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माओवादी आंदोलन
महाराष्ट्र पुलिस के सी-60 दस्ते को शनिवार की शाम एक बड़ी कामयाबी मिली, जिसमें उसने छत्तीसगढ़ की सीमा से सटे गढ़चिरौली में दो-तीन शीर्ष कमांडरों सहित 26 नक्सलियों को मार गिराया। यह जवाबी कार्रवाई पिछले बुधवार को 15 पुलिस कमांडों की शहादत के बाद की गई थी। इस ऑपरेशन में शामिल सभी जवान सी-60 दस्ते के सदस्य थे, जिसे विशेष रूप से 1990 में नक्सल हिंसा से निपटने के लिए गठित किया गया था।
सी-60 पहले भी इस इलाके में इस तरह के ऑपरेशन करता रहा है। यह ऑपरेशन पूरी तरह से खुफिया जानकारियों पर आधारित था, जिसमें माओवादियों की लोकेशन एवं मिलिंद बाबूराव तेलतुम्बडे सहित वहां छिपे अन्य माओवादियों के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई थी। मुठभेड़ में ढेर हुए मिलिंद तेलतुम्बडे भाकपा के नवगठित एमएमसी क्षेत्र (महाराष्ट्र-मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़) का प्रमुख था, जिस पर 50 लाख रुपये का इनाम रखा गया।
असल में माओवादी आंदोलन अब अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है। एक समय तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने माओवादी हिंसा को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया था, लेकिन आज स्थिति बदल गई है। आज न केवल माओवादी हिंसा में कमी आई है, बल्कि कई बड़े-बड़े माओवादी कमांडर मारे गए हैं। गढ़चिरौली में सी-60 द्वारा की गई इस कार्रवाई में भी मिलिंद तेलतुम्बडे के अलावा दो अन्य शीर्ष कमांडर मारे गए हैं।
वर्ष 2009 में देश के 123 जिले माओवादी हिंसा से प्रभावित थे और 65 जिले बहुत ज्यादा माओवादी हिंसा से प्रभावित थे। लेकिन आज देश के मात्र 65 जिले माओवाद प्रभावित हैं और मात्र दो से तीन जिलों में माओवादी हिंसा सर्वाधिक है। बाकी जिलों में छिटपुट माओवादी गतिविधियां होती हैं। वर्ष 2009 और 2010 में प्रति वर्ष एक हजार से ज्यादा लोग (माओवादी, पुलिस, आम लोग समेत) मारे गए थे, लेकिन आज वैसी स्थिति नहीं है। माओवादियों के वर्चस्व का क्षेत्र सिकुड़ गया है।
गढ़चिरौली में माओवादी छिपते हैं। आप पिछले रिकॉर्ड देखेंगे, तो पाएंगे कि गढ़चिरौली में माओवादियों द्वारा हिंसक घटनाएं बहुत कम हुई हैं, जबकि माओवाद विरोधी सुरक्षा बलों की कार्रवाई की घटनाएं ज्यादा हुई हैं। हमें यह ध्यान रखना होगा कि हिंसक घटनाएं होना और माओवादियों का वर्चस्व, दोनों दो चीजें हैं। देश के 65 जिलों में वे आज भी हैं और छिटपुट हिंसक घटनाएं साल में एकाध बार होती रहती हैं। लेकिन जिस तरह का उनका वर्चस्व था और जितनी सक्रियता थी, वह बहुत हद तक सिमट गई है।
आज वे मात्र छत्तीसगढ़ में ही हावी हैं, वह भी बस्तर डिवीजन के दो-तीन जिलों में। एक जमाने में बस्तर के जंगलों में सुरक्षा बल जाने से डरते थे, लेकिन आज उस क्षेत्र में सुरक्षा बलों की चौकियां हैं। आज बस्तर के जंगलों के छोटे-छोटे इलाके में माओवादी छिपे हुए रहते हैं और पुलिस जब उधर सर्च ऑपरेशन चलाती है, तो वे उस इलाके की भौगोलिक स्थिति का लाभ उठाते हुए तत्काल भाग जाते हैं और फिर उन क्षेत्रों में लौट आते हैं। इक्का-दुक्का हिंसक घटनाएं कहीं भी हो सकती हैं।
संयुक्त आंध्र प्रदेश (तेलंगाना समेत) में एक समय साल में चार सौ-पांच सौ लोग नक्सली हिंसा में मारे जाते थे, अब एक-दो लोग भी मारे जाते हैं, तो बड़ी बात हो जाती है। सरकार के हाथ में कोई जादू की छड़ी नहीं है, जिससे नक्सली हिंसा का एकदम से खात्मा कर दिया जाएगा। इसे धीरे-धीरे खत्म किया जा सकता है और वह हो रहा है। फिलहाल जो स्थिति है, उसमें एक तरह से माओवादी आंदोलन लगभग खात्मे के रास्ते पर है। धीरे-धीरे इनके वर्चस्व के क्षेत्र सिमटते जा रहे हैं।
पाठकों को याद होगा कि 2008-09 में पश्चिम बंगाल पूरे देश में सबसे ज्यादा माओवाद प्रभावित क्षेत्र था, लेकिन आज वहां माओवादी हिंसा की घटना शायद ही सुनने को मिलती है। जहां तक बिहार, झारखंड में नक्सली हिंसा की बात है, तो वह माओवादी आंदोलन नहीं है। उधर जो माओवादी गुट सक्रिय हैं, वे दरअसल फिरौती गिरोह हैं। उनकी तुलना छत्तीसगढ़ या गढ़चिरौली के माओवादियों से करेंगे, तो यह गलत होगा। बिहार, झारखंड में जो नक्सली गुट हैं, वे छोटे-छोटे फिरौती गिरोह हैं, जबकि छत्तीसगढ़ या गढ़चिरौली के माओवादियों के आंदोलन में अब भी थोड़ी जान बची है। और इसे काबू में लाने के लिए गढ़चिरौली में ये ऑपरेशन किए गए, जो बहुत कामयाब रहे।
विभिन्न क्षेत्रों में कभी-कभार माओवादियों की जो हिंसक घटनाएं होती हैं, उसका एक कारण यह है कि वे अपने अस्तित्व को बचाने के लिए ऐसी हिंसक घटनाओं को अंजाम देते रहते हैं। कोई भी हिंसक संगठन अगर कुछ न करे, और चुप बैठ जाए, तो वह सिकुड़ कर अपने आप खत्म हो जाएगा। उसे अपनी क्षमता दिखाने के लिए कुछ न कुछ करना ही पड़ता है। वे अपनी क्षमता दो-तीन चीजों के लिए दिखाते हैं। अगर वे अपनी क्षमता नहीं दिखाएंगे, तो कोई उनकी तरफ आकर्षित नहीं होगा। माओवादियों को अपने संगठन में भर्ती करने के लिए नए-नए रंगरूट नहीं मिलेंगे।
दूसरी बात, उन इलाकों में रहने वाले आम लोग, जो उनकी विभिन्न तरह से मदद करते हैं, वे भी इनकी निष्क्रियता देख धीरे-धीरे अलग होने लगते हैं और सरकार के सुरक्षा बलों की मदद करने लगते हैं। इसलिए उन्हें सरकार का मददगार बनने से रोकने के लिए, धमकाने-डराने की खातिर माओवादी हिंसक घटनाओं को अंजाम देते हैं। तीसरा, ये पुलिस के मुखबिरों को निशाना बनाने के लिए हिंसा करते हैं।
चौथा, अगर उन्हें खबर मिलती है कि अमुक रास्ते से पुलिस या सुरक्षा बलों का दस्ता जा रहा है और उनकी क्षमता मजबूत होती है, तो वे सुरक्षा बलों के खिलाफ हिंसा करते हैं। ऐसे ऑपरेशन को मौके का ऑपरेशन कहा जाता है और अगर ये ऑपरेशन ज्यादा कामयाब होते हैं, तो फिर उनका वर्चस्व बढ़ने लगता है। लेकिन छिटपुट घटनाओं के बावजूद माओवादियों का वर्चस्व एक छोटे से क्षेत्र में सिमटकर रह गया है और माओवादी हिंसा में भारी कमी आई है। माओवादी हिंसा आज आंतरिक सुरक्षा के लिए पहले की तरह बड़ा खतरा नहीं रह गई है। आज माओवादी आंदोलन अपना अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रहा है।
(लेखक इंस्टीट्यूट फॉर कांफ्लिक्ट मैनेजमेंट के कार्यकारी निदेशक हैं।)
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