- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- मध्य प्रदेशः पंचायतों...
आदित्य नारायण चोपड़ा; उत्तर भारत के महत्वपूर्ण राज्य मध्य प्रदेश में स्थानीय निकाय व पंचायती चुनावों का दौर पूरा हो चुका है और इनके परिणामों को देख कर इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा व विपक्षी पार्टी कांग्रेस के बीच ऐसा मुकबला हुआ है जिसमें दोनों पार्टियां अपना 'चेहरा' उजला बता सकती हैं। इन चुनावों को यदि अगले साल अक्टूबर-नवम्बर में होने वाले विधानसभा चुनावों का 'सेमीफाइनल' माना जाये तो राज्य के मतदाताओं का रुख 'अनमना' है। इससे यही नतीजा निकाला जा सकता है कि दोनों पार्टियां मतदाताओं को रिझाने में कब किसके ऊपर भारी पड़ जायें, कुछ अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। यह सच है कि किसी भी राज्य के पंचायतों के चुनावी नतीजे से उसकी राजनीतिक 'नस' की धड़कन आसानी से मापी जा सकती है क्योंकि इसमें 90 प्रतिशत से अधिक ग्रामीण मतदाता ही वोट डालते हैं।मध्य प्रदेश में 23 हजार से अधिक ग्राम पंचायतें हैं। इनके जो परिणाम आये हैं उन्हें लेकर राज्य के मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह उत्साहित हैं और कह रहे हैं कि 20 हजार पंचायतों पर भाजपा समर्थक जीते हैं जबकि प्रदेश कांग्रेस की कमान थामे हुए पूर्व मुख्यमन्त्री कमलनाथ का दावा है कि कांग्रेस का कब्जा 11 हजार से अधिक पंचायतों पर हो चुका है। इन अन्तर्विरोधी दावों की वजह यह है कि पंचायत चुनाव राजनैतिक आधार पर नहीं लड़े जाते और प्रत्याशियों को किसी भी पार्टी का चुनाव निशान नहीं मिलता। प्रत्येक प्रत्याशी स्वतन्त्र उम्मीदवार ही होता है। अतः चुनाव जीतने के बाद प्रत्याशी अपनी राजनैतिक वफादारी का ऐ लान करते हैं और इसमें प्रायः सत्तारूढ़ दल का पलड़ा ही झुका रहता है क्योंकि ग्राम प्रधान बनने के बाद उसे राज्य सरकार से विकास के लिए प्राप्त होने वाले धन की व्यवस्था करनी होती है। इसे हम पंचायती चुनावों की विसंगति भी कह सकते हैं परन्तु यह व्यावहारिक सत्य है। परन्तु एक तथ्य तयशुदा है कि राज्य में कांग्रेस नेता कमलनाथ की लोकप्रियता लगातार बढ़ी है। इसका प्रमाण राज्य के 16 बड़े शहरों की नगर निगम के चुनाव परिणाम हैं जिनमें 16 में से पांच कांग्रेस जीती व नौ भाजपा जीती मगर मतदाताओं का रुझान कांग्रेस के प्रति अधिक झुका रहा। कांग्रेस ने ये पांचों नगर निगम भाजपा से छीनी क्योंकि पिछले चुनावों में कांग्रेस किसी एक भी नगर निगम का चुनाव नहीं जीती थी।इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि राज्य की कुल 312 जिला परिषद पंचायतों के चुनाव के परिणाम भी बराबरी पर ही छूटे हैं क्योंकि कांग्रेस दावा कर रही है कि उसने 167 परिषदें जीतीं जबकि भाजपा कह रही है कि उसके प्रत्याशी 200 से ऊपर परिषदों पर विजयी रहे। निश्चित रूप से इन दावों में भी विरोधाभास है मगर यह निश्चित है कि श्री चौहान व कमलनाथ के नेतृत्व में दोनों पार्टियों के कार्यकर्ताओं का उत्साह क्षीण नहीं हुआ है। शिवराज उन्हें बधाई दे रहे हैं तो कमलनाथ उनकी हौसला अफजाई करके दौड़ जीतने का ढांढस बंधा रहे हैं। लोकतन्त्र में यह प्रतियोगिता स्वस्थ तरीके से हो इसकी जिम्मेदारी राज्य चुनाव आयोग व प्रान्तीय सरकार की भी होती है क्योंकि सारा प्रशासन उसके ही हाथ में रहता है। अतः इस मोर्चे पर हर पार्टी की शासन में रहने वाली प्रान्तीय सरकार पर आरोप प्रायः लगते हैं, परन्तु देखना यह होता है कि जनता का 'मूड' किस पार्टी की तरफ है। कुछ लोग इन चुनावों को विधानसभा चुनावों का सेमीफाइनल मानने को तैयार नहीं हैं क्योंकि अगले साल होने वाले इन चुनावों में शिवराज सिंह के पास स्टार प्रचारकों में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी से लेकर इस पार्टी के एक से बढ़ कर एक दिग्गज नेता होंगे जबकि श्री कमलनाथ को अपनी पार्टी कांग्रेस की तरफ से इन सबका अकेले ही अपने बूते पर मुकाबला करना पड़ेगा।भाजपा अन्य राज्यों की तरह से इस राज्य में भी कार्यकर्ता मूलक पार्टी है और इसके पास उनकी पूरी फौज है मगर श्री कमलनाथ ने इस मोर्चे पर जो कमाल किया है वह यह है कि उन्होंने भी भाजपा की तर्ज पर राज्य में जमीनी स्तर पर पार्टी कार्यकर्ताओं की सेना बना ली है। यही वजह रही कि उन्होंने ज्योतिरादित्य सिन्धिया के कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में जाने के बावजूद उनके ग्लावियर संभाग पर कांग्रेस का दबदबा कायम कर दिया और 54 साल बाद ग्वालियर नगर निगम पर कांग्रेस के महापौर की जीत हुई। दूसरी तरफ शिवराज सिंह ने भी कांग्रेस के गढ़ समझे जाने वाले इलाकों मे सेंध लगाना जारी रखा। दरअसल चुनाव सीधे शिवराज व कमलनाथ के बीच ही हुए और इनके परिणाम भी सत्ता व विपक्ष के बीच राज्य के लोगों की वरीयताओं का आइना ही कहे जायेंगे। अब यह इन दोनों नेताओं पर निर्भर करता है कि वे अपने-अपने चेहरों को किस कोण से देखते हैं ! मगर इतना जरूर कहा जा सकता है कि दोनों ने ही एक-दूसरे के घर के सामने अपना घर बना लिया है।