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पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव और पुलिस प्रमुख ने केंद्रीय गृह मंत्रालय के समन को जिस तरह ठुकराया |
जनता से रिश्ता वेबडेसक| पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव और पुलिस प्रमुख ने केंद्रीय गृह मंत्रालय के समन को जिस तरह ठुकरायाऔर दिल्ली जाकर गृह सचिव से मुलाकात करने से इन्कार किया वह केवल राज्य प्रशासन के शीर्ष स्तर पर की जाने वाली मनमानी ही नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक तौर-तरीकों का निरादर भी है। बंगाल के इन दोनों शीर्ष अधिकारियों की यह हरकत उसी संघीय व्यवस्था को क्षति पहुंचाने वाली है जिसकी रक्षा करने की जरूरत ममता सरकार रह-रहकर जताती रहती है। यह देखना दुखद है कि यही ममता सरकार अब अपने आचरण से प्रशासनिक अराजकता को हवा देने में लगी हुई है। यह संभव नहीं कि बंगाल के मुख्य सचिव और पुलिस प्रमुख ने दिल्ली जाने से इन्कार करने का फैसला अपने स्तर पर किया हो।
यह मानने के अच्छे भले कारण हैं कि इस फैसले के पीछे खुद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का उकसावा रहा होगा। यह समझ आता है कि वह इससे चिढ़ी हुई हैं कि विगत दिवस भाजपा अध्यक्ष के काफिले पर हमले के बाद उनकी सरकार और विशेष रूप से पुलिस की चौतरफा निंदा-आलोचना हुई, लेकिन इसके लिए तो वह स्वयं जिम्मेदार हैं।
ममता बनर्जी और उनका प्रशासन भाजपा नेताओं पर हो रहे हिंसक हमलों की जवाबदेही से बच नही सकता। चूंकि ऐसे हमले हद पार करते जा रहे हैं, इसलिए केंद्र सरकार के लिए यह स्वाभाविक था कि वह उन्हें लेकर अपर्नी ंचता व्यक्त करती। यह ठीक है कि अपने देश में जो संघीय व्यवस्था है उसके तहत कानून एवं व्यवस्था राज्यों का विषय है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि कानून एवं व्यवस्था के समक्ष गंभीर चुनौतियां खड़ी हो जाने के बाद भी केंद्र सरकार हाथ पर हाथ रखकर बैठी रहे। यह न तो उचित है और न ही किसी राज्य सरकार को इसकी अपेक्षा करनी चाहिए। बेहतर हो कि ममता सरकार यह समझे कि उसकी राजनीतिक संकीर्णताएं बेलगाम होती जा रही हैं और उनसे केवल राज्य सरकार की ही बदनामी नहीं हो रही है, बल्कि कहीं न कहीं संघीय ढांचे को भी नुकसान पहुंच रहा है। बंगाल सरकार जिस तरह का व्यवहार कर रही है वह लोकतंत्र को क्षति पहुंचाने वाला है। यदि सत्तारूढ़ राजनीतिक दल इस तरह का मनमाना आचरण प्रदर्शित करेंगे तो इससे भारतीय लोकतंत्र की अपरिपक्वता ही रेखांकित होगी।
नि:संदेह केवल नेताओं को ही परिपक्वता का परिचय देने की आवश्यकता नहीं है। परिपक्व आचरण की अपेक्षा नौकरशाहों और विशेष रूप से शीर्ष पदों पर बैठे अफसरों से भी की जाती है। यह ठीक नहीं कि जिन नौकरशाहों से नियम-कानूनों और संविधान के अनुकूल आचरण करने की अपेक्षा की जाती है वे नेताओं की कठपुतलियों की तरह से आचरण करते हुए दिखें।
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