सम्पादकीय

मालपुए बहुत स्वाद थे यार!

Rani Sahu
21 Dec 2021 7:05 PM GMT
मालपुए बहुत स्वाद थे यार!
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अपने मित्र मालपुओं के इतने परम श्रद्धेय हैं कि उतने तो वे अपने माता-पिता के प्रति कभी परम तो छोड़ो, श्रद्धेय भी न रहे

अपने मित्र मालपुओं के इतने परम श्रद्धेय हैं कि उतने तो वे अपने माता-पिता के प्रति कभी परम तो छोड़ो, श्रद्धेय भी न रहे। वे मालपुओं के चक्कर में नरक भी आंखें मूंद कर जा सकते हैं। वे अपने भीतर के कवि को बचाए रखने के लिए कवि गोष्ठियों के आयोजन पर आयोजन करते रहते हैं, पर उनकी कवि गोष्ठियों में श्रोताओं का ग्राफ निरंतर गिरता जा रहा है सेंसेक्स की तरह। सो अबके कवि गोष्ठी में उन्होंने नया नुस्खा आजमाने की सोची ताकि उनकी कवि गोष्ठी में सब कवि ही न हों, कुछ श्रोता भी हों। इसलिए उन्होंने प्रचार किया कि अबके वे अपनी कवि गोष्ठी में अपने श्रोताओं को मालपुए खिलाएंगे। वह भी कवि गोष्ठी शुरू होने से पहले। इसलिए कवि गोष्ठी शुरू होने के बाद भी श्रोताओं के मुंह में मिठास बनी रहे। अपने मित्र मालपुओं के इतने परम श्रद्धेय हैं कि उतने तो वे अपने माता-पिता के प्रति भी परम तो छोड़ो, श्रद्धेय भी न रहे। वे मालपुओं के चक्कर में नरक भी आंखें मूंद कर जा सकते हैं। जैसे ही उन्हें सूचना मिली कि उनकी कवि गोष्ठी में अबके कविता से पहले श्रोताओं को मालपुए परोसे जाएंगे तो वे कवि गोष्ठी में जाने को हर हाल में सहर्ष तैयार हो गए। पेट खराब होने के बाद भी।

कविता जाए भाड़ में। मालपुए तो होंगे ही। जैसे ही दाव लगेगा, मालपुए खाकर अपनी कविता सुना चुके कवियों के बीच दुम छिपा सरक लेंगे। हद से अधिक खुशी के मारों का जब शाम को पेट में मालपुए दबाए फोन आया तो मत पूछो कितने खुश! मैंने कवि गोष्ठी के बारे में उनसे पूछा, 'और मित्र! कैसी रही कवि गोष्ठी?' तो वे लंबा डकार लेते बोले, 'मत पूछो यार! मालपुए कितने करारे थे, यार! कवियों में भी कुछ कविता चोर कर गजब की कहते हों या नए पर मालपुए उम्दा बना लेते हैं।' उन्होंने फोन पर ही मेरे होंठों पर अपनी जीभ फेरते कहा तो मैंने अपने होंठ फोन से जरा दूर किए। 'कवियों की कविताएं कैसे लगीं?' 'यार! मत पूछो, मालपुओं के साथ अदरक वाली क्या गजब की चटनी बनी थी! नमक, मिर्च, इमली का वाह क्या अनुपात! मैंने तो मालपुए चटनी के साथ ही नहीं खाए मालपुओं के साथ चटनी भी पी।
चटनियां तो दोस्त जिंदगी में बहुत खाईं, पर ऐसी चटनी तो मैंने जिंदगी में पहली बार खाई। अगर वे जो आगे से भी मालपुओं के साथ ऐसी ही चटनी बनाते रहेंगे तो मैं उन्हें आश्वासन नहीं, विश्वास दिलाता हूं कि मैं बिन बुलाए उनकी कवि गोष्ठियों में जाता रहूंगा मालपुओं की बास आते ही।' 'उस कवि ने कोई नई कविता भी सुनाई या वही बीस साल पुरानी कविता सुनाई अपने खास दोस्तों के अनुरोध पर?' 'यार! चटनी तो इतनी स्वाद थी कि अपनी तो अपनी, तेरी उंगलियां भी काटने चाटने को मन कर रहा है। पर अपनी उंगलियां तो चाट चाट कर पहले ही इतनी घिस चुकी हैं कि…।' लगा, जैसे वे फिर अपनी उंगलियां चाटने लग गए हों। 'अच्छा तो कवि गोष्ठी में कितने की कवि थे?' 'मेरे समेत दस!' 'क्या मतलब तुम्हारा? तुम तो श्रोता के रूप में वहां नहीं गए थे क्या?' 'गया तो था। पर कवि कम हो गए थे। सो उन्होंने मुझ श्रोता को भी कवि बना दिया दो सौ रुपए का फार्म भरवा कर। सबकी तरह मैं भी बगल में दबाकर छिपाकर वहां से चार मालपुए तुम्हारे लिए भी लाया हूं। कल आता हूं लेकर। और हां! फार्म वाला कवि बनने की खुशी में मिठाई भी।' उन्होंने पता नहीं किसकी लाइनें गुनगुनाते कहा और फिर पेट में जा चुकी चटनी के जीभ पर चटकारे लेने लग गए।
अशोक गौतम
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