सम्पादकीय

महाभारत, मीडिया और तीजन

Gulabi
24 Oct 2021 4:41 PM GMT
महाभारत, मीडिया और तीजन
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बोल वृंदावन बिहारी लाल की जय

रंगभूमि पर रणभूमि की हुंकार भरने वाली मशहूर पंडवानी गायिका तीजन बाई एक मुद्दत बाद भोपाल आईं तो उन्हें व्हीलचेअर पर देखना उनके क़द्रदानों के लिए चौंकाने वाला अहसास था. लेकिन उनकी आमद की आहट हर बार की तरह मसर्रत से भरी थी. जनजातीय संग्रहालय के परिसर में दाखिल होते ही तीजनबाई ने कहा- 'यहां गांव की सौंधी महक बसी है. इस संग्रहालय में आकर अपनी जड़ों और मिट्टी की ताक़त का पता चलता है.'


उम्र के सातवें दशक से गुज़र रही इस बुजुर्ग छत्तीसगढ़ी गायिका ने कहा कि उनका शरीर अब थक रहा है लेकिन पंडवानी का मंच हमेशा टेरता रहता है. मेरे ख़ून में अचानक जोश लौट आता है. बकौल तीजन- 'मेरे जीवन पर एक फि़ल्म बनने जा रही है. मेरा कि़रदार निभाने के लिए विद्या बालन तैयार हुई है. इसी आने वाले 30 अक्टूबर को वे मुझसे मिलने छत्तीसगढ़ आ रही है.'

बोल वृंदावन बिहारी लाल की जय… इस उद्घोष के साथ छिड़ने लगता है छत्तीसगढ़ी लय-ताल का अल्हड़ संगीत. हाथ में इकतारा लिए पंडवानी गायिका महाभारत की कथा का प्रसंग सुनाने मंच पर मुस्तैदी से प्रकट होती हैं और अपार जन समुदाय अधीर होकर इस विलक्षण कथाकार को निहारने लगता है. संगीत एक सिरे पर जाकर थमता है और शुरू होती है- पांडवों की कथा. भाव-भंगिमाओं और संवादों की ऐसी सहज अदायगी कि देखते-देखते धृतराष्ट्र, भीम, अर्जुन, गांधारी, द्रोपदी और महाभारत के नायक कृष्ण का चरित्र सजीव हो उठते हैं.

छत्तीसगढ़ की चौक-चौपाल से लेकर देश-दुनिया के सैकड़ों मंचों पर पंडवानी का परचम लहरा चुकी पद्मभूषण तीजनबाई का फ़न अब किसी से अछूता नहीं रहा लेकिन जीवन की आधी सदी से भी ज्यादा का वक्त पार करने के बाद अब लगता है जैसे उनकी ऊर्जा सिमटने लगी है. कहती हैं-'अब कुछ थकावट महसूस होती है. मैं चाहती हूँ इस देश को एक और तीजनबाई मिल जाए'.

तीजनबाई को पंडवानी करते देखना सदा एक ऐतिहासिक अनुभव होता है. उनकी हुंकार भरती वाणी और देह में जब महाभारत के पन्ने खुलते हैं तो यह किसी आश्चर्य लोक से कम नहीं होता. ज़ाहिर है यह कुव्वत तीजनबाई ने लंबे संघर्ष के बाद अर्जित की है. उन्हें संतोष होता है कि गांव की चौहद्दी तक सिमटी पंडवानी समंदर पार के देशों तक अपनी महक बिखेर चुकी है. पापुलरिटी के दौर में उनकी परंपरा का रंग भी फीका नहीं पड़ा बल्कि सिर चढ़कर हल्ला बोलता रहा है.

लेकिन अब उन्हें चिंता है अपनी इस विरासत की. उन्हें रितु वर्मा, मीना साहू और शांतिबाई चेलक से काफ़ी उम्मीदें रहीं. वे चाहती हैं, जल्दी ही इस देश को एक और तीजनबाई मिल जाए. वे बताती हैं कि उनकी प्रस्तुति से आकर्षित होकर कई शहरी लड़कियां पंडवानी सीखने को लालायित होती हैं, लेकिन लोक कलाओं को समझना आसान है पर आचरण और संस्कारों में ढालना सरल नहीं है. तीजनबाई कहती हैं- इसके लिए भाषा, परिवेश और मिट्टी में रचना-बसना पड़ता है.

हालांकि तीजनबाई इस बात से ख़ुश हैं कि आज छत्तीसगढ़ में पंडवानी गाने वालों की तादाद बढ़ रही है. छोटी-बड़ी कई मंडलियां हैं पर सबको जल्दी ही मंच, पैसा और शोहरत चाहिए. आज स्थिति यह है कि दो सौ से भी ज़्यादा कलाकारों को वे पंडवानी का प्रशिक्षण दे रही हैं, लेकिन तीजनबाई के अनुसार यह बताना कठिन है कि आगे चलकर ये क्या गुल खिलाते हैं.

तेरह बरस की किशोर उम्र में तीजनबाई ने पहली बार पंडवानी के सुर साधे और दुर्ग जिले के चनखुरी गांव में पहला कार्यक्रम दिया. बहुत याद आता है वह समय. कहती हैं- 'पूरा देश घूम लिया. कई बार विदेशों की सैर कर ली. पंडवानी रौशन हो गई. मेरे लिए इससे बड़ी ख़ुशी हो नहीं सकती.' संघर्ष के दिनों को वे भूलती नहीं है- 'जब तक जली रोटी का अहसास नहीं होगा, भोजन में मिठास नहीं आयेगी.' अब तो पंडवानी सबकी जु़बान पर है. ईश्वर से विनती है कि यह स्थिति बनी रहे.

पद्मश्री के बाद पद्मभूषण और डी.लिट. की उपाधियों से विभूषित तीजनबाई इस बीच एक मज़ेदार वाकया सुनाती हैं. जब उन्हें बिलासपुर के विश्व विद्यालय से फ़ोन आया कि उन्हें डाक्टरेट की उपाधि दी जा रही है तो वे चिंता में पड़ गयीं. कहा-मुझे डॉक्टर नहीं बनना है. मैं लोगों का कैसे इलाज करूंगी. और फ़ोन काट दिया. फिर लोगों ने समझाया कि यह इलाज करने वाली डाक्टरेट नहीं है सिर्फ़ नाम के आगे वाली डाक्टरेट है, तब माजरा समझ आया.

बहरहाल पंडवानी, तीजन और छत्तीसगढ़ कुछ इस तरह एकमेक हैं कि दुनिया में ऐसी दूसरी मिसाल मिलना मुश्किल हैं. महाभारत के आख्यान को लोक शैली में इतनी शिद्दत से कहने का कला-कौशल छत्तीसगढ़ की रंगभूमि के पास ही है. ठेठ छत्तीसगढ़ी वेश-भूषा में तंबूरा हाथ में लिए जब मंच पर तीजनबाई अपनी संगीत मंडली के साथ उतरती हैं तो दर्शकों पर सम्मोहन छा जाता है. महाभारत में मौजूद तमाम भाव-रस तीजन के रोम-रोम में जीवंत हो उठता है.

कथानक की सहज, कुटिल और वक्रोक्ति से भरे संवादों का प्रवाह मंच से सीधे दर्शक के मानस से टकराता है. यह शब्द का अतिक्रमण कर महाभारत की कथा एक चरित्र अभिनय से एकाकार होकर वैश्विक अनुभव में बदल जाती है. लोक में गहरी पैठ रखने वाले प्रतिज्ञा, वीरता, त्याग, सेवा जैसे मूल्य अगर इंसानी दुनिया का भरोसा हैं तो महाभारत की कलह-कथा के सार में यही तो संदेश है. पंडवानी इस अर्थ में मनोरंजन और विचार का बखूबी ताना-बाना तैयार करती है.

पंडवानी का संदर्भ लेते हुए ललित निबंधकार डा. श्याम सुंदर दुबे अपने एक शोध में महाभारत के मास कम्यूनिकेशन यानी जनता के बीच उसके संप्रेषण का अध्ययन करते हुए कहते हैं कि पांडवों और कौरवों की इस ऐतिहासिक कथा को देखने-सुनने का एक माध्यम हमें पंडवानी के रूप में मिला है तो दूसरा टेलीविज़न का छोटा परदा जहाँ धारावाहिक रूप से सारी दुनिया ने मुग्ध होकर जीवन के रंगमंच पर घटने वाले सामाजिक यथार्थ को देखा.

महाभारत सीरियल की अद्भुत लोकप्रियता का ये हाल था कि जिस समय ये सीरियल टेलीविज़न पर आता था, उस समय महानगरों, नगरों, कस्बों, गांवों में राहगीर नज़र नहीं आते थे. सभी काम-धाम छोड़कर महाभारत देखने में व्यस्त हो जाते थे. महाभारत देखने की यह उत्सुकता एकाएक उत्पन्न नहीं हुई थी. लोक में महाभारत के कथानक का आकर्षण एक अंडर करेंट की तरह निरंतर प्रवाहित होता रहा है.

लोक की प्रस्तुतियों ने महाभारत की कथा-घटनाओं में अंतर्गुफित रहस्य भावना एवं कौतूहली प्रकृति को जन-मानस तक संप्रेषित किया. इसी आधार पर जन इस कथा के प्रति अपनी उत्सुकता को बनाये रखने में समर्थ हुआ. बी.आर. चोपड़ा ने भारतीय जन-जीवन की जातीय-स्मृतियों से पूरित इस महाकाव्यात्मक कथानक को परदे पर प्रस्तुत कर महाभारत की कथा को सर्वजन सुलभ कराया. सीरियल के रूप में आते ही महाभारत एक टाइप में बदल गया.

दर्शक के दिमाग पर विभिन्न पात्रों की छवियों का एक ख़ास बिंब दर्ज हो गया. यहां तक कि महाभारत के चरित्रों को अभिनीत करने वाले अभिनेता, अभिनेत्री लंबे काल तक दर्शकों के मानस-पटल पर अपने असली व्यक्तित्व के रूप में उपस्थित होकर भी, महाभारतीय चरित्र के रूप में ही जाने-पहचाने जाते रहे हैं. महाभारत की दृश्य-संयोजना, संगीत और संवाद भी एक ख़ास लहज़ा देने वाले थे. इस लहज़े में ही आम-जन ने महाभारत को दर्शकों के दिमाग में अपने ढंग से प्रायोजित कर दिया है.

इस तरह महाभारत के साथ लोक की जो बहुलतावादी प्रतिक्रियायें थीं, उन्हें और उनके समस्त सौंदर्य संवेदनों को समाप्त करने के ख़तरे टेलीविज़न ने खड़े कर दिये हैं. महाभारत की असंबद्ध कथाओं को पहले जय काव्य में सुसंबद्ध किया गया, फिर 'जय' काव्य से व्यास परंपरा ने सारांश ग्रहण कर 'महाभारत' की रचना की. यदि व्यास रचनाकार के रूप में कोई विशेष व्यक्ति नहीं हैं, तो अंतिम व्यास ने महाभारत की जो प्रामाणिक प्रस्तुति की थी, वह महाभारत की कथा का एक तरह से परिसीमन था, किन्तु लोक ने अपनी स्मृतियों को आधार बनाकर अपनी महाभारत रचने की शक्ति नहीं खोयी थी, इसलिये लोक अपनी तरह से महाभारत कथा से जूझता रहा.

लेकिन, टेलीविज़न जैसे माध्यम पर महाभारत की प्रस्तुति ने लोक की अपनी जातीय स्मृतियों को अवरूद्ध कर दिया है. इस तरह का मानकीकरण लोक की प्रकृति के अनुकूल नहीं है. लोक अपने ढंग से ही महाभारत और रामायण पर अपनी कथा-सत्ताओं का आरोपण करता रहा है. अपने जीवनगत संस्कारों और अपने सोच-विचारों के आधार पर ही लोक इन महत्वपूर्ण कथाओं को फिर से रचता रहा है. टेलीविज़न ने लोक की इस सृजन-क्षमता को स्थगित किया है.

इस स्तब्ध समय में ज़रूरी है कि लोक की अभिव्यक्ति को अवकाश मिलता रहे. यदि लोक की अपनी प्रस्तुतियां रूकी और बाधित नहीं हुईं, तो टेलीविज़न का ख़तरा लोक की सृजनात्मकता को समाप्त नहीं कर पायेगा. सिनेमा और सीरियल के अंधाधुंध में यदि नाटकों का मंचन सक्रिय है, तो फिर लोक में प्रस्तुत की जाने वाली महाभारत की तमाम पद्धतियों को आद्यात पहुंचाए बिना भी उन्हें जीवंत बनाये रखा जा सकता है. लोक अपने अस्तित्व के प्रति जागरूक होकर ही तमाम तरह की अपसंस्कृति से मुक्त रह सकता है. टेलीविज़न जैसे माध्यम लोक की कला-संरचनाओं का सही संवाहक बन सकता है.

छत्तीसगढ़ की पंडवानी की अंतर्राष्ट्रीय प्रस्तुतियों के दृश्य मीडिया ने क्षेत्रीयता से मुक्त करके लोक की स्वीकृति सिद्ध की है. महाभारत की तमाम लोक प्रस्तुतियों को यदि दृश्य मीडिया संजीदगी से सजाने और उन्हें प्रदर्शित करने का कार्य करता है तो यह महाभारत की कथा के लोक संचार के नए फलक खुलने की उपलब्धि होगा. लोक में इस तरह के कला-प्रयोगों के प्रति लोक-जन की रूचि बरकरार रहेगी और उसका परिष्कार भी होगा.

लोक को अपनी मायथालॉजी से अपने अनुरूप आशय को आविष्कृत करने का अवसर सुलभ होना चाहिये. उसे इस तरह के अवसर मीडिया सुलभ करा सकता है. लोक को फोकस करने में यदि दृश्य मीडिया सक्रिय रहे तो उसकी रचना आस्वादन के स्तर पर मोनोटोनस नहीं रह पायेगी. मीडिया इस अमृता शक्ति को पहचाने. विद्या बालन अभिनीत निर्माणाधीन फि़ल्म इस दिशा में क्या गुल खिलाती है, देखना दिलचस्प होगा.



(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
ब्लॉगर के बारे में
विनय उपाध्याय
विनय उपाध्यायकला समीक्षक, मीडियाकर्मी एवं उद्घोषक
कला समीक्षक और मीडियाकर्मी. कई अखबारों, दूरदर्शन और आकाशवाणी के लिए काम किया. संगीत, नृत्य, चित्रकला, रंगकर्म पर लेखन. राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उद्घोषक की भूमिका निभाते रहे हैं.


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