सम्पादकीय

ममता की निर्मम-निरंकुश राजनीति: ममता को यह आभास होना चाहिए कि वह पूरे बंगाल की मुख्यमंत्री हैं, सिर्फ तृणमूल कांग्रेस समर्थकों की नहीं

Gulabi
21 May 2021 5:23 AM GMT
ममता की निर्मम-निरंकुश राजनीति: ममता को यह आभास होना चाहिए कि वह पूरे बंगाल की मुख्यमंत्री हैं, सिर्फ तृणमूल कांग्रेस समर्थकों की नहीं
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ममता की निर्मम-निरंकुश राजनीति

रसाल सिंह : केंद्रीय गृह मंत्रालय ने बंगाल विधानसभा के चुनावों में जीते सभी भाजपा विधयाकों की सुरक्षा के लिए केंद्रीय बल भेजने का निर्णय लिया है। यह निर्णय तृणमूल कांग्रेस की जीत के बाद बंगाल में घटित अभूतपूर्व हिंसा के बाद लिया गया है। इस हिंसा में तृणमूल कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं ने करीब तीन दर्जन भाजपा कार्यकर्ताओं को मार डाला और अनेक को अपाहिज बना दिया या उनके घर-बार जलाकर उन्हेंं उजाड़ डाला। ऐसे कुछ लोग असम पलायन कर गए हैं। हालत यह है कि लोगों को जान बचाने के लिए मतांतरण तक के लिए सोचना पड़ रहा है। विपक्षियों को सबक सिखाने की कार्रवाई के दौरान बंगाल पुलिस-प्रशासन की चुप्पी और निष्क्रियता शर्मनाक और निंदनीय रही। चूंकि ममता ने तृणमूल के उपद्रवियों द्वारा अंजाम दी जा रही हिंसक घटनाओं की ओर से आंखें मूंदें रखीं, इसलिए उनको शह मिली। जब चुनाव आयोग, मानवाधिकार आयोग, केंद्र सरकार द्वारा हालात का जायजा लेने के लिए भेजे गए पर्यवेक्षकों और स्वयं राज्यपाल ने इस प्रायोजित राजनीतिक हिंसा का संज्ञान लिया, तब जाकर ममता की नींद टूटी। हालांकि बंगाल में अभी भी हिंसा और उत्पीड़न जारी है। तृणमूल द्वारा बंगाल में की गई भयावह हिंसा ने केरल में वामपंथियों द्वारा की जाने वाली हिंसा को भी पीछे छोड़ दिया।

बंगाल में राजनीतिक हिंसा का बहुत लंबा इतिहास रहा
बंगाल में राजनीतिक हिंसा का बहुत लंबा इतिहास रहा है। 1977 से 2011 तक वामपंथी दल संगठित राजनीतिक हिंसा के बलबूते ही सत्ता पर काबिज रहे। सिंगूर और नंदीग्राम में वामपंथी सरकार द्वारा संचालित हिंसा का साहसिक विरोध करके ही ममता बंगाल की शेरनी बनी थीं, लेकिन अब उन्होंने उस इतिहास और उसके सबक भूलकर खुद भी विरोधियों को ठिकाने लगाने वाली वामपंथी राजनीति को अपना लिया है। बंगाल की जनता ने इसी संगठित हिंसा और यथास्थितिवाद से त्रस्त होकर ही बंगाल की सत्ता उन्हेंं सौंपी थी। विरोधियों के दमन का यह तरीका हिटलर, स्टालिन और माओ का रास्ता है। भारत में क्रूरता और निर्ममता की इस राजनीति का कोई भविष्य नहीं। विकल्पहीन और निराश विपक्ष लगातार तीसरी चुनावी जीत के बाद ममता बनर्जी को एक संभावना के रूप में देख रहा था, लेकिन बंगाल में हिंसा के चलते ममता की क्षतिग्रस्त छवि से वह भी व्याकुल हो गया है। तृणमूल द्वारा प्रायोजित हिंसा ने ममता की राष्ट्रीय संभावनाओं को बड़ा धक्का लगाया है।
ममता को लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए कड़े कदम उठाने होंगे
यदि ममता को राष्ट्रीय विकल्प बनने के बारे में सोचना है तो उन्हेंं राजनीतिक हिंसा की संस्कृति को तिलांजलि देनी होगी। उन्हेंं लोकतांत्रिक मूल्यों में अपनी आस्था व्यक्त करते हुए उनकी रक्षा के लिए कड़े कदम उठाने होंगे। वैचारिक विरोध और असहमति का सम्मान ही लोकतंत्र की आत्मा है। जो मेरे साथ नहीं हैं, वे मेरे खिलाफ हैं और उन्हेंं जीने का अधिकार नहीं, इस प्रकार का दृष्टिकोण घोर अलोकतांत्रिक और आत्मघाती है। वामपंथी दलों का उदाहरण सबके सामने है। सर्वहारा की तानाशाही और राज्यप्रेरित हिंसा की राजनीति करते-करते वे खत्म होते जा रहे हैं। तमाम विपक्षी दलों को भी इस राज्यप्रेरित हिंसा के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए, अन्यथा समय उनकी रणनीतिक चुप्पी का इतिहास लिखेगा। 2024 दूर नहीं है जब सब कठघरे में खड़े होंगे और जनता जवाब-तलब करेगी। ममता किस तरह की राजनीति करती हैं, इसका पता नारदा स्टिंग ऑपरेशन मामले में अपने चार नेताओं की गिरफ्तारी के खिलाफ सीबीआइ कार्यालय के बाहर उनके धरना देने से चलता है। उन्होंने चुनाव आयोग के खिलाफ भी धरना दिया था। शारदा चिट फंड घोटाले के तार उनके भतीजे और राजनीतिक उत्तराधिकारी अभिषेक बनर्जी से जुड़े हैं। इन सब मामलों से ममता की भ्रष्टाचारमुक्त राजनीति संदिग्ध हुई है। सादगी और शुचिता की स्वघोषित प्रतिर्मूित ममता का संवैधानिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं में अविश्वास भी प्रकट हुआ है। राष्ट्रीय राजनीति में ऐसा आचरण स्वीकार्य नहीं होगा।
विधायकों की सुरक्षा के लिए केंद्रीय बलों की नियुक्ति लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए शुभ नहीं
किसी भी राज्य के विधायकों की सुरक्षा के लिए केंद्रीय सुरक्षा बलों की नियुक्ति भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए शुभ नहीं है। इससे देश का संघीय ढांचा प्रभावित होगा। कानून-व्यवस्था और नागरिकों की सुरक्षा राज्य सरकार का प्राथमिक दायित्व है। वह इस जिम्मेदारी से अपना पल्ला नहीं झाड़ सकती। इसलिए गृह मंत्रालय को भी इस मामले का शॉर्टकट समाधान न करते हुए राज्य सरकार के साथ सीधी बातचीत करनी चाहिए। उसे नागरिकों, भाजपा कार्यकर्ताओं और नवनिर्वाचित विधायकों की सुरक्षा की गारंटी सुनिश्चित करने का कड़ा निर्देश देना चाहिए। अगर फिर भी राज्य-प्रेरित हिंसा की घटनाएं जारी रहती हैं तो राज्यपाल से विचार-विमर्श करके राष्ट्रपति शासन के संवैधानिक प्रविधान का प्रयोग किया जा सकता है। अगर निर्वाचित विधायक ही सुरक्षित नहीं होंगे तो आम नागरिक का क्या होगा? विधायकों की सुरक्षा के लिए केंद्रीय सुरक्षा बल भेजना समस्या का समाधान नहीं, बल्कि एक नई समस्या की शुरुआत है। इससे केंद्र-राज्य संबंधों में तनाव बढ़ेगा, संघीय ढांचा कमजोर होगा और लोकतांत्रिक व्यवस्था भी क्षतिग्रस्त होगी।
ममता पूरे बंगाल की मुख्यमंत्री हैं, सिर्फ तृणमूल कांग्रेस समर्थकों की नहीं
ममता को यह आभास होना चाहिए कि वह पूरे बंगाल की मुख्यमंत्री हैं, सिर्फ तृणमूल कांग्रेस समर्थकों की नहीं। उन्हेंं गृह मंत्रालय और राज्यपाल को पत्र लिखकर नवनिर्वाचित सभी विपक्षी विधायकों और सांसदों की सुरक्षा के प्रति आश्वस्त करना चाहिए। उन्हें यह भी पता होना चाहिए कि पुलिस के ऊपर सत्तारूढ़ दल का कार्यकर्ता होने का ठप्पा लग जाना अत्यंत शर्मनाक है। मुख्यमंत्री ममता को अपनी और राज्य पुलिस की छवि को बचाने के लिए तत्काल इस दिशा में पहल करनी चाहिए।
( लेखक जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय में प्रोफ्रेसर हैं )
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