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- राख पर खड़ा मलाणा

फिर उसी राख से चिंगारी निकली, जो हर साल बुझी हुई मान ली जाती है। प्राचीन लोकतंत्र की शिनाख्त करता मलाणा गांव अपने अस्तित्व की राख बटोरता हुआ कई अपवादों से घिर रहा है। इस साल की सर्दियों का आगमन फिर अंगीठी की तरह सोलह मकानों व एक दुकान को जला गया, तो इसका आकलन महज वित्तीय नुकसान नहीं है। काष्ठकुणी शैली में निर्मित भवनों को स्वाह करती आग अपनी विकरालता में धरोहर मूल्य को भी जलाती है और यह बार-बार हो रहा है। करीब चौदह साल पहले भी इसी तरह गांव के एक बड़े हिस्से को राख का ढेर बना गई थी, लेकिन अग्निशमन के रास्ते आज भी विकसित नहीं हुए। अगर प्रबंधकीय दृष्टि से योजना बनाई होती या मलाणा को बचाने के तात्पर्य से संजीदा होते तो निश्चित रूप से अग्निशमन के यंत्र व तंत्र वहां पहुंच कर बहुत कुछ बचा सकता है। फिर 57 परिवारों के लिए मुसीबत के दिन और गांव के लिए खुद से संघर्ष बढ़ जाता है। बेशक प्राचीन लोकतंत्र की लाज में बाशिंदों ने अपने मूल्य, नीतियां व परंपराएं नहीं बदलीं हैं, लेकिन इसका मुकाबला देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था से भी है। प्रगति के कदमों की आहट गांव तक रही है, तो जाहिर तौर प्राचीन युग को संजोए रखना मुश्किल है।
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