सम्पादकीय

लोकतंत्र के लिए महात्मा गांधी

Rani Sahu
12 Aug 2022 6:46 PM GMT
लोकतंत्र के लिए महात्मा गांधी
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बड़ी संख्या में लोग मानने लगे हैं कि भारतीय लोकतंत्र एक संकट के दौर से गुजऱ रहा है
बड़ी संख्या में लोग मानने लगे हैं कि भारतीय लोकतंत्र एक संकट के दौर से गुजऱ रहा है। लोकतांत्रिक संस्थाओं की कार्य शैलियां बदल रही हैं, कार्यपालिका और न्यायपालिका के कामकाज में अनावश्यक हस्तक्षेप हो रहा है और शैक्षणिक संस्थाओं में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से दखलंदाजी बढ़ती जा रही है। पाठ्य पुस्तकें बदली जा रही हैं और इतिहास को तोड़-मरोडक़र प्रस्तुत किया जा रहा है। कहीं फैज़ पर निशाना है तो कहीं किसी और ऐसे लेखकों और चिंतकों पर, जो प्रतिक्रियावादी ताकतों से अलग हटकर सोचते हैं, उनके खिलाफ आवाज़ उठाते हैं। हालांकि ये सभी काम कमोबेश सभी सरकारें करती हैं, क्योंकि सत्ता में बने रहने के यही परंपरागत तरीके हैं, पर अब अधिक से अधिक लोग महसूस करने लगे हैं कि रेंगता हुआ, लिजलिजा फासीवादी सर्प जीवन के हर इलाके में अपनी नाक घुसेड़ रहा है। ऐसी स्थितियों में एक छोटा वर्ग उन लोगों का भी है जिनका मानना है कि महात्मा गांधी की विचारधारा में इन समस्याओं का समाधान उपलब्ध है।
उनके पास ऐसा ताबीज़ है जो लोकतांत्रिक तौर-तरीकों की हिफाज़त कर सकता है, शर्त यह है हम उसे समझें और स्वीकार करें। जऱा इसके अलग-अलग पहलुओं पर नजऱ डालकर देखा जाए। करीब दो वर्ष पहले मैंने अपनी छात्राओं से पूछा था कि क्या गांधी जी के विचारों की आज के समय में कोई प्रासंगिकता है? ज़्यादातर इस बारे में चुप रहीं, पर कुछ ने कहा कि आज के भारत में गांधी जी बस एक नाम बनकर रह गए हैं। मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि कॉलेज की छात्राएं, जिनमें कई राजनीति-शास्त्र और समाजशास्त्र की भी अध्येता थीं, गांधी जी और उनके विचारों के बारे में कितना कम जानती हैं! कैसे हमारे छात्र भी एक खतरनाक कुप्रचार, एक बहुत बड़े झूठ के शिकार हुए जा रहे हैं और उन्हें इस बात की खबर ही नहीं! यह क्षण मेरे लिए दु:खद और आंखें खोलने वाला था। यह सच है कि मेरे छात्रों को गांधी जी की अहिंसा और सत्याग्रह से जुड़ी बातें एक 'यूटोपिया' की तरह लगती थीं। पूरी तरह अव्यावहारिक और असंगत, पर यह सच बर्दाश्त करना मेरे लिए बहुत ही मुश्किल प्रतीत हो रहा था। गांधी जी की सोच एक ख़ास किस्म के विभाजनकारी एजेंडे को पूरा करने में बाधा बनती है। पिछले कम से कम चार दशकों में भारत से ज्यादा देश से बाहर गांधी जी को पढ़ा और समझा गया है। बीसवीं सदी के महान चिंतकों और नेताओं के विचारों पर गांधी जी का असर इस बात को साबित करता है। नेल्सन मंडेला, खान अब्दुल गफ्फार खान, मार्टिन लूथर किंग जूनियर और यहां तक कि बराक ओबामा ने भी गांधी को एक हीरो की जगह दी थी। ऐसे लोगों की फेहरिस्त बहुत लंबी है और यहां इसका जिक़्र आवश्यक नहीं। गांधी जी के विचारों के बगैर शायद ही किसी नई वैश्विक व्यवस्था की कल्पना की जा सकती है। हिंसा और असहिष्णुता की संस्कृति के खिलाफ बापू की सोच एक बहुत ही सशक्त वक्तव्य रही है। देश की सरहदों से, भारतीय संस्कृति और विचारधारा से कहीं बहुत ऊपर और अलग हटकर गांधी के ईमानदार प्रयोगों को समझा जाना चाहिए।
किसी संकीर्ण विचारधारा के आलोक में नहीं। जिन प्रभावों ने गांधी जी के चरित्र को गढ़ा था वे किसी एक ख़ास देश और संस्कृति तक सीमित न होकर समूचे विश्व से संबंधित थे। गांधी सही अर्थ में एक विश्व नागरिक थे। पिछली सदी में ही गांधी जी समूची मानवता की नैतिक चेतना का अभिन्न हिस्सा बन चुके थे। दशकों से वे हर तरह के अन्याय के खिलाफ संघर्ष के एक सशक्त प्रतीक रहे हैं। असहमति और अन्याय के खिलाफ शालीन विरोध का गांधी जी एक पर्याय हैं। गांधी जी की प्रासंगिकता इसी 'विरोध की संस्कृति' के आलोक में परखी जा सकती है। गांधी जी ने जिस तरह से हिंद स्वराज में आधुनिक सभ्यता की आलोचना की, उससे आज के छात्रों और शिक्षकों को परिचित कराने की बड़ी जरूरत महसूस होनी चाहिए। उन्होंने पश्चिमी आधुनिक सभ्यता पर जमकर प्रहार करने का कोई भी मौका नहीं चूका। गांधी जी ने कुछ ऐसे प्रश्नों के बीज इस देश की चेतना में रोपे जो हमेशा के लिए प्रासंगिक रहेंगे। यदि इन प्रश्नों को हम आज नहीं पूछेंगे तो हमें उनको भविष्य में पूछने की जरूरत पड़ेगी। यह याद रखना जरूरी है कि गांधी जी जैसे लोग अपने समय से बहुत पहले जन्म लेते हैं और कार्य करते हैं। उनके प्रश्नों और कार्य शैली की प्रासंगिकता पर प्रश्न का सिलसिला उनके जाने के कई दशकों बाद भी जीवित रहता है। गांधी जी एक महान मूर्तिभंजक थे। हर पद्धति और प्रणाली पर उन्होंने सवाल किए। ऐसे लोगों को समझने में ही आमजन को सदियां लग जाती हैं। आत्म-ज्ञान और उसके जरिए समाज में परिवर्तन का जो अद्भुत नुस्खा गांधी जी ने प्रस्तुत किया, वह अपने आप में अनूठा है।
नई वैश्विक व्यवस्था का आधार व्यक्ति की चेतना में परिवर्तन है, यह उन्होंने कहा ही नहीं, इसे जीकर दिखाया। खुद को बदलने की गहरी फिक्र में लगे होने के बावजूद गांधी जी ने लगातार समाज में बदलाव के प्रयास किए। आम तौर पर भारतीय चिंतन इन दोनों धाराओं को अलग करके देखता रहा है। आत्मानुसंधान में लगे कई ऋषि-मुनियों व साधकों ने समाज में हो रही गतिविधियों से या तो मुंह मोड़ लिया और बाकी समाज सुधारक सिर्फ सामूहिक, राजनीतिक सुधारों के जरिए समाज में बदलाव के प्रयास करते रहे। बापू ने इन दोनों धाराओं को एक साथ मिला दिया। अपने व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में ऐसा करके दिखाया। गांधी जी को न भीड़ का डर था और न ही सरकारी ताकत का। गांधी जी के व्यक्तिगत, सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन में सबसे बड़ा सहारा आंतरिक साहस का था। लोकतंत्र के प्रति गांधी जी की निष्ठा की वजह से उनकी तुलना लोग सुकरात से करते थे। दोनों के लिए बातचीत, संवाद और लगातार प्रश्न पूछते रहना ही जीवन जीने का सही मार्ग था। गांधी जी के लिए सत्याग्रह का दर्शन इस भरोसे पर आधारित था कि अहिंसा वास्तव में दुष्टता और पाखंड के खिलाफ संघर्ष का एक मजबूत उपकरण है। सार्वजनिक जीवन में यह झूठ और अन्याय के खिलाफ सबसे सशक्त नैतिक हस्तक्षेप भी है। गौरतलब है कि गांधी जी हिंसा के खिलाफ तो थे, पर बार-बार यह कहने से थकते नहीं थे कि अहिंसा की जड़ में असहमत होने का साहस है।
हरिजन में गांधी जी लिखते हैं : 'अहिंसा सबसे सर्वोच्च आदर्श है। यह शक्तिशाली लोगों के लिए है, कायरों के लिए नहीं। दूसरों की हत्या से फायदा उठाने वाले यदि यह सोचते हैं कि वे धार्मिक जीवन जी रहे हैं, तो वे सिर्फ खुद को छल रहे होते हैं।' व्यक्ति के नैतिक विकास और उसके साहस से उपजा सामाजिक और राजनीतिक लोकतंत्र गांधी जी के लिए एक आदर्श लोकतंत्र था। यह संवाद, आपसी सम्मान और स्नेह पर आधारित था। यह सहिष्णुता और क्षमा पर आधारित था। विविधताओं से भरे आधुनिक समाज के पास अस्तित्व में बने रहने का इन आदर्शों के बगैर और कोई रास्ता ही नहीं है। यदि इनके विपरीत वह हिंसा, क्रोध, असहिष्णुता और नफरत का महिमामंडन करता है, तो वह जाने-अनजाने एक आत्मघाती मार्ग पर चल रहा होता है। एक तरह से गांधी जी ने आत्मज्ञान और आत्मसुधार के जरिए सामाजिक बदलाव के मकसद से राजनीति में शामिल होने का आग्रह लोगों से किया। भारतीय शिक्षा व्यवस्था में इस बात पर बार-बार जोर देने की जरूरत है कि देश-दुनिया की भयावह समस्याओं और बढ़ती अराजकता के बीच गांधी लगातार एक गंभीर चिंतक और नैतिक कल्याणमित्र की तरह लगातार मार्ग दिखा रहे हैं। हमें बार-बार उनको पढऩे, उनकी बातों पर चिंतन-मनन करने की जरूरत है। शिक्षक के नाते भी और छात्रों की तरह भी। एक आम, समझदार इनसान और नागरिक की तरह भी।
-(सप्रेस)
चैतन्य नागर
स्वतंत्र लेखक

By: divyahimachal

Rani Sahu

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