पिता संतान होते हुए संतानविहीन हो जाते हैं। उनके क्रंदन कौन सुनता है? कुछ दिन, महीनों तक सामाजिक एवं राजनीतिक संवेदना बनी रहती है। समय के साथ-साथ सभी कुछ समाप्त हो जाता है। रह जाते हैं वे परिजन जो पीछे छूट जाते हैं। सभी पर्यावरणीय संरक्षण की चिंता करते हैं, परंतु पर्यावरण संरक्षण में अपनी भागीदारी कभी भी सुनिश्चित नहीं करते। ये नदी-नाले समुद्र तक प्लास्टिक कचरे का अंबार बहाकर ले जाते हैं। ये प्लास्टिक कचरा और ई-कचरा जल जीवों के जीवन को दूभर कर रहा है।
कितने जल जीव ऐसे हैं, कितनी जलजीवों की प्रजातियां ऐसी हैं जो इस प्लास्टिक कचरे के कारण विलुप्त हो रही हैं। इनकी ओर किसी का कोई ध्यान नहीं है। बस आधुनिक बने रहते हैं। चिप्स, कुरकुरा, शीतल पेय, मिनरल वाटर की 200 मीटर से लेकर 500 मिलीलीटर तक की बोतलें धड़ाधड़ बाजार में बिकती हैं। इसके अतिरिक्त अन्य प्लास्टिक का सामन। सभी अपनी शान समझ कर शादी-विवाह एवं पार्टियों में उनका उपयोग करते हैं। प्लास्टिक कचरा बाद में कहां फेंक दिया जाता है, किसी को चिंता नहीं होती। प्राकृतिक विनाश के लिए पूरे संसार के लोग किसी न किसी रूप में उत्तरदायी हैं। बालकृष्ण शर्मा नवीन अपनी कविता ‘विप्लव गायन’ में लिखते हैं- ‘प्राणों के लाले पड़ जाए त्राहि-त्राहि रव नभ में छाए, नाश और सत्यनाशों का धुआंधार जग में छा जाए, कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल-पुथल मच जाए, एक हिलोरा इधर से आए एक हिलोर उधर से आए।’ उनका मानना था कि इस संसार के लोग सुधरने वाले नहीं हैं। इसलिए वे सृष्टि का आह्वान करते हैं कि इन्हें सद्बुद्धि दो। जो नई संतानें आएं, वे इस प्रकृति का महत्व समझें। घटनाएं घटित होने के उपरांत कुछ दिनों तक सभी कुछ सही रहता है, लोग सहमे-सहमे रहते हैं। उसके बाद वैसा ही अतिक्रमण, वैसा ही निर्माण। नदी-नालों के पास सरकारी भूमि पर अतिक्रमण किया जाता है कि उन्हें कौन देख रहा है?
उन्हें कौन रोकने वाला है? इस तरह की मानसिकता लिए आधुनिक मनुष्य अंध निर्माण की इबारतें लिखने में व्यस्त हो जाता है। उसे नहीं मालूम कि उसके जीवन काल में ही या उसके रहने के बाद उसके द्वारा किए गए अप्राकृतिक निर्माण से कितने लोगों, जीव-जंतुओं का जीवन जीना दूभर हो जाएगा। वैज्ञानिक खोजों ने निर्माण कार्य की तकनीक में अभूतपूर्व उन्नति की है। वर्षों का काम दिनों में पूर्ण हो जाता है, किंतु यह मशीनें जिस तरह से भूमि को झकझोर करके रख देती हैं, उसका खामियाजा ये फोरलेन और उन पर सफर करने वाले लोग वर्षों तक भोगते रहते हैं। प्रकृति ने मनुष्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सब कुछ पर्याप्त मात्रा में दिया था, किंतु मनुष्य के लालच की भरपाई प्रकृति पूर्ण करने में असमर्थ है। हम स्वतंत्रता की 77वीं वर्षगांठ मना रहे हैं। क्या यही स्वतंत्रता के मायने थे कि अंध निर्माण किए जाओ और भूमि को जर्जर बनाए जाओ? क्या यही स्वतंत्रता का पाठ है? यदि ऐसा ही चलता रहा तो प्रत्येक बरसात में असंख्य लोगों को असामयिक मौत का शिकार होना पड़ेगा।
डा. राजन तनवर
शिक्षाविद
By: divyahimachal

Rani Sahu
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