सम्पादकीय

महाराष्ट्र में महाभारत: आखिर क्या होगा सरकार का भविष्य?

Rani Sahu
24 Jun 2022 3:19 PM GMT
महाराष्ट्र में महाभारत: आखिर क्या होगा सरकार का भविष्य?
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इन दिनों महाराष्ट्र में सियासी उठापटक पर देश की नजरें लगी हैं

राजेश बादल

सोर्स- अमर उजाला

इन दिनों महाराष्ट्र में सियासी उठापटक पर देश की नजरें लगी हैं। शिवसेना में एकनाथ शिंदे गुट की बगावत के बाद पार्टी साफ साफ दो धड़ों में बंटती दिख रही है। मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे पार्टी में विद्रोह से आहत हैं और इस्तीफे की पेशकश कर चुके हैं और एकनाथ शिंदे का गुट पार्टी से अलग होने के लिए छटपटा रहा है। ऐसे में आम मतदाता और राजनीतिक जानकारों के लिए राजभवन से संचालित गतिविधियां दिलचस्पी का विषय हो सकती हैं।
क्या प्रदेश में नए मुख्यमंत्री और गठबंधन की सरकार बनेगी? क्या मौजूदा नेतृत्व येन केन प्रकारेण सरकार बचा लेगा? क्या विधानसभा भंग होगी और नए चुनाव होंगे? अथवा इन सबसे अलग राष्ट्रपति शासन पर राष्ट्रपति मुहर लगाएंगे? इन सारे प्रश्नों का उत्तर आने वाले दिनों में मिल जाएगा, लेकिन तय है कि राज्यपाल की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण होगी।
मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के आधिकारिक आवास खाली करने का अर्थ यह लगाया जा रहा है कि वे अब पद पर काम करने के इच्छुक नहीं हैं और एक तरह से स्वीकार कर चुके हैं कि उनकी सरकार अल्पमत में आ चुकी है। तो क्या शिवसेना में विभाजन अब हकीकत है।
अगर ऐसा है तो भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से बाकी कार्यकाल के लिए शिवसेना के बागी नेता एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री या उप मुख्यमंत्री पद संभाल सकते हैं बशर्ते उन्हें बहुमत का समर्थन हासिल हो और राज्यपाल को भरोसा हो जाए कि एकनाथ शिंदे के साथ बहुमत है। चूंकि देवेंद्र फडणवीस के मामले में एक बार राज्यपाल के अपने विवेक का इस्तेमाल करने से किरकिरी हो चुकी है। इसलिए इस बार वे अपने पद की जिम्मेदारी और छबि को लेकर यकीनन संवेदनशील रहेंगे।
फिर कैसे तय किया जाएगा कि महाराष्ट्र की कमान कौन संभालेगा? जाहिर है, फैसला विधानसभा में ही होगा। पर सदन का सत्र बुलाने का निर्णय भी राज्यपाल को ही करना है। इसके लिए बहुमत वाली सरकार की अनुशंसा आवश्यक है। हां, राजभवन के संसदीय सलाहकार की राय राज्यपाल को यह भरोसा देती हो कि सरकार बहुमत खो चुकी है तो वे मुख्यमंत्री को विश्वास मत हासिल करने का निर्देश दे सकते हैं।
माना जाए कि समूचे घटनाक्रम में परदे के पीछे भारतीय जनता पार्टी की भूमिका है तो सदन में बहुमत साबित करने की मांग जोखिम भरी हो सकती है क्योंकि सदन में उपाध्यक्ष को यह प्रक्रिया संपन्न करानी होगी, जो राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से जुड़े हैं।
असल में एकनाथ शिंदे ने बगावत का समय सोच-समझ कर चुना है। यदि सदन का सत्र चल रहा होता तो शिवसेना में विभाजन और दल बदल कानून के तहत कार्रवाई का निर्णय सदन के स्पीकर के हाथ में होता। लेकिन सत्र नहीं चल रहा है इसलिए शिंदे को सिर्फ चुनाव आयोग की शरण में जाना है। वे अपने गुट को असली शिवसेना बताकर अधिकृत चुनाव चिह्न मांग सकते हैं या शिवसेना का चुनाव चिह्न रोकने की मांग कर सकते हैं।
लब्बो लुआब यह कि घटनाक्रम का केंद्र बिंदु अब राज्यपाल हैं। दिलचस्प यह है कि संविधान इस मामले में राज्यपाल के विवेक को मान्यता देता है। वह राज्यपाल के विवेक को अधिकार में तब्दील कर देता है। यह बात अलग है कि उसके निर्णय को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है। अगर राज्यपाल को लगता है कि मुख्यमंत्री बहुमत खो चुके हैं तो वे विधानसभा का सत्र बुलाने और मुख्यमंत्री को बहुमत साबित करने का निर्देश दे सकते हैं। अनुच्छेद 163 के अनुसार वे विवेक से ऐसा कर सकते हैं।
इतना ही नहीं, वे संतुष्ट हों तो बहुमत सिद्ध किए बिना भी किसी राजनेता को विवेक से मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला सकते हैं और बाद में सदन में बहुमत साबित करने का निर्देश दे सकते हैं। मान लीजिए, मुख्यमंत्री बहुमत हासिल करने में नाकाम रहते हैं तो राज्यपाल विधानसभा भंग कर सकते हैं।
लेकिन इससे पहले उन्हें उन विकल्पों पर विचार करना होगा, जो प्रदेश को बहुमत वाली सरकार दे सकते हों। यदि राज्यपाल का विवेक कहता है कि प्रदेश में ऐसी स्थिति बन गई है कि प्रशासन संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक नहीं चल रहा है तो वह राष्ट्रपति को रिपोर्ट के जरिए अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर सकता है।
आप कह सकते हैं कि यह एक तरह से अंतिम कार्रवाई है। अनुच्छेद 163 (2 ) कहता है कि यदि किसी मामले में राज्यपाल के पास सिर्फ विवेक से निर्णय लेने का विकल्प बचता है तो फिर उसके विवेकानुसार किया गया फैसला अंतिम होगा। फिर प्रश्न नहीं उठाया जाएगा कि राज्यपाल को विवेक से काम करना चाहिए था या नहीं।
अक्सर राज्यपालों के विवेकाधिकारों पर बहस होती रही है। आरोप भी लगे हैं कि केंद्र राज्यपालों का दुरुपयोग करता है। संसदीय जानकारों के बीच मार्गदर्शी सिद्धांत तैयार करने की वकालत भी होती रही है। कभी-कभी प्रदेशों में एक जैसी स्थितियों में राज्यपालों ने अलग-अलग प्रकृति के निर्णय लिए। उनके मद्देनजर स्वस्थ्य परंपरा और एकरूपता बनाए रखने के लिए इन सिद्धांतों की जरूरत महसूस की जाती रही है। इस मायने से सरकारिया आयोग की रिपोर्ट महत्वपूर्ण है। हालांकि आयोग ने रपट में ऐसे सिद्धांतों को अव्यावहारिक माना है।
आयोग की राय थी कि राज्यपाल के विवेकाधिकारों को बनाए रखा जाना चाहिए। पूर्व राष्ट्रपति और राज्यपाल रहे डॉक्टर शंकरदयाल शर्मा ने कहा था-
बुद्धिमान राज्यपाल सुनिश्चित करते हैं कि कभी भी उनके पद की सीमा का उल्लंघन नहीं हो। उनकी बात को बढ़ाते हुए संसदीय विशेषज्ञ एमएम जैकब ने संसद के दस्तावेज में लिखा था ," गैर समझौतापरक निष्ठा और दृढ विश्वास का साहस राज्यपाल की प्रतिभा का प्रमाण होना चाहिए। उसका ध्येय सार्वजनिक हित और संविधान की रक्षा होना चाहिए। राज्यपाल के निर्णयों पर किन्ही अन्य बातों का प्रभाव नहीं होना चाहिए। यही सार है।
Rani Sahu

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