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- महाराष्ट्र का राजनीतिक...
आदित्य नारायण चोपड़ा; हाराष्ट्र में जिस तरह राजनीतिक घटनाक्रम चल रहा है उसे देखते हुए यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि राज्य का कांग्रेस, राष्ट्रवादी व शिवसेना का त्रिपक्षीय गठबन्धन (महाराष्ट्र विकास अघाड़ी) बिखरने के कगार पर है क्योंकि शिवसेना के कुल वर्तमान 55 विधायकों में से 40 का गुट अलग होकर श्री एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में अपनी पार्टी के मुख्यमन्त्री श्री उद्धव ठाकरे के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल बजा रहा है। जाहिर है कि श्री शिंदे ने शिवसेना के दो-तिहाई विधायकों से अधिक को अपने साथ लेकर यह सिद्ध कर दिया है कि वही अपनी संसदीय पार्टी के असल नेता हैं। इसकी सूचना उन्होंने राज्यपाल को भी दे दी है। अब सवाल यह है कि जब मुख्यमन्त्री को अपनी पार्टी के संसदीय दल का ही विश्वास प्राप्त नहीं है तो वह सत्तारूढ़ गठबन्धन का नेता कैसे हो सकता है? मगर विधानसभा के भीतर के मसलों के संरक्षक विधानसभा अध्यक्ष होते हैं। महाराष्ट्र में अध्यक्ष पद खाली पड़ा हुआ है और उपाध्यक्ष से ही काम चलाया जा रहा है। लेकिन शिंदे गुट ने उपाध्यक्ष के विरुद्ध भी अविश्वास प्रस्ताव की सूचना दे रखी है। इसका महत्व यह है कि शिवसेना से बागी हुए शिंदे गुट के विधायकों के खिलाफ यदि मुख्यमन्त्री ठाकरे की शिवसेना दल-बदल कानून के तहत कार्रवाई करने की गुजारिश करती है तो उपाध्यक्ष उस याचिका पर विचार नहीं कर सकते। ऐसे में यदि विधानसभा का सत्र बुलाने की सिफारिश मुख्यमन्त्री माननीय राज्यपाल से करते हैं तो वह उपाध्यक्ष को ही निर्देश देंगे, मगर उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लम्बित होने की वजह से वह सदन की बैठक की अध्यक्षता नहीं कर सकते। एेसी स्थिति में सदन की कार्रवाई चलाने के लिए विधानसभा के सदस्यों के बीच से ही किसी वरिष्ठ सदस्य को सर्वसम्मति से चुना जा सकता है। मगर यह स्थिति तब पैदा होगी जब ठाकरे सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव रखा जाये। अभी ऐसी स्थिति नहीं बनी है मगर श्री शिंदे द्वारा राज्यपाल को अपने समर्थक विधायकों की सूची भेजे जाने के बाद यह स्थिति तब बन सकती है जब वह उद्धव ठाकरे से अपना बहुमत सिद्ध करने के लिए कहें। दूसरी स्थिति यह है कि शिंदे गुट राज्यपाल से उद्धव ठाकरे को बर्खास्त करने की गुजारिश करे मगर इस गुट की यह मांग तब तक नहीं मानी जा सकती जब तक कि शिंदे गुट को विधानसभा के भीतर ही पृथक पार्टी की मान्यता न मिल जाये। यह मान्यता केवल विधानसभा अध्यक्ष ही दे सकते हैं। ऐसे में राज्यपाल की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है और वह अपने विवेक से राज्य की स्थिति का जायजा लेकर यह तय कर सकते हैं कि क्या उद्धव सरकार संविधान के निर्देश के अनुसार बहुमत की सरकार है। उनके सामने यह विकल्प प्रथम दृष्टया बनता है कि वह विधानसभा को कुछ समय के लिए स्थगित मुद्रा में रखने का आदेश दे दें और बाद मे देखें कि कौन सी पार्टी या दल अथवा गठबन्धन राज्य में स्थायी सरकार बना सकता है। दूसरा विकल्प राष्ट्रपति शासन का भी बचता है मगर इसके लिए उन्हें विधानसभा का सत्र बुला कर वर्तमान सरकार के बहुमत का फैसला करना पड़ेगा। मगर तीसरा विकल्प स्वयं मुख्यमन्त्री उद्धव ठाकरे के हाथ में है कि वह विधानसभा भंग करने की अनुशंसा अपने त्यागपत्र के साथ कर दें क्योंकि शिंदे गुट की मान्यता तय न होने पर यही समझा जायेगा कि उद्धव सरकार को तीनों दलों का समर्थन प्राप्त है और उनका बहुमत है। क्योंकि अभी तक शिंदे व उद्धव के बीच की लड़ाई उनकी पार्टी के भीतर की ही लड़ाई है। पहली नजर में यह लग रहा है कि भाजपा के 106 और शिंदे गुट के 40 विधायक मिल कर 285 सदस्यीय विधानसभा में 146 के बहुमत का आंकड़ा बहुत आसानी से प्राप्त कर लेंगे मगर इसके लागू होने में संवैधानिक पेचीदगियां इतनी ज्यादा हैं कि इसमें बहुत समय लग सकता है। अतः राज्य की राजनीतिक स्थिति यदि इसी प्रकार डांवाडोल रहती है तो राज्यपाल को हस्तक्षेप करना पड़ सकता है। संविधान में यह व्यवस्था तो है कि यदि मुख्यमन्त्री अपने मन्त्रिमंडल का विश्वास खो देते हैं तो उनकी सरकार बर्खास्त की जा सकती है। ऐसा 1953 में जम्मू-कश्मीर में शेख अब्दुल्ला की सरकार को बर्खास्त करके किया गया था। सत्तारूढ़ पार्टी के दो फाड़ हो जाने पर भी बहुमत को चुनौती मिलने पर विधानसभा के पटल पर इसका फैसला किया जा सकता है परन्तु महाराष्ट्र का मामला ऐसा पहला होगा जब विधानसभा का अध्यक्ष न हों और उपाध्यक्ष के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव रखा हुआ हो और मुख्यमन्त्री पार्टी में ही विद्रोह हो जाये। वैसे ऐसे मामले में संवैधानिक विश्वसनीयता व राजनीतिक नैतिकता कहती है कि मुख्यमन्त्री को स्वयं ही इस्तीफा दे देना चाहिए जिससे लोकतान्त्रिक उहापोह को टाला जा सके। मगर उद्धव ठाकरे ऐसा करने के लिए तैयार नहीं लगते और वह उल्टे व्यक्तिगत मुद्दे उठा कर राजनीति को और निचले स्तर पर ले जाना चाहते हैं। उनके मन्त्री पुत्र आदित्य ठाकरे की वजह से भी शिवसेना में यह संकट आया लगता है मगर वह उल्टे एकनाथ शिंदे को पकड़ कर कह रहे हैं कि उनका पुत्र भी तो सांसद है। राजनीति का यह गिरता स्तर हमें जमीनी स्तर सतर्क रहने का संकेत कर रहा है।