सम्पादकीय

मैनपुरी जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव 74 साल पहले और बाद: समझिए SP के 'किले' में BJP के 'कमल' खिलाने के मायने

Gulabi
5 July 2021 9:22 AM GMT
मैनपुरी जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव 74 साल पहले और बाद: समझिए SP के किले में BJP के कमल खिलाने के मायने
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मैनपुरी जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव

संजीव चौहान। इतिहास गवाह है कि मैनपुरी चौहान राजवंशियों की चौथी गद्दी रही थी. आज भी यहां के मूल निवासी चौहान और मैनपुरी दुनिया भर में एक दूसरे का पर्यायवाची हैं. मतलब चौहान मैनपुरी का और मैनपुरी का मतलब चौहानों की. यह अलग बात है इतिहास और अतीत के पीले पड़ चुके फटे पुराने पन्नों पर नजर डालें तो, बीते 74 साल में मैनपुरी की राजनीति का राजकाज "चौहानों की मैनपुरी और मैनपुरी के चौहान" के एकदम विपरीत ही चला आ रहा है. मतलब मैनपुरी में इन तमाम वर्षों में शायद ही कभी किसी की नजर में यह आया हो कि, यहां "कौम" और "जाति" की राजनीति हुई हो या, वो सफल रही हो. भले ही देखने कहने सुनने में क्यों न बेबर, भोगांव, मैनपुरी, एटा, इटावा, शिकोहाबाद, सिरसागंज इलाके (मतलब मैनपुरी व उसके आसपास के इलाके) ठाकुर, यादव, पंडितों का हमेशा वर्चस्व क्यों ना रहा हो.


इस सबके बाद भी मैनपुरी के मतदाता ने सिर्फ और सिर्फ राजनीति के दंगल में उसी प्रत्याशी को हराया-जिताया, जिसका अपना जितना रुतबा-रसूख रहा. दरअसल इस वक्त या इन दिनों यहां इस मुद्दे पर चर्चा इसलिए जरूरी है क्योंकि, सन् 1992 यानि तकरीबन 29 साल बाद यहां जिला पंचायत अध्यक्ष चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने झंडा गाड़ा है. उस मैनपुरी में जहां हमेशा चुनाव, पार्टी और जाति से ऊपर या इन दोनो को नजरंदाज करके चुनावी समर में उतरे "प्रत्याशी" के दमखम के बलबूते लड़े जाते रहे हों. यह तो मैनपुरी के मतदाता का मजबूत पक्ष रहा. जिससे वो कभी नहीं डिगा. भले ही उसे वोट किसी भी जाति के प्रत्याशी या किसी भी पार्टी को क्यों न देना पड़ा हो. हांलांकि मैनपुरी के राजनीतिक अखाड़े में एक जगह पर "जाति" और "कौम" आकर, ऊपर उल्लिखित तमाम तथ्यों को पलटते भी नजर आते हैं. भले धुंधले से ही क्यों न सही. वो तब जब से यहां बीते 30 साल के इतिहास में समाजवादी पार्टी जिला पंचायत अध्यक्ष चुनावों के दौरान वर्चस्व में आई.

इसे भी यहां याद रखना जरूरी है
जिसके मुताबिक, समाजवादी पार्टी ने मैनपुरी जिला पंचायत अध्यक्ष पद पर जितने भी अपने नुमाईंदे बैठाए/जितवाए, वे सब के सब मुलायम सिंह यादव की अपनी ही जाति यानि "यादव" कौम के थे. जबकि उन्होंने वोट ठाकुर बाहुल्य इलाके में क्षत्रियों, पंडितों व अन्य तमाम जातियों का भी हमेशा बटोरा. सन् 1991 से अब तक (बीच में कुछ समय को छोड़कर) राजनीतिक धरातल पर मैनपुरी का मतलब मुलायम सिंह यादव और उनकी समाजवादी पार्टी होते थे. राजनीतिक गलियारों में मैनपुरी की सत्ता का जिक्र आने पर यही कहा जाता था कि, समाजवादी पार्टी या मुलायम सिंह यादव मैनपुरी में अगर कभी कोई चुनावी सभा नहीं भी करेंगे. तब भी वहां के मतदाता उनके अपने घर के हैं. चुनावी समर में वे (स्थानीय मतदाता) मैनपुरी सीट से हराएंगे सबको और जितायेंगे सिर्फ समाजवादी पार्टी और मुलायम कुनबे के कंडीडेट या फिर उनके द्वारा नामित, समर्थित चुनाव प्रत्याशी को ही. सोचिए ऐसे किसी अभेद्य राजनीतिक किले को भेदकर उसमें वहां की जिला पंचायत अध्यक्ष सीट पर बीजेपी जैसी उसकी किसी धुर-विरोधी और गैर-समाजवादी पार्टी के उम्मीदार का झंडा गड़ गया हो तो, समाजवादी पार्टी के किले में कोहराम की गूंज किस हद की कानफोड़ू रही होगी.

ऐसा भी सोचना ठीक नहीं होगा
हालांकि बीजेपी के इस एक जिला पंचायत अध्यक्ष की सीट पर काबिज होने का मतलब यह नहीं हो जाता है कि, बीजेपी मजबूत और समाडवादी पार्टी कमजोर हो गई है. क्योंकि राजनीति के खेल में हार-जीत किसी की हमेशा के लिए पक्की दुश्मन या फिर दोस्त नहीं होती. हार-जीत, पार्टियों-प्रत्याशियों का आना-जाना बदलते हालातों और मतदाताओं के मूड के हिसाब पर निर्भर करता रहता है. हां, मैनपुरी में जिला पंचायत अध्यक्ष पद की सीट बीजेपी की (इस बार बीजेपी महिला विजेता उम्मीदवार अर्चना भदौरिया) झोली में चले जाने के मायने बहुत गहरे हैं. बदली हुई हवा के इस रुख को बाकी कोई समझे या न समझे मगर, बीते 30 साल से इस कुर्सी पर काबिज होकर एकछत्र राजकाज कर रही समाजवादी पार्टी को यह सब बेहद गंभीरता से सोचना होगा.

क्योंकि मैनपुरी अब से पहले भी कभी बीजेपी का गढ़ या किला नहीं रही थी. यह पॉलिटिकल सीट पहले कांग्रेसियों और निर्दलियों की हैसियत तय करती थी. बदलते वक्त के साथ जब राजनीति की हवा ने रूख बदला तो मैनपुरी के मंझे हुए मतदाताओं ने, सपा के तालाब में "बीजेपी" का फूल खिला डाला. और मैनपुरी के मतदाताओं ने समाजवादी पार्टी व बीजेपी दोनो को बता-समझा दिया कि, राजनीति ही वो अखाड़ा है जिसमें अच्छे से अच्छे मंझे हुए "नेता" को भी, मतदाता दांव-पेंच खेलने की अकल दे सकता है. लिहाजा जो समाजवादी पार्टी मैनपुरी की राजनीति को अपना पुश्तैनी ह़क और सीट समझती थी. वहां अब बीजेपी की दस्तक से खतरा भी सपा को ही पैदा हुआ है.

जिसके किले में सेंध लगी सोचे वो
क्योंकि मैनपुरी सीट तीन दशक से राजनीतिक किला भी तो समाजवादी पार्टी की ही समझी जा रही थी. इस दावे में समाजवादी पार्टी के "तारनहार" खुद ताल ठोंक कर अक्सर खुद ही हवा भी भरते रहते थे. भारतीय जनता पार्टी के पास तो 29 साल पहले (1992 के आसपास का वक्त छोड़कर) से लेकर अब तक मैनपुरी की जिला पंचायत अध्यक्ष सीट पर कभी कुछ हासिल ही नहीं था, तो फिर क्या खोने का डर और क्या पाने की खुशी? हां, जहां तक बीजेपी के मैनपुरी की राजनीति में कुछ पाने की तमन्ना थी तो वो उसने, इस बार समाजवादी पार्टी का राजनीतिक किला समझी जाने वाली मैनपुरी की राजनीति में सेंध लगा, जिला पंचायत अध्यक्ष की कुर्सी हथिया कर पूरी कर ली.

समाजवादी पार्टी प्रत्याशी मनोज यादव को जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनावी समर में पछाड़ कर. यह सब कैसे हुआ क्यों हुआ किसकी कमी और किसकी काबिलियत के चलते हुआ? यह तमाम सवाल अब तब बेईमानी साबित हो जाते हैं जब, समाजवादी पार्टी के कब्जे से जिला पंचायत अध्यक्ष की सीट छिन चुकी है. ऐसे तमाम अनसुलझे या कहिये वाहियात सवालों के जबाब तलाशने का वक्त तो अब, मैनपुरी की राजनीति को अपने "घर की राजनीति" समझने वाली समाजवादी पार्टी और मुलायम कुनबे का है. वो समझे कि आखिर बीजेपी ने 29-30 साल बाद, उसके इतने मजबूत किले में सेंध लगाकर उसे कैसे ढहा दिया? जिस मैनपुरी जिला पंचायत अध्यक्ष की कुर्सी पर सन् 1991 से लेकर तकरीबन तीन दशक तक, समाजवादी पार्टी का ही कब्जा रहा हो. भले ही इन तीन दशक में सूबे में सल्तनत किसी भी पार्टी की क्यों न रही हो.

एक नजर इतिहास पर भी डालिए
मैनपुरी जिला पंचायत अध्यक्ष की कुर्सी का इतिहास पटलने पर पता चलता है कि, बीते करीब 74 साल में यहां 24 जिला पंचायत अध्यक्ष और या फिर डीएम प्रशासक रहे हैं. इनमें सन् 1947 से 1948 तक (मैनपुरी के पहले पंचायत अध्यक्ष) पहले जिला पंचायत अध्यक्ष कांग्रेस पार्टी के सियाराम चतुर्वेदी थे. 1947 से लेकर 1957 तक यानि एक दशक (10 साल) कांग्रेस पार्टी का ही कब्जा इस सीट पर बरकरार रहा. सितंबर 1995 से अप्रैल 1957 तक मैनपुरी जिला पंचायत अध्यक्ष रहने वाले कांग्रेस पार्टी के राम स्वरूप यादव से अप्रैल 1957 में हुए चुनावों में यह कुर्सी निर्दलीय उम्मीदवार उजागर लाल ने हथिया ली. मतलब मैनपुरी जिला पंचायत अध्यक्ष की सीट पर काबिज होने वाले अब तक के इतिहास में पहले निर्दलीय उम्मीदवार उजागर लाल ही थे. उजागर लाल के बाद भी निर्दलीय प्रत्याशी रहे सूरज सिंह ने ही यह सीट कब्जाई थी. वे 1958 तक इस सीट पर काबिज रहे.

कांग्रेस और सपा दोनो के "सूरज"
वो पहला मौका था जब सन् 1958 से लेकर 1961 तक के वक्त में यहां डीएम प्रशासक नियुक्त किया गया. कालांतर में धीरे धीरे यह सिलसिला चलता रहा. कभी डीएम प्रशासक और कभी कांग्रेस प्रत्याशी मैनपुरी जिला पंचायत अध्यक्ष की कुर्सी संभालते रहे. सन् 1976 से 1978 तक यहां कांग्रेस के सूरज सिंह यादव जिला पंचायत अध्यक्ष निर्वाचित हुए थे. उसके बाद से आज तक यानि 43 साल में कभी भी कांग्रेस को मैनपुरी जिला पंचायत अध्यक्ष की कुर्सी नसीब नहीं होने दी गई. यह जरूर है कि 1978 में जो सूरज सिंह यादव कांग्रेस के लिए इस सीट पर अंतिम जिला पंचायत अध्यक्ष साबित हुए, उन्होंने बाद में बना समाजवादी पार्टी का दामन थाम लिया और वे एक बार फिर से और. समाजवादी पार्टी की ओर से पहले मैनपुरी जिला पंचायत अध्यक्ष निर्वाचित हो गए.

वे अप्रैल 1991 से लेकर मार्च 1992 तक मैनपुरी जिला पंचायत अध्यक्ष रहे. मतलब सूरज सिंह यादव ने एक बार जो मैनपुरी जिला पंचायत अध्यक्ष की कुर्सी का चस्का समाजवादी पार्टी को लगाया वो फिर, मार्च 1992 से जनवरी 1993 तक की अवधि को छोड़कर, अब तक लगा ही रहा. क्योंकि मार्च 1992 से जनवरी 1993 तक बीजेपी के नामित शिव ओंकार नाथ पचौरी मैनपुरी जिला पंचायत अध्यक्ष किए गए थे. अगर मैनपुरी जिला पंचायत अध्यक्ष कुर्सी के इतिहास पर नजर डालें तो सन् 1947 से लेकर अब तक की, यानि करीब 74 साल की लंबी अवधि में इस कुर्सी पर सबसे ज्यादा "राज" पहले कांग्रेसी रह चुके और बाद में समाजवादी बनने वाले सूरज सिंह यादव ने ही किया था.

सोचना तो सपा को है बीजेपी को नहीं
जून 1994 से लेकर मई 1995 तक उनका इस कुर्सी पर अंतिम कार्यकाल था. मैनपुरी जिला पंचायत अध्यक्ष पद की चर्चा में सबसे खास बात यह भी रही कि, समाजवादी पार्टी ने यहां के अपने "राजपाट" के अंतिम वर्षों में, यानि मई 1995 से लेकर अब तक (जनवरी 2016 से अप्रैल 2021) सिर्फ और सिर्फ महिलाओं को ही इस कुर्सी पर बैठाया. इनमें तीन बार तो लगातार मैनपुरी जिला पंचायत अध्यक्ष पद पर समाजवादी पार्टी ने सुमन यादव (मई 1995 से लेकर जनवरी 2011 तक) को ही बैठाया. जबकि बीच में आशू दिवाकर (जनवरी 2011 से जून 2016 तक) और उसके बाद समाजवादी पार्टी की अब तक लगातार संध्या यादव ही जिला पंचायत अध्यक्ष रहीं थीं. बहरहाल जो भी अब जब 29-30 साल बाद भाजपा ने मैनपुरी में जिला पंचायत अध्यक्ष की कुर्सी हथियाकर, समाजवादी पार्टी का खेल यहां बिगाड़ ही दिया है. तो ऐसे में अब सोचना सपा को ही है कि आखिर उसने बीजेपी को अपने घर में घुसने के कौन कौन से रास्ते जाने-अनजाने बनाकर दिए थे. साथ ही समाजवादी पार्टी कुनवे को यह भी तय करना होगा कि, कहीं इन रास्तों को बनवाने में उसके कुछ अपने ही नाराज लोगों ने ते "अंदरखाने" उसका खेल नहीं बिगड़वा दिया. उस मैनपुरी में जहां जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनावों में समाजवादी पार्टी ने बीते तीन दशक में प्रत्याशी तो "यादव" जाति का ही बनाया-जितवाया मगर, मैनपुरी के ठाकुर, पंडित व अन्य जातियों के मतदाताओं के कंधे पर राजनीतिक की बंदूक चलाकर.

अपने ही हाथों अपना किला खोद डाला
समाजवादी पार्टी के मुख्यालय कहे जाने वाले "सैफई" के अंदर के लोगों की बात मानें तो, इस बार के उत्तर प्रदेश जिला पंचायत अध्यक्ष चुनावों में उसके अपनों ने ही उसका बेड़ा गर्क करा डाला है. किसी राजनीतिक पार्टी में "भीतरघात" किस कदर तबाही मचवा सकती है? इसका सबसे बेहतर उदाहरण यूपी जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव में समाजवादी पार्टी से अच्छा भला और दूसरा क्या हो सकता है? मैनपुरी, सैफेई, एटा, इटावा इलाके के समाजवादी पार्टी और बीजेपी के कद्दावर नेताओं से बात करने पर "अंदरखाने" की और भी तमाम बातें निकल सामने आती हैं. उनके मुताबिक इस बार के जिला पंचायत अध्यक्ष चुनावों के परिणामों में सपा के तमाम नाराज "अपनों" ने ही बीजेपी की नैय्या पार लगवा दी है. समाजवादी पार्टी को इसका अहसास मगर तब हुआ, जब उसके अभेद्य राजनीतिक किले को किसी एक दिशा से नहीं अपितु, चारों ओर से घेरकर भाजपाईयों ने भेद डाला.

मतलब सपा को अपने ही पुराने मंझे हुए रणनीतिकारों को, पार्टी में अहम फैसले लेने वालों की जमात से बाहर का रास्ता दिखाना सपा को मंहगा पड़ गया. फिरोजाबाद में सैफई कुनवे के रिश्तेदार-नातेदार और सिरसागंज विधायक हरिओम यादव को नाराज करना भी भारी पड़ गया. जबकि फर्रुखाबाद में समाजवादी पार्टी के पूर्व मंत्री नरेंद्र सिंह यादव की अनदेखी पार्टी को ले डूबी. दरअसल सपा के कद्दावर और मंझे हुए खिलाड़ी रहे नरेंद्र सिंह पुत्री मोनिका यादव के लिए सपा से लड़वाना चाहते थे. समाजवादी पार्टी ने 'नाक-भौं' सिकोड़ीं तो उन्होंने, बेटी को भाजपा के समर्थन से निर्दलीय प्रत्याशी बनाकर जितवा लिया.और कभी सपा के दिग्गज रणनीतिकार रहे नरेंद्र यादव ने सपा को ही पटकनी दे डाली. कमोबेश सपा की हार में यही आलम मैनपुरी में रहा. यहां सपा के दो पुराने महारथियों के बीच छिड़ी जंग में तीसरे उम्मीदवार को मैदान में उतारा गया था. लिहाजा मैनपुरी में भी सपा ने अपने हाथों ही अपने किले की नींव खोद डाली. अगर यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा
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