सम्पादकीय

सोशल मीडिया के महाबली, कहानी फेसबुक की...

Gulabi
10 Jun 2021 11:30 AM GMT
सोशल मीडिया के महाबली, कहानी फेसबुक की...
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सोशल मीडिया के महाबली

वर्ष 2003 में जब मार्क जुकरबर्ग हार्वर्ड में छात्र थे, तो उन्होंने एक छोटे से इंट्रानेट के बारे में सोचा, ताकि उनके साथी छात्र अपनी तस्वीरें साझा कर सकें, तब उन्होंने सोचा नहीं होगा कि वह क्या करने जा रहे हैं। फेसमास नामक यह मासूम-सा विचार कॉलेज नेटवर्क पर साथी छात्रों को जोड़ने के लिए था, जहां वे न केवल अपनी तस्वीरें अपलोड कर सकते थे, बल्कि अपनी पसंद, क्लब, खेल, कक्षा कार्यक्रम और शौक जैसी अन्य जानकारी साझा कर सकते थे।

यह काफी हद तक कॉलेज के इंट्रानेट नेटवर्क की तरह था, जो कक्षा कार्यक्रम, छुट्टियों, असाइनमेंट और पठन सामग्री आदि के बारे में संवाद के लिए संकाय द्वारा चलाया जाता था। फर्क सिर्फ इतना था कि यह छात्रों द्वारा संचालित था और मस्ती भरा था। चूंकि इसने कॉलेज मानदंडों का उल्लंघन किया था, इसलिए इसे दो दिन के भीतर बंद कर दिया गया। फिर भी 48 घंटे के भीतर 450 छात्र इसमें शामिल हो गए थे। इस बाधा को दूर करने के लिए उन्होंने फरवरी, 2004 में एक कंपनी पंजीकृत कराई, जिसका नाम था-द फेसबुक डॉट कॉम। बहुत जल्द ही येल और स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के छात्र इस नेटवर्क में शामिल हो गए और तीन महीनों के भीतर तीस से ज्यादा कॉलेजों के ढाई लाख छात्र इससे जुड़े थे!
क्या यह एक दूरदर्शी दृष्टि थी, हां, तब एक धुंधली-सी दूरदृष्टि। यहां 'ये दिल मांगे मोर' जैसी भावना थी। फिर उन्होंने हाई स्कूल के छात्रों और अन्य विश्वविद्यालयों के छात्रों के भी शामिल होने के लिए नेटवर्क खोला और 2004 के अंत तक उनके पास दस लाख उपयोगकर्ता थे! चार्ल्स एफ केटेरिंग ने कहा है कि 'अपने लक्ष्य की तरफ चलते रहें, संभव है कि आप किसी चीज से ठोकर खाकर गिर पड़ें, लेकिन तब कम से कम आप किसी चीज की उम्मीद तो कर रहे होंगे। मैंने कभी नहीं सुना कि बैठा हुआ आदमी किसी चीज से ठोकर खाकर गिर पड़ा हो।'
फिर आपको अपने अस्थायी विचार को स्थायी रूप से संरक्षण देने की जरूरत होती है और यही जुकरबर्ग ने किया। उन्होंने बहुत ज्यादा तस्वीरें अपलोड करने से लेकर ज्यादा लोगों तक पहुंच बनाने के लिए यूजर वॉल और टैगिंग सुविधाओं का निर्माण कर सॉफ्टवेयर में बदलाव किया। वर्ष 2005 में अमेरिका के बाहर के छात्रों को भी इसमें शामिल होने की अनुमति प्रदान की गई। साल के अंत तक इसके साठ लाख मासिक सक्रिय उपयोगकर्ता थे। यह जैकपॉट जीतने जैसा था। वर्ष 2006 में फेसबुक ने 13 वर्ष से अधिक उम्र के किसी भी व्यक्ति के लिए अपनी सदस्यता खोल दी और दुनिया के लिए अपने द्वार खोल दिए। यह समय उनके बाल विज्ञापनदाता से मौद्रिक कमाई का था, जो नए और प्रभावी ग्राहक संबंध बनाने में सक्षम थे। शुरू में घरेलू उत्पाद निर्माता प्रॉक्टर ऐंड गैंबल ने दांतों को सफेद करने वाले उत्पाद के साथ 'आत्मीयता व्यक्त' करके 14,000 लोगों को आकर्षित किया। इतने बड़े पैमाने पर उपभोक्ताओं से प्रत्यक्ष जुड़ाव फेसबुक से पहले संभव नहीं था। उसके बाद अन्य कंपनियों ने भी मार्केटिंग और विज्ञापन के लिए सोशल नेटवर्क का उपयोग करना शुरू कर दिया।
वे कभी सोच भी नहीं सकते थे कि इस नेटवर्क में शामिल होने वाले लोगों की इस उन्मादी भीड़ के पीछे क्या प्रेरक शक्ति हो सकती है। अगर फेसबुक या टि्वटर या व्हाट्सएप जैसे अन्य सोशल प्लेटफॉर्म की सफलता के बाद का विश्लेषण करें, तो हम पाते हैं कि किसी इंसान की सबसे प्रेरक शक्ति होती है उन लोगों तक पहुंच, जिनके बारे में वह कुछ महसूस करता है और उनके बारे में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। यही कारण है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रत्येक विचारशील संविधान में 'नागरिकों के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' मौलिक अधिकार के रूप में निहित है। एक स्थापित अखबार के लिए सामान्य व्यक्ति का लिखना अत्यंत कठिन है और उसमें कई बाधाएं हैं।
फेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म आपकी बात और दूसरों की भावनाओं के बारे में तुरंत प्रतिक्रिया देते हैं। ये लोगों से जुड़ाव और 'अपने विचारों और भावनाओं को प्रकट करने' के तरीके हैं। यानी अचानक ही जुड़ाव के नियम बदल गए। आज की दुनिया में भौतिक, व्यक्तिगत और राजनीतिक उम्मीदें इतनी अधिक हैं कि एक समझदार व्यक्ति भी पागल और बेवजह दुखी हो जाए। सोशल मीडिया वह है, जिसे प्रेशर कूकर मैकेनिज्म या मनोवैज्ञानिक शब्दावली में कैथार्सिस (खाली होना) कहा जाता है। इसका दूसरा पहलू यह है कि यह 'मैं भी' भावना है, जो सभी मनुष्यों के लिए महत्वपूर्ण और आत्म-साक्षात्कार की तरह है।
बहुत संभव है कि जब वे साठ लाख सक्रिय सदस्य के जादुई आंकड़े तक पहुंचे होंगे, तो जुकरबर्ग को एहसास न रहा हो कि इस सफलता की वजह क्या है। और जैसा कि कहा जाता है कि सफलता का कोई विकल्प नहीं। आज दुनिया भर में 2.85 अरब से अधिक फेसबुक उपयोगकर्ता हैं! विश्व की कुल जनसंख्या लगभग 7.5 अरब है, ऐसे में इसकी पहुंच की कल्पना कीजिए। अब यह व्यक्तिगत से संगठनात्मक हो गया है। बड़ी उत्पाद कंपनियां इनके सदस्यों का उपयोग अपने उत्पादों को बेचने के लिए कर रही हैं। राजनेता इस मंच पर अपने सपने और विचारधारा बेच रहे हैं। और फेसबुक के खुश-दुखी सदस्य इसका आस्वाद लेकर खुश हैं।
किताब लिखकर उसे प्रकाशित कराना भी आत्म-साक्षात्कार का खेल है। लेकिन प्रकाशन व्यवसाय पूरी तरह से प्रकाशकों द्वारा नियंत्रित होता है। वे किसी भी पांडुलिपि को अच्छी-बुरी बताकर खारिज कर सकते हैं। यानी आप किताब प्रकाशन के लिए पूरी तरह से प्रकाशक की दया पर निर्भर होते हैं। प्रकाशक के भी अपने कारण होते हैं, क्योंकि वे लेखकों पर पैसे खर्च करते हैं। इसलिए जब तक इस दुनिया में प्रासंगिक बने रहने की मानवीय लालसा मौजूद है, तब तक सोशल मीडिया फलता-फूलता रहेगा और तब तक बड़ा और बड़ा होता रहेगा, जब तक कि हमारे ग्रह के आठ अरब लोग एक-दूसरे से जुड़ नहीं जाते।
हैरानी नहीं कि सोशल मीडिया क्रिएटर मस्तमौला और अहंकारी हो गए हैं, क्योंकि उन्होंने दस वर्षों के भीतर दुनिया की लगभग आधी आबादी को प्रभावित करना शुरू कर दिया है। उन्होंने शर्तों को निर्धारित करना और बिना कारण बताए देशों के प्रमुखों के खातों को निष्क्रिय करना शुरू कर दिया है। आज वे कानून, न्यायाधीश और ज्यूरी बन गए हैं।
क्रेडिट बाय अमर उजाला

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