सम्पादकीय

दिल्ली में अकेली पड़ीं ममता, राष्ट्रीय राजनीति में अब हो रहीं हैं 'बोहिरागतो'

Gulabi
6 Dec 2021 1:01 PM GMT
दिल्ली में अकेली पड़ीं ममता, राष्ट्रीय राजनीति में अब हो रहीं हैं बोहिरागतो
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राष्ट्रीय राजनीति में अब हो रहीं हैं ‘बोहिरागतो’
ज्योतिर्मय रॉय. ममता के 'दिल्ली चलो' अभियान का एकमात्र उद्देश्य दिल्ली पर राज करना है. इसलिए ममता विपक्षी पार्टियों का चेहरा बनने का लगातार प्रयास कर रही हैं. 'खेलबो, लोडबो, जीतबो' (खेलूंगा, लड़ूंगा, जीतूंगा) मानसिकता की धनी ममता, अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस (TMC) को 2021 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में अभूतपूर्व सफलता दिलाई हैं, जिसके बाद उनका दिल्ली से प्यार और भी बढ़ गया है.
दिल्ली की सत्ता प्रेम में ममता अब मदमस्त हैं. ममता ने पश्चिम बंगाल की सत्ता जरूर जीती है, लेकिन चुनाव से पहले और बाद में पश्चिम बंगाल में हुई हिंसा को देश आज तक नहीं भूला है. क्या ममता पश्चिम बंगाल से बाहर रह रहे बंगालियों का दिल जीत पाई हैं? भाजपा कार्यकर्ताओं को 'बोहिरागतो' (बाहरी) कहकर दीदी द्वारा चुनाव में जो राजनीति छेड़ी गई है, वह राष्ट्रीय राजनीति में ममता के लिए राजनीतिक 'अभिशाप' बन गई है. राष्ट्रीय राजनीति में आज ममता खुद 'बोहिरागतो' हैं.
ममता की छवि बीजेपी विरोधी के बजाय कांग्रेस विरोधी बनी
एक जमीनी नेता के तौर पर ममता जानती हैं कि केंद्र में बीजेपी को सत्ता से बेदखल करने के लिए कांग्रेस का समर्थन जरूरी है. इसलिए ममता ने दिल्ली के 10 जनपथ पर कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी के साथ बैठक की. कांग्रेस की पूर्व नेता ममता बनर्जी की कांग्रेस नेतृत्व की 'सुप्त इच्छा' को सोनिया गांधी ने भांप लिया था. गांधी परिवार स्पष्ट रूप से समझ गया है कि एक बार कांग्रेस का नेतृत्व ममता के हाथ में आ गया तो गांधी परिवार का वर्चस्व हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा. इसलिए गांधी परिवार ममता के लिए सबसे बड़ी बाधा बन गया. ममता आज घोर कांग्रेस विरोधी हैं.
तृणमूल कांग्रेस खुद को देश में प्रमुख विपक्षी पार्टी के तौर पर स्थापित करने की कोशिश में जुटी है. भाजपा विरोधी गठबंधन का नेतृत्व करने के लिए उत्सुक ममता की छवि आज राष्ट्रीय राजनीति में 'भाजपा विरोधी' नहीं बल्कि 'कांग्रेस विरोधी' हो गई है. सवाल यह है कि क्या कांग्रेस को बाहर रखकर प्रभावी भाजपा विरोधी गठबंधन बनाया जा सकता है? मुंबई की अपनी यात्रा के दौरान, ममता बनर्जी ने शरद पवार की उपस्थिति में कांग्रेस की नेतृत्व वाले 'यूपीए' (UPA ) के अस्तित्व पर सवाल उठाते हुए कहा, "यूपीए कहां है?" पास बैठे राजनीति के भीष्म पितामह शरद पवार चुप थे, लेकिन उनके चेहरे पर बेचैनी साफ देखी जा सकती थी. इस बैठक से पहले और बाद में शरद पवार के मुंह से कांग्रेस विरोधी एक भी शब्द नहीं निकला. क्या ममता समझ पा रही हैं कि दिल्ली में ममता दिन-ब-दिन मित्रहीन 'बोहिरागतो' होती जा रही हैं?
"हमने अकेले लड़कर बीजेपी को हराया है, इसलिए कांग्रेस के प्रति हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं है", तृणमूल पार्टी के इस बयान से क्षेत्रीय राजनीतिक दल सहमत होता नहीं दिख रहा है. दिल्ली में कांग्रेस की ओर से बुलाई गई विपक्षी पार्टियों की बैठक में शिवसेना और NCP भी शामिल हुई हैं. कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच दूरियों के बावजूद आम आदमी पार्टी विपक्ष की एकता के लिए कांग्रेस की ओर से बुलाई गई बैठक में शामिल होकर संयुक्त बयान जारी कर रही है. विपक्ष स्पष्ट रूप से समझ रहा है कि ममता का एकमात्र लक्ष्य अब विपक्षी एकता की आड़ में दिल्ली की राजनीति में अपनी उपस्थिति और महत्व को बढ़ाना है. इसलिए, 'एकला चलो' में विश्वास रखने वाली ममता और उनकी पार्टी, कांग्रेस द्वारा बुलाई गई विपक्षी पार्टियों की सभी बैठकों में अनुपस्थित रहे.
निलंबित सांसदों के मुद्दे पर भी कांग्रेस के साथ नहीं दिखी टीएमसी
क्या ममता अपनी जिद और राष्ट्रीय राजनीति में अपनी एक अलग पहचान बनाने की चाहत के चलते विपक्षी दलों का विश्वास खो रही हैं. राज्यसभा के 254वें सत्र (मानसून सत्र 2021) के अंतिम दिन यानी 11 अगस्त को, सदन में कुछ सदस्यों द्वारा जमकर हंगामा किया गया था. इस असंसदीय आचरण के लिए 12 सांसदों को निलंबित कर दिया गया था. संसद में हंगामे को लेकर देशभर में इन सांसदों की जमकर आलोचना हुई थी. इन 12 सांसदों को सदन में हंगामे के चलते शीतकालीन सत्र के पहले दिन राज्यसभा के पूरे सत्र के लिए निलंबित कर दिया गया है. हंगामे के लिए कांग्रेस के 6 सांसद फूलो देवी नेताम, छाया वर्मा, आर बोरा, राजमणि पटेल, सैयद नासिर हुसैन, अखिलेश प्रसाद सिंह, शिवसेना के 2 सांसद प्रियंका चतुर्वेदी और अनिल देसाई, टीएमसी के 2 सांसद डोला सेन और शांता छेत्री, सीपीआई के बिनॉय विश्वम और सीपीएम के एलामाराम करीम को निलंबित किया गया है, जो वर्तमान सत्र के शेष भाग के लिए निलंबित रहेंगे. संसद में तृणमूल अपने जमीनी मुद्दों को प्राथमिकता दे रही है. सांसदों के निलंबन के मुद्दे पर संसद से बहिर्गमन के मामले में भी तृणमूल ने कांग्रेस से हाथ नहीं मिलाया है. तृणमूल ने अपनी अलग पहचान बनाने की प्रयास में संसद में 'एकला चलो' की नीति अपनाई है. संसद में तृणमूल का विरोध करने के तरीके और सोच ने तृणमूल को विपक्ष का महागठबंधन बनाने की अभियान में अलग-थलग दिख रहा है.
अपनी मुंबई यात्रा के दौरान ममता ने उद्धव ठाकरे के बेटे आदित्य ठाकरे और शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत से मुलाकात की. लेकिन जहां शिवसेना ने मुंबई में भाजपा विरोधी अभियान में ममता की मेजबानी की, वहीं दिल्ली में शिवसेना के गले मे कांग्रेस के लिए मुद्दे पर आधारित समर्थन का स्वर है. यह अभी भी स्पष्ट नहीं है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी सुप्रीमो 'भाई' अरविंद केजरीवाल आगामी पंजाब चुनावों में ममता के पक्ष में हैं या नहीं. ऐसे में ममता अगर कांग्रेस विरोधी तूफान उठाने में कामयाब हो भी जाती हैं तो सवाल बना रहता है कि वह बीजेपी के खिलाफ कितनी कारगर होंगी.
कांग्रेस को अलग रखकर राष्ट्रीय राजनीति नहीं हो सकती
'कांग्रेस पार्टी के सहयोग के बिना तृणमूल के लिए राष्ट्रीय मुद्दा उठाना असंभव है. राष्ट्रीय स्तर पर तृणमूल द्वारा दिए गए 'बीजेपी मुक्त भारत' का नारा को राष्ट्रीय स्तर पर मुद्दा साबित करना ममता के लिए कठिन कार्य ही नहीं, अपितु 'बड़ी राजनीतिक भूल' भी साबित हो सकती है' इसकी गूंज शिवसेना के मुखपत्र 'सामना' के 4 दिसंबर के अंक के संपादकीय में देखने को मिली. कांग्रेस को अलग रखकर राष्ट्रीय राजनीति नहीं की जा सकती.
'सामना' संपादकीय लेख के माध्यम से भाजपा विरोधी गठबंधन पर शिवसेना के विचारों को स्पष्ट करते हुए ममता के बारे में लिखा, "पश्चिम बंगाल से उन्होंने कांग्रेस, वामपंथी और भाजपा का सफाया कर दिया. यह सत्य है फिर भी कांग्रेस को राष्ट्रीय राजनीति से दूर रखकर सियासत करना यानी मौजूदा 'फासिस्ट' राज की प्रवृत्ति को बल देने जैसा है."
कांग्रेस के मौजूदा हालात पर टिप्पणी करते हुए 'सामना' ने आगे लिखा, "पिछले दस वर्षों में कांग्रेस पार्टी का पिछड़ना चिंताजनक है. इसमें दो राय नहीं हो सकती. फिर भी उतर रही गाड़ी को ऊपर चढ़ने नहीं देना है और कांग्रेस की जगह हमें लेना है यह मंसूबा घातक है. कांग्रेस का दुर्भाग्य ऐसा है कि जिन्होंने जिंदगी भर कांग्रेस से सुख-चैन-सत्ता प्राप्त की वही लोग कांग्रेस का गला दबा रहे हैं."
शिवसेना ममता की कार्यशैली और विचार से सहमत नहीं है
यूपीए के नेतृत्व को लेकर ममता के उठाए सवाल "कहां है यूपीए?" पर टिप्पणी करते हुये 'सामना' ने लिखा, "इसी तरह यूपीए का आप क्या करेंगे? यह एक बार तो श्रीमती सोनिया गांधी अथवा राहुल गांधी को सामने आकर कहना चाहिए. यूपीए का नेतृत्व कौन करे, यह मौजूदा समय का मुद्दा है. यूपीए नहीं होगा तो दूसरा क्या? इस बहस में समय गंवाया जा रहा है, जिसे विपक्ष का मजबूत गठबंधन चाहिए, उन्हें खुद पहल करके 'यूपीए' की मजबूती के लिए प्रयास करना चाहिए, एनडीए अथवा यूपीए गठबंधन कई पार्टियों के एक साथ आने पर उभरे. वर्तमान में जिन्हें दिल्ली की राजनीतिक व्यवस्था सही में नहीं चाहिए उनका यूपीए का सशक्तीकरण ही लक्ष्य होना चाहिए. कांग्रेस से जिनका मतभेद है, वह रखकर भी यूपीए की गाड़ी आगे बढ़ाई जा सकती है. अनेक राज्यों में आज भी कांग्रेस है. गोवा, पूर्वोत्तर राज्यों में तृणमूल ने कांग्रेस को तोड़ा लेकिन इससे केवल तृणमूल का दो-चार सांसदों का बल बढ़ा. 'आप' का भी वही हाल है. कांग्रेस को दबाना और खुद ऊपर चढ़ना यही मौजूदा विपक्षियों की राजनीतिक चाणक्य नीति है ". स्पष्ट है की कांग्रेस को लेकर और विपक्ष गठबंधन के मुद्दे पर शिवसेना ममता की कार्यशैली और विचार से सहमत नही है.
पीके के बयान से आहत शिवसेना की राहुल-प्रियंका गांधी से सहानुभूति
तृणमूल कांग्रेस के प्रवक्ता प्रशांत किशोर द्वारा दिया गया बयान, 'कांग्रेस को विरोधी पक्षों का नेतृत्व करने का दैवीय अधिकार प्राप्त नहीं हुआ है' पर टिप्पणी करते हुये 'सामना' लिखता है कि, "दैवीय अधिकार किसी को प्राप्त नहीं होता. राजनीतिक घराने और खानदान के किले देखते-ही-देखते ढह जाते हैं. वर्ष 2024 में किसके देवता, किसका भाग्य चमकाएंगे इसे कहा नहीं जा सकता. वर्ष 1978 में जनता पार्टी की क्रांतिकारी विजय के बाद लोगों में जोश था कि इंदिरा गांधी फिर कभी सत्ता में नहीं आएंगी. भाजपा का जन्म हमेशा विपक्ष के बेंच पर ही बैठने के लिए हुआ है, ऐसा मजाक करते हुए यह पार्टी आसमान में उड़ान भर रही है. आज भी राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की राजनीतिक बदनामी शुरू है. राहुल गांधी और प्रियंका इस बदनामी का मुकाबला करते हुए संघर्ष कर रहे हैं. प्रियंका लखीमपुर खीरी नहीं पहुंचतीं तो किसानों की हत्या का मामला रफा-दफा हो गया होता. यही विपक्ष का काम है. 'यूपीए' नेतृत्व का दैवीय अधिकार किसका यह आनेवाला समय तय करेगा, पहले विकल्प खड़ा करो!" जाहिर है शिवसेना राष्ट्रीय राजनीति पर पीके की टिप्पणी को ज्यादा महत्व देने के पक्ष में नहीं है. क्या 'सामना' के उठाए सवाल का सामना कर पाएंगी ममता? विपक्षी दलों की नजर में ममता कब तक राष्ट्रीय राजनीति में 'बोहिरागातो' बनी रहेंगी? अभी भी समय है, ममता को आत्ममंथन करना चाहिए.
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